Sunday 28 February, 2010

साहित्यकारों के विनोद प्रसंग

हिंदी ही क्या समस्त भाषाओं में साहित्यकारों के जीवन में बहुत से विनोद प्रसंग जुड़े रहते हैं। इन प्रसंगों से गंभीर दिखने वाले रचनाकारों की एक सहज और आत्मीय छवि बनती है। हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में कीर्तिशेष संपादक स्व. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने महान साहित्यकारों के ऐसे रोचक और मनोरंजक संस्मरणों की एक पूरी शृंखला प्रकाशित की थी। उर्दू साहित्य में इसकी पुरानी परंपरा रही है और इसी वजह से उर्दू के महान रचनाकारों के बारे में आम जनता में भी बहुत से लतीफे प्रचलित हैं। मीर, गालिब के शेरों से सामान्य व्यक्ति भी परिचित है और उनके रोचक प्रसंगों से भी। होली के अवसर पर प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे ही रोचक एवं मनोरंजक संस्मरण।

दरबार में कविता

मलिक मुहम्मद जायसी बेहद कुरूप थे। एक बार वे अमेठी के काव्य-प्रेमी राजा के दरबार में पहुंचे तो राजा समेत दरबार में उपस्थित तमाम लोग उन्हें देखकर बुरी तरह हंसने लगे। जायसी ने अपने सुमधुर कण्ठ से बस एक अर्द्धाली सुनाई और सबको निरुत्तर कर दिया, ‘मोहि कां हंससि कि कोंहरहिं।’ अर्थात् मुझ पर हंस रहे हो या बनाने वाले ईश्‍वर रूपी कुम्हार पर। कवि और राजा के बीच ऐसे ही एक संवाद का प्रसंग जयपुर के राजा मानसिंह प्रथम के काल का है। महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे भी जयपुर दरबार के कवि थे। चौबेजी को महाराज कहा ही जाता है। तो एक बार चौबेजी गांव गए हुए थे। वहां उन्हें रुपयों की आवश्‍यकता हुई तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिखकर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिखकर दे दिया। राजा मानसिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा,

इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज।
हुण्डी करी हजार की नेक ना आई लाज।।

आलोचक की व्यंग्योक्ति

एक बार आचार्य रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन बाजार में एक शरबत की दुकान पर पहुंचे। दुकानदार ने वहां नए जमाने के हिसाब से महिलाओं को परिचारिका रखा हुआ था। जब दोनों ने शरबत पी लिया तो लालाजी ने पूछा, ‘कितना दाम हुआ?’ परिचारिका ने मुस्कुराते हुए जब दाम दस आने बताया तो तीन गुना दाम सुनकर लालाजी विचलित हुए। उन्होंने आचार्यजी की ओर प्रश्‍नवाचक दृष्टि से देखा तो आचार्य जी अपनी सनातन गंभीर मुद्रा में बने रहे और बोले, ‘दे दीजिए दस आने, इसमें शरबते-दीदार की कीमत भी शामिल है।’ इसी प्रकार एक बार एक अध्यापक शुक्लजी के पास आए और स्कूली पाठ्यक्रम में लगी हुर्ह एक कविता ‘चीरहरण’ को निकालने की मांग करने लगे। उन्होंने कहा, ‘यह कविता एकदम निकाल देनी चाहिए। भला आप ही बतलाइये, इसे बालकों को कैसे पढ़ाया जाएगा?’ शुक्लजी ने शांत भाव से कहा, ‘परेशान क्यों होते हैं? कह दीजिएगा कि कृष्णजी स्काउटिंग करने गए थे।’

राष्ट्रकवि और द्राक्षासव

एक बार राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त अपने दिल्ली आवास से बाहर गए हुए थे। पीछे से राय कृष्णदास आए और साथ में द्राक्षासव की एक बोतल भी ले आए। जब तक राय साहब रहे गुप्तजी बाहर थे। राय साहब जाते वक्त खाली बोतल मेज पर छोड़ गए। गुप्तजी लौटे तो बोतल देखकर मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने बोतल उठाई तो खाली बोतल पाकर निराश हो गए। क्रोध में गुप्तजी ने एक कविता लिख डाली-

कृष्णदास! यह करतूत किस क्रूर की?
आए थके हारे हम यात्रा कर दूर की।
द्राक्षासव तो न मिला, बोतल ही रीती थी!
जानते हमीं हैं तब हम पर जो बीती थी!
ऐसी घड़ी भी हा! पड़ी उस दिन देखनी-
धार बिना जैसे असि, मसि बिना लेखनी!

बैरंग डाक का दोहा

डाकघर में बैरंग चिट्ठियों पर आधी गोल मुहर लगाई जाती है और दोगुना डाक-व्यय वसूल किया जाता है। एक अज्ञात कवि ने इस पर एक अद्भुत दोहा लिखा है-

आधी मुहर लगाय कें, मांगत दूने दाम।
याही सों इन जनन को, पड़्यो ‘डाकिया’ नाम।।

निराला की मस्ती

महाकवि निराला को अक्सर किसी चीज की धुन चढ़ जाती तो वे उसी में डूबे रहते। मृत्यु से पूर्व एक बार उन्हें अंग्रेजी काव्य की धुन सवार हो गई तो उन्होंने तमाम अंग्रेज कवियों को पढ़ डाला। मिल्टन और शेक्सपीयर उन्हें खास तौर पर पसंद थे और अक्सर कहते थे कि कविता में इन दोनों को कौन पछाड़ सकता है। एक बार होली के दिन सुबह से ही निराला जी विजया के रंग में थे और मौन धारण कर रखा था। आने वाले लोग उनका मौन देखकर चले गए। बस गिनती के लोग रह गए। किसी ने निराला जी से कहा कि होली का दिन है पंडितजी, इस वक्त तो कोई होली होनी चाहिए। निराला जी को होली गाने की धुन सवार हो गई तो लगे होली गाने। उस दिन करीब ढाई-तीन घण्टे तक निराला जी होली गाते रहे। जब गाते-गाते मन भर गया तो कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, ‘बस यहीं-हिंदी की इन होलियों में -मिल्टन और शेक्सपीयर हिंदी से मात खा जाते हैं!’

हिंदी से हिंदी अनुवाद

बहुत से लेखकों की भाषा अत्यंत क्लिष्ट होती है। सौंदर्यशास्त्र के विद्वान लेखक रमेश कुंतल मेघ भी ऐसे ही रचनाकारों में हैं। एक किस्सा उनके बारे में प्रचलित है। हुआ यह कि एक बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रमेश कुंतल मेघ का आमना-सामना हो गया। औपचारिक बातचीत के बाद मस्तमौला द्विवेदी जी ने कहा, ‘डॉ. साहब अब तो आपकी किताबों का भी हिंदी अनुवाद आ जाना चाहिए।’

कुछ चुटकुले-कुछ जातक कथाएं

हिंदी साहित्य में एक समय ‘धर्मयुग’ ने साहित्यकारों के बारे में कुछ चुटकुलानुमा प्रहसन प्रकाशित किए थे। उनमें से एक महान आलोचक डॉ. नामवर सिंह के बारे में था। दिल्ली में सड़कों पर नई-नई ट्रेफिक लाइटें लगी ही थीं। एक व्यक्ति लाईट के साथ अपनी दिशा बदल लेता था। कभी दांए तो कभी बांए मुड़ जाता था। ट्रेफिक पुलिस के सिपाही ने उसकी गतिविधि को देखकर कहा, ‘ऐ धोती वाले बाबा, तुम कभी दांए तो कभी बांए क्यों जाते हो?’ वहीं दो लेखक भी पास में खड़े थे। दोनों ने एक साथ कहा, ‘यह पुलिसवाला नामवर जी की आलोचना को कितनी अच्छी तरह से समझता है।’

एक समय हिंदी में लेखकों को लेकर बहुत सी जातक कथाओं की रचना की गई थी। प्रसिद्व कवि राजेश जोशी ने ऐसी ही कुछ जातक कथाएं सुनाई। एक गरीब किसान को खेत में खुदाई करते हुए एक बड़ा-सा टब मिला। उसने माथा पीट लिया कि निकलना ही था तो कोई खजाना निकलना चाहिए था। उसने झल्लाइट में एक गाजर टब में फेंक दी। टब में गिरते ही गाजर एक से दो हो गई। किसान ने दो गाजर फेंकी तो चार हो गईं। वह जो भी चीज टब में डालता वो दोगुनी हो जाती। जमींदार को इसका पता चला तो उसने टब अपने घर मंगवा लिया, क्योंकि जमीन तो उसी की थी, जिसमें टब निकला। इसके कुछ ही दिन बाद देश में राजनैतिक संकट खड़ा हो गया। सरकार ने लोगों का ध्यान बंटाने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति महोत्सव जैसे आयोजन शुरु करने का फैसला किया। संस्कृति से जुड़े लोगों की खोज की जाने लगी, लेकिन सरकार के पास ऐसे लोगों की बहुत कमी थी। ऐसे में सरकार को किसी ने उस टब को उपयोग में लेने की सलाह दी। सरकार ने उस टब की मदद से एक अशोक वाजपेयी जैसे कई अशोक वाजपेयी बना डाले और सबको विभिन्न सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में नियुक्तियां दे दीं।

अशोक वाजपेयी को लेकर एक और जातक कथा प्रचलित है। हुआ यह कि एक बार एक संन्यासी भारत भवन नामक गुफा में अपने शिष्‍यों सहित आकर ठहरा। उसने देखा कि खूंटी पर टंगे थैले से रोज रोटियां गायब हो जाती हैं। एक दिन संन्यासी नींद का बहाना कर जागता रहा। उसने देखा कि एक चूहा अपने बिल से निकल कर सीधा छलांग लगा कर खूंटी पर टंगे थैले से रोटियां निकाल कर वापस बिल में चला जाता है। अगले दिन संन्यासी ने शिष्यों को बुलाकर बिल खुदवाया तो वहां राष्ट्रीय खजाना गड़ा हुआ था। संन्यासी ने वहां से खजाना खाली करा दिया। अबकी बार चूहा आया तो संन्यासी ने देखा कि वह छलांग नहीं लगा पा रहा है और सिर्फ एक-आध इंच ही उछल पा रहा है। संन्यासी ने अपने शिष्यों को बुलाकर समझाया कि चूहा राष्ट्रीय खजाने के प्रताप से ही लंबी छलांगें लगा रहा था।

हिंदी के पितामह का एक चुटकुला

भारतेंदु हरिश्‍चंद्र अपनी पत्रिका ‘श्रीहरिश्‍चंद्र चंद्रिका’ में चुटकुले प्रकाशित किया करते थे। प्रस्तुत है उस जमाने की भाषा में एक चुटकुला-

एक नवयौवना सुंदरी चतुर चरफरी वसंत ऋतु में अपनी बहनेली के यहां गई और कुछ इधर उधर की मन लगन की बातें कर रही थी कि प्यासी हुई और पानी मांगा। इसकी उस मुंहबोली बहन ने कोरे कुल्हड़े में पानी भरकर ला दिया जो इसने मुह लगाकर पिया तो कुल्हड़ा होठों से लग रहा। वह खिखिलाकर हंसी और इस दोहे को पढ़ने लगीः

रे माटी के कुल्हड़ा, तोहे डारों पटकाय।
होंठ रखे हैं पीउ, तू क्यों चूसे जाय।।

यह सुन उसकी बहनेली ने कुल्हड़े की ओर से उत्तर दियाः

लात सही मूंकी सही उलटे सहे कुदार।
इन होठन के कारने सिर पर धरे अंगार।।

और अंत में निराला जी की एक होली

नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,

एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली

कली-सी काँटे की तोली !

मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधु सुधबुध खो ली,

खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--

बनी रति की छवि भोली!

इनमें से चुनिंदा प्रसंग राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्‍ट में 28 फरवरी, 2010 को प्रकाशित।

Sunday 21 February, 2010

आधुनिक अरबी का महान रचनाकार - नजीब महफूज

अरबी साहित्य के इतिहास में पहला और अब तक का अंतिम नोबल पुरस्कार मिस्त्र के नजीब महफूज को 1988 में मिला। लेकिन नजीब इस पुरस्कार से तीन दशक पहले ही अरबी भाषा के इतिहास में वो मुकाम बना चुके थे, जिसमें वे बाल्जाक, तोलस्तोय और चार्ल्‍स डिकेंस के समकक्ष नजर आते हैं। उनके उपन्यासों को लेकर माना जाता है कि आधुनिक अरबी में उपन्यास विधा की शुरूआत संभवत उन्होंने ही की है। उनके उपन्यासों पर अरबी में अनेक चर्चित फिल्मों का निर्माण हुआ है और उन्हें आधुनिक अरबी साहित्य का विश्व में सर्वश्रेष्ठ लेखक माना जाता है। हालांकि बाहरी विश्व में उनको नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद ही पहचाना गया और दुनिया की कई भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद हुआ। नोबेल पुरस्कार मिलने की कई वजहों में से एक यह भी रही कि नजीब महफूज ने इस्लामिक जगत में सलमान रूश्दी के खिलाफ दिए गए फतवे की जबर्दस्त भर्त्‍सना की और 'सैटेनिक वर्सेज' के लिए रूश्दी की भी कडी आलोचना की। यद्यपि इसी कारण से उनकी कई कृतियों को मध्य-पूर्व के कई देशों में प्रतिबंधित भी कर दिया गया और उन पर जानलेवा हमले भी हुए। लेकिन इस साहसी लेखक ने अविचलित रहते हुए कट्टरपंथियों के आगे कभी घुटने नहीं टेके।

11 दिसंबर, 1911 को कैरो के एक उपनगर में निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्में नजीब सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। बचपन में मां ने खूब पढने और संग्रहालय दिखाने के बहाने इतिहास से परिचय कराने का जो सिलसिला चलाया वह आगे चलकर साहित्य के संस्कारों में परिणत हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के बाद दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर करने पर पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए नजीब महफूज भी प्रशासनिक सेवा में चले गए। इस बीच उन्होंने ढेरों किताबें लिखीं, जिनमें उपन्यास, कहानियां, संस्मरण, इतिहास, वृतांत आदि शामिल हैं। नगीब अखबारों के लिए नियमित स्तंभ लिखते थे और उनके कई उपन्यास अखबारों में धारावाहिक प्रकाशित हुए। उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा और कहानियां लिखीं, जो खासी प्रसिद्ध हुई। नजीब महफूज चाहते थे कि वे मिस्त्र का आधुनिक इतिहास उपन्यासों के रूप में लिखें, इसलिए प्रारंभ में उन्होंने 30 उपन्यासों की शृंखला पर काम करते हुए तीन उपन्यास लिखे, लेकिन बाद में इस परियोजना को बदल कर खुद को इतिहास के बजाय वर्तमान पर केंद्रित कर लिया। इस क्रम में उन्होंने एक उपन्यास त्रयी लिखी जो बेहद मशहूर हुई। इस त्रयी में नजीब ने 'पैलेस वाक', 'पैलेस ऑफ डिजायर' और 'शुगर स्ट्रीट' उपन्यास लिखे। इन उपन्यासों में प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर 1950 तक तीन पीढियों का जीवंत इतिहास था। इस बीच सत्ता परिवर्तन से विचलित नगीब ने अपनी रचनाएं प्रकाशित करना बंद कर दिया और सात साल बाद प्रकाशन की दुनिया में वापस लौटै। इसके बाद उन्होंने 'चिटचैट ऑन द नील' उपन्यास लिखा, जो काफी लोकप्रिय हुआ । इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्म के विविध पक्षों की कडी आलोचना करने वाले उपन्यास 'चिल्ड्रेन ऑफ अवर ऎली' को सिवाय लेबनान के समूचे अरब जगत में प्रतिबंधित कर दिया गया और आरोप में कहा गया कि नजीब ने इन धर्मो का कथित तौर पर अपमान किया है। नजीब महफूज ने अपने बाद के तमाम उपन्यास और कहानियों के केंद्र में धर्म की पारंपरिक व्याख्या और आधुनिक विचारों को एक मंच पर लाने का प्रयास करते हुए यह सोच रखी है कि आधुनिक विचारों के साथ सामंजस्य बिठाए बिना किसी भी धार्मिक विश्वास को आगे ले जाना मुश्किल है। जब मिस्त्र ने इजराइल से अमरीका की साक्षी में कैंप डेविड शांति संधि पर हस्ताक्षर किए तो नजीब पहले लेखक थे, जिन्होंने उस संधि का समर्थन किया और पूरी अरब दुनिया से दुश्मनी मोल ली। इस वजह से उनकी किताबों को प्रतिबंध का भी सामना करना पडा, लेकिन वे इस सबसे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए।

मिस्त्र के बाल्जाक कहे जाने वाले नजीब महफूज ने हालांकि कभी मिस्त्र के बाहर की दुनिया नहीं देखी, लेकिन उनकी रचनाओं में आने वाले विचार बताते हैं कि वे कितनी बडी और महान वैश्विक सोच के लेखक हैं। उनकी रचनाओं में दुनिया के श्रेष्ठतम विचार समाहित हैं और यूरोपीय और आधुनिकतावादी विचारों से उनका साहित्य लबरेज है। अपने दृढ विचारों के कारण नजीब महफूज हमेशा अतिवादियों की हिटलिस्ट में रहे, लेकिन उन्होंने अपनी वैचारिक दृढता में कभी कमी नहीं आने दी। 30 अगस्त, 2006 को नजीब महफूज ने अंतिम सांस ली।

राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्‍ट में 21 फरवरी, 2010 को 'विश्‍व के साहित्‍यकार' स्‍तंभ में प्रकाशित।





Monday 15 February, 2010

कोई सरहद ना इसे रोके...

प्राय: सभी देशों में पुरूष-स्त्री से एकनिष्ठ प्रेम की मांग करते हैं किंतु मौका मिलने पर विवाहेत्तर संबंधों से गुरेज नहीं करते और स्त्री ऎसा कर ले, तो झट से तलाक दे देते हैं। किंतु आधुनिक विचारों ने अब महिलाओं को जन्म-जन्मांतर की कैद वाले दकियानूसी विचारों से निजात दिला दी है।

शिक्षा, तकनीक और वैश्वीकरण ने जिस प्रकार पूरी दुनिया को "विश्व ग्राम" में बदल दिया है, उसमें अब देशों की सीमाएं समाप्त हो रही हैं और स्त्री-पुरूष संबंधों की एक नई और वैश्विक प्रेम की दुनिया विकसित हो रही हैं। धर्म, जाति, समाज, गांव, शहर, गोत्र, भाषा और प्रांत से युगों आगे बढ़कर प्रेम की दुनिया तमाम बंधनों से आगे चली आई है और दुनिया के हर हिस्से में व्यापक होती जा रही है। इस नई वैश्विक दुनिया को बनाने में सबसे बड़ा योगदान आधुनिक शिक्षा का है, जिसने लोगों के दिलों में यह बात बहुत गहरे से पैबस्त कर दी है कि मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं होता और जहां दिल मिले वहीं प्रेम और विवाह करना चाहिए। इस विचार को पहले औद्योगिक क्रांति के दौर में यूरोप-अमेरिका में मान्यता मिली और नस्ल व जाति के भेद खत्म हुए तो सही मायने में एक समतावादी समाज विकसित करने के लिए लोगों ने प्रेम को विवाह में परिणत करना शुरू किया। हालांकि पश्चिम में विवाह और संतानोत्पत्ति के बीच लंबे समय से कोई संबंध नहीं माना जाता रहा है, क्योंकि वहां एकल मातृत्व को भी सहज रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। पश्चिमी समाज स्त्री-पुरूष संबंधों के मामले में बेहद खुला समाज है और भारतीय उपमहाद्वीप जैसे देशों के बंद समाजों के बाशिंदों को वह संभवत: इसी वजह से आकर्षित भी करता है। इसी के साथ एक सच यह भी है कि पश्चिमी समाज भारतीय उपमहाद्वीप की वैवाहिक परंपराओं और लंबे गृहस्थ जीवन के आदर्श का आदर करते हुए अनुकरणीय मानता है। तकनीक के इस युग में लगभग हर देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रेम संबंध विकसित हो रहे हैं और विवाह की वेदी तक पहुंच रहे हैं।

दूरसंचार के क्षेत्र में इंटरनेट-क्रांति ने दुनिया भर के लोगों को एक-दूसरे के नजदीक ला दिया है। ई-मेल, नेटवर्किंग साइट्स और चैटिंग की सुविधा ने लोगों को इस कदर परस्पर एक कर दिया है कि अपनी पसंद का साथी दुनिया के किसी भी कोने से चुना जा सकता है। उससे बातचीत कर एक-दूसरे को गहराई से जाना जा सकता है और उचित लगे, तो प्रेम और विवाह भी किया जा सकता है। इंटरनेट पर बहुत से मैरिज-ब्यूरो संचालित हो रहे हैं, जहां किसी भी देश से वर-वधू का चुनाव किया जा सकता है। आज के वैश्वीकरण के माहौल में युवा वर्ग उच्च शिक्षा के लिए दुनिया के विभिन्न देशों में जाते हैं। फिर वहीं रोजगार भी प्राप्त कर लेते हैं। अकेले युवक-युवतियों की सहपाठी और सहकर्मियों से मित्रता होती है, और ये मैत्रियां कई मामलों में प्रेम और विवाह में परिणत हो जाती हैं। हिंदी के प्रसिद्ध कवि-साहित्यकार अनिल जनविजय स्कॉलरशिप पर मास्को गए, वहीं नौकरी मिल गई, तो सहपाठी रूसी कन्या से प्रेम हुआ, जो अंतत: विवाह तक पहुंचा। ऎसे हजारों उदाहरण भारतीय युवक-युवतियों के मिल जाएंगे। एक समय ऎसा भी था, जब इस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय विवाह सिर्फ शाही खानदानों में ही हुआ करते थे, जो कि प्रेम-विवाह कम राजनैतिक और कूटनीतिक विवाह अघिक हुआ करते थे।

साम्यवादी व्यवस्था के पतन के बाद रूस में जिस प्रकार भयानक आर्थिक कंगाली आई, उससे सबसे ज्यादा रूसी महिलाएं प्रभावित हुईं। रूसी महिलाएं ही क्या, दुनिया के लगभग तमाम देशों की महिलाएं आजन्म वैवाहिक संबंधों को तरजीह देती हैं, किंतु आधुनिक विचारों ने अब महिलाओं को जन्म-जन्मांतर की कैद वाले विचारों से निजात दिला दी है। एक रूसी महिला ईव के अनुसार वह भी अपनी मां की तरह आजन्म विवाह का रिश्ता चाहती थी, किंतु उसे अपने क्रूर पिता जैसा पति नहीं चाहिए था। ईव की निगाह में विवाह एक स्थायी प्रेम संबंध कायम करने का नाम है। इसके लिए उसने दुनिया भर में इंटरनेट के माध्यम से अपने लिए उपयुक्त वर की तलाश की। ईव जैसी लाखों-करोड़ों महिलाएं हैं, जिन्हें अपने लिए उपयुक्त वर के स्थान पर स्थायी प्रेमी की तलाश है, जिसकी परिणति लोक-कथाओं और किंवदंतियों के प्रेमी जैसी त्रासदीपूर्ण ना हो। रूसी स्त्रियां अंतर्राष्ट्रीय विवाह करने में पहले स्थान पर हैं।

चीन में एक संतान के प्रतिबंध के कारण लोग कन्याओं को गर्भ में मार डालते हैं, इसलिए वहां लिंगानुपात भयानक रूप से गड़बड़ा गया है और मांग उठने लगी है कि चीनियों को विदेशी नागरिकों से विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए। यही हाल जापान का है, जहां पुरूष अत्यघिक काम करने और शराबनोशी की वजह से परिवार की तरफ ध्यान नहीं देते, इसलिए जापानी युवतियां विदेशी पुरूषों से विवाह करने को प्राथमिकता देती हैं। इसी वजह से जापानी पुरूषों में भी विदेशी युवतियों से विवाह करने की दर तेजी से बढी है। दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, थाईलैंड और वियतनाम में भी विदेशी विवाहों में पिछले एक दशक में जबर्दस्त वृद्धि दर्ज की गई है।

अमेरिका जैसे देश में श्वेत-अश्वेत के बीच विवाह संबंध अत्यंत सामान्य बात है और अमेरिकन स्त्री-पुरूष दुनिया के विभिन्न देशों के नागरिकों से विवाह कर रहे हैं। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हजारों युवक-युवतियां अमेरिकियों से विवाह कर रहे हैं। पश्चिमी समाज में विवाह प्रेम को स्थायित्व देने के लिए किया जाता है, जबकि पूर्वी देशों में जीवन के स्थायित्व के लिए विवाह किया जाता है। एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में 52 प्रतिशत चीनियों ने यह राय जाहिर की। यूरोप के विभिन्न देशों के नागरिकों में आपस में प्रेम और विवाह करने की प्रवृत्ति यूरोपियन यूनियन बनने के बाद बढ़ गई है।

अंतर्राष्ट्रीय विवाह में बहुत से देशों में कानूनी दिक्कतें पेश आती हैं। अगर कानूनी बाधाओं से पार पा भी लिया जाए, तो सांस्कृतिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धार्मिक और नैतिक संस्कार ऎसे विवाहों में आगे चलकर बहुत कटु वातावरण को जन्म दे सकते हैं। यह देखा गया है कि प्राय: सभी देशों में पुरूष-स्त्री से एकनिष्ठ प्रेम की मांग करते हैं किंतु मौका मिलने पर विवाहेत्तर संबंधों से गुरेज नहीं करते और स्त्री ऎसा कर ले, तो झट से तलाक दे देते हैं। जिन देशों में धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें हावी रहती हैं, वहां के नागरिकों से प्रेम और विवाह भारी मुसीबतें खड़ी कर सकता है।

ग्लोबल हुए संत वेलेंटाइन
प्रेम के संत वेलेंटाइन भी ग्लोबल संत हो गए हैं। बाजार की आपाधापी में संत वेलेंटाइन का मानवतावादी प्रेम का संदेश कहीं पीछे चला गया है और मॉल संस्कृति हावी हो गई है। लेकिन इसी बाजार ने मनुष्य-मनुष्य के बीच सहयोग, सद्भावना और मानवीय प्रेम के एक नये संसार की असंख्य खिड़कियां खोल दी हैं, जहां लोग तमाम दकियानूसियों को दरकिनार करते हुए "विश्व ग्राम" में प्रेम की अपनी चाहतों के गुलशन खिला सकते हैं और दुनिया को सही मायनों में एक प्यार भरी दुनिया बना सकते हैं। इस नई दुनिया में पुरानी दुश्मनियां नहीं होंगी और अतीत की शत्रुताओं को प्रेम के बाणों से बींधकर एक नया इतिहास लिखने की कोशिशें की जाएंगी। आमीन!!!

डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में रविवार, 14 फरवरी, 2010 के 'प्रेम अंक' में प्रकाशित।

Sunday 7 February, 2010

रचना आज : पांच कवियों पर केंद्रित किताब


कवि लीलाधर मंडलोई ने हिंदी के पांच कवियों पर एकाग्र पुस्‍तक 'रचना आज' संपादित की है। विश्‍व पुस्‍तक मेले में प्रकाशक अनुभव प्रकाशन के स्‍टाल पर कल शाम वरिष्‍ठ आलोचक डॉ. विश्‍वनाथ त्रिपाठी और वरिष्‍ठ कथाकार डॉ. हेतु भारद्वाज ने इसका लोकार्पण किया। इन पांच कवियों में कुमार वीरेंद्र, नरेश चंद्रकर, शिरीश कुमार मौर्य और मनोहर बाथम के साथ इस खाकसार को भी शामिल किया गया है। इस पुस्‍तक की खास बात यह है कि इसमें संपादक लीलाधर मंडलोई ने तो संपादकीय लिखा ही है, इसके साथ ही प्रत्‍येक कवि पर एक वरिष्‍ठ कवि की टिप्‍पणी भी दी है और हर कवि का वक्‍तव्‍य भी दिया है। कवियों की 11-11 कविताएं भी साथ में हैं। कुमार वीरेंद्र पर कवि आलोचक विजय कुमार, नरेश चंद्रकर पर राजेश जोशी, शिरीश कुमार मौर्य पर पंकज चतुर्वेदी, मनोहर बाथम पर लीलाधर मंडलोई और खाकसार पर कात्‍यायनी ने लिखा है। लोकार्पण के अवसर पर प्रसिद्ध कवि मदन कश्‍यप और कृष्‍ण कल्पित ने पुस्‍तक की तारीफ करते हुए इस काम को महत्‍वपूर्ण बताया। इस अवसर पर उपन्‍यासकार भगवान दास मोरवाल, कथाकार अजय नावरिया, कवि ओम भारती, श्‍याम निर्मम और व्‍यंग्‍यकार फारूक आफरीदी आदि अनेक महत्‍वपूर्ण रचनाकार-साहित्‍यकार मौजूद थे।
कवि मित्रों के लिए आज मैं अपना टूटा-फूटा आत्‍म-वक्‍तव्‍य यहां प्रकाशित कर रहा हूं।

अपनी कविता के बारे में क्या कहें

मेरे भीतर कविता कैसे जनमी, यह शायद बचपन की स्मृतियों को खंगालने से ही समझा जा सकता है। मेरा जन्म ननिहाल में हुआ और बचपन का एक लंबा हिस्सा ननिहाल में ही या उसके इर्द-गिर्द गुजरा। दादा-दादी तो पिता को बचपन में ही छोड़ गए थे, इसलिए ननिहाल ही हमारा सब कुछ था। मेरी नानी दुनिया की तमाम नानियों की तरह कहानियां सुनाया करती थी। एक ही कहानी को बार-बार सुनना एक अद्भुत अनुभव हुआ करता था। नानी को पता नहीं कितनी कहानियां याद थीं। लेकिन कहानियों की तरह उन्हें पारंपरिक शादी-ब्याह, जन्म-मरण जैसे अवसरों के असंख्य गीत भी कंठस्थ थे। नानी की संतान के रूप में मां के अलावा एक बेटा यानी मामा थे, जो मुझसे कोई पंद्रह बरस ही बड़े थे। मुझे नानी की स्मृति पर आश्‍चर्य होता था और मैं कौतुक भाव से नानी की कहानियों की तरह उनके गीत भी सुनता था। उन गीतों की लय आज भी मेरे भीतर कहीं बहती रहती है, हालांकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे अब याद कर आश्‍चर्य होता है कि कैसे नानी औरतों के जुटते ही गाना शुरु कर देती थीं और कैसे एक गीत से दूसरे गीत पर चली जाती थी? मेरे लिए कविता का यह पहला संसार था, जिसमें मुझे हमेशा आनंद आता था और आज भी घर-परिवार में कई अवसरों पर गीतों को सुनने का मुझे आत्मीय आनंद मिलता है, क्योंकि मेरी मां को भी नानी की तरह बहुत से गीत याद हैं। गीतों के लालच में मैं अक्सर महिलाओं के आसपास ही भटकता रहता था, इसलिए कई बार मजाक का शिकार भी होता था। मुझे भी बचपन में बहुत से गीत याद हो गए थे और मुझे उन्हें याद कर गुनगुनाना अच्छा लगता था। अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मैं कभी खुलकर नहीं गा पाया और शायद यही वजह थी कि मैं गाना नहीं सीख पाया। क्योंकि घरेलू गीत गायन के आयोजनों में हमारे यहां ढोलक जैसा कोई ताल वाद्य नहीं होता था, इसलिए मुझे सुर की तो समझ आ गई, लेकिन ताल की नहीं आ सकी। आज भी मुझे ताल की कोई समझ नहीं है, सुर की थोड़ी बहुत है।

तो बचपन के इस माहौल में मेरे भीतर कविता के शैशव संस्कार पैदा हुए। मेरे पिता रात में सोते वक्त हमें किस्से-कहानियां सुनाते और कुछ गीत भी। पिता प्रायः भजन सुनाते थे और उनमें महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’ अवश्‍य होता था। इसके अलावा ‘रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलजुग आएगा’ भी प्रायः सुनाते थे। पिता मिल में काम करते थे, फिटर थे और सीटू के मेंबर थे। हमारे घर में ‘लोकलहर’ और ‘मुक्तिसंघर्ष’ पिता लेकर आते थे। एक दैनिक और साप्ताहिक अखबार भी आता था। मां बेहद धार्मिक स्वभाव की हैं, पिता इसके विपरीत सुविधाजनक रास्ता चुनने वाले। धार्मिक पाखण्ड के विरोधी और सहज जीवन दर्शन को मानने वाले। इस तरह मेरी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। पिता हमें पढ़कर आगे बढ़ते देखना चाहते थे, लेकिन पाठ्यक्रम के अलावा उन्हें सिर्फ अखबार-पत्रिका ही पसंद थे। उनकी डायरी में मैंने चिकित्सा के नुस्खे पढ़े हैं। वे संपादक को पत्र लिखने वाले पाठक हैं। बहरहाल वे इस पर नाराज रहते थे कि मैं स्कूल के अलावा भी किताबें चोरी से पढता हूं, खास तौर पर वे उपन्यासों से चिढ़ते थे। मैं बचपन में तीन-चार घण्टों में एक मोटा उपन्यास समाप्त कर देने वाला पाठक इसलिए था, कि पिता के आने से पहले किसी कोने में बैठकर पढ़ डालता था। ये लोकप्रिय किस्म के उपन्यास होते थे, जो चवन्नी में एक दिन के लिए किराए पर मिलते थे। मैं बचपन में पढ़ी जिस चीज को आज तक पढ़ता हूं वो है भगत सिंह का लेख, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’। इस लेख ने ही मेरे भीतर नास्तिकता ऐसी पैबस्त की कि तमाम व्रत रखने वाला बालक कठोर नास्तिक हो गया।

फिल्मी गीत, लोक गीत और पारंपरिक गीतों ने मुझे हमेशा लुभाए रखा। लेकिन मैं तब भी कविता नहीं लिखता था। मेरे पिता ने मुझे सरकारी स्कूल से निकालकर एक निजी स्कूल में भर्ती करा दिया, क्योंकि मैं पढ़ाई में टोळ था। यहां का अनुशासन बहुत कठोर था। छठी कक्षा में आने पर एक नए अध्यापक आए, गणेश राम गोठवाल। छह फुट लंबे गणेश जी आशु कवि थे। स्कूल में होने वाले समारोहों के लिए विशेष गीत वे तुरंत लिख देते थे। वे हमारी ही जाति के थे और मेरे पड़ौस में ही कमरा किराए पर लेकर रहते थे। एक बार कक्षा में उन्होंने सबसे दो पीरियड की अवधि में कुछ भी लिखने की छूट दी तो मैंने एक काल्पनिक यात्रा का लंबा संस्मरण लिख डाला। इससे गुरुजी पहली बार मुझसे प्रभावित हुए थे और मुझे शाम के वक्त अपने यहां आकर पढ़ने के लिए बुला लिया। घर वालों को कोई एतराज नहीं था। मैं उन्हें गुरू कहने लगा। वे साहित्य में कोविद की उपाधि प्राप्त कर चुके थे और अब जयपुर में अंग्रेजी में बी.ए. कर रहे थे। उनके यहां पाठ्यक्रम के अलावा मैंने दूसरी चीजें भी पढ़ना शुरु कर दिया था। वे हमें हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। मैं उनकी किताबों में से रोज कुछ पढ़ने लगा। शायद उनके पाठ्यक्रमों की किताबें थीं। उनमें अंग्रेजी साहित्यकारों को हिंदी माध्यम से पढ़ा, यानी टेक्स्ट को हिंदी में पढ़ा। कीट्स, शैली, बायरन, मिल्टन, शेक्सपीयर आदि कई रचनाकारों को मैंने पढ़ डाला था। मुझे गद्य लिखने में अब और मजा आने लगा था। हिंदी के सवालों के रचनात्मक ढंग से जवाब देने लगा था, शायद गुरुजी को प्रभावित करने के लिए और उनका कृपापात्र बने रहने के लिए। कैशोर्य के उन दिनों में कक्षा में सब कविताएं लिखते थे और मैं गद्य। मुझे तुक मिलाने में कोफ्त होती थी, लेकिन काव्याभ्यास के लिए या गुरुजी की प्रेरणा से कभी-कभार कुछ कवितानुमा लिख लेता था। गुरुजी ने कहा अतुकांत ही लिख लिया करो। तो एक नया रास्ता मिल गया। प्राइवेट स्कूल आठवीं तक ही था, इसलिए फिर सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा। गुरुजी वहीं रहते थे। उनके पास जाना बंद नहीं हुआ।

इस बीच पिता की मिल में तालाबंदी हो गई और हम भयानक आर्थिक संकट में आ गए। गुरुजी ने कमरा छोड़ दिया और हमारे घर रहने लगे। किराए-खाने के बदले कुछ देने लगे। मैं कॉलेज पहुंचने तक किताबी कीड़ा हो चुका था। जो भी मिलता पढ़ डालता था। दूर दराज के गांवों में अपने मित्र और रिश्‍तेदारों को लंबी चिट्ठियां लिखने लगा था। इस तरह मेरा लिखना चलता रहा। एक बार गर्मियों की छुट्टियों में एक जासूसी उपन्यास के तीन सौ पेज लिख डाले थे। फिर कथानक इतना गड़बड़ा गया कि उसे अधूरा छोड़ना पड़ा। कुछ कहानियां लिखीं। इंदिरा गांधी की हत्या से मैं बेहद विचलित हुआ और एक कविता के रूप में कुछ लिखा, जो गुरुजी ने इतना दुरुस्त कर दिया कि वह कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो मुझे सिर्फ नाम छपने की खुशी हुई। लगा कि इसमें मेरा खुद का तो कुछ ही नहीं। अगले साल कॉलेज की पत्रिका में जब कहानी प्रकाशित हुई तो बेहद खुशी हुई, क्‍योंकि यह मेरी अपनी रचना थी। फिर अपनी रचनाएं अखबारों को भेजने लगा, लेकिन अखबारों में मेरी कहानियों की कोई पूछ नहीं थी। मुझे लगा कि कहानी पर इतनी मेहनत करनी पड़ती है और कोई प्रकाशित ही नहीं करता। फिर मुझे साहित्यिक पत्रिकाओं का पता चला और मैंने जब ये पत्रिकाएं पढ़ना प्रारंभ किया तब पता चला कि इस वक्त किस तरह का लेखन चल रहा है। मैंने अपनी कहानियों को बहुत संक्षिप्त करते हुए उन्हें नई कविता में लिखने की कोशिश की। पत्रिकाएं पढ़ने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे मेरा झुकाव कहानी से कविता की ओर बढ़ गया। प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में जाने लगा। लेखकों से संपर्क बढ़ने लगा और इसी बीच प्रेम के अंकुर फूटने लगे। प्रेम सभी को कवि बना देता है। मैंने पहले प्रगतिशील विचारों को आधार बनाकर अपने निजी अनुभव संसार को कविता में उतारा और फिर प्रेम कविताओं की ओर बढ़ा। प्रगतिशील चेतना अब तक मुझे इतने संस्कार दे चुकी थी कि प्रेम कविताओं में भी मैं संसार के दुख, दर्दों को नहीं भूल सका।

इस पृष्ठभूमि में मेरी काव्य यात्रा की शुरुआत हुई। मैं कभी भी तय करके कविता नहीं लिखता कि इस विषय पर कविता लिखनी है। प्रारंभ में जरूर इस तरह की कोशिश की, अब तो कविता ही मुझ तक आती है। कहानियों से कविता की ओर आने के कारण मेरी कविताओं में चरित्रों की प्रधानता रही है। बहुत सी कविताएं ऐसी हैं, जिन पर मैं कहानी लिख सकता था, लेकिन मुझे लगा कि कविता में उस चरित्र को ज्यादा अच्छे ढंग से लिख सकता हूं, सो कविता में ही पूरा चरित्र उतार दिया। लोगों से मिलना और उनसे बतियाते हुए उनके चरित्र के किसी खास पहलू को कविता में मैं किसी ना किसी रूप में ले आता हूं। कहानियां लिखने के दौर में मैंने चरित्रों का अध्ययन करना जो शुरु किया था, वो शगल आज भी जारी है। मैं बस में, राह चलते, व्यर्थ घूमते हुए लोगों का, उनके व्यवहार को बहुत बारीकी से देखता और नोट करता हूं। समसामयिक घटनाओं को निरंतर कई कोणों से विश्‍लेषित करना मेरे एकांत का प्रिय शगल है, इससे मैं अपने आपको एक तर्कशील मनुष्य बनाए रखता हूं। यह संभवतः मार्क्‍सवाद के अध्ययन का नतीजा है। मैं जब इस क्षेत्र में सक्रिय हुआ था तो सब लोग द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की बात किया करते थे। मैंने हिंदी और अंग्रेजी में इस विषय पर कई किताबें पढ़ीं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कहीं से मुझे स्टालिन की एक छोटी पुस्तिका मिली, जिससे मैं पहली बार में ही समझ गया कि द्वंद्वात्मकता आखिर है क्या? बाद में मैंने इस पुस्तिका को कोई बीसियों बार पढ़ा और अपने भीतर इसे गहरे पैबस्त कर लिया। आज मुझे उस पुस्तिका का एक वाक्य भी याद नहीं है लेकिन वो चेतना में इस कदर पैठी है कि किसी भी घटना का विश्‍लेषण करने में मेरी मदद करती रहती है। मेरा मानना है कि एक कवि को कविता में तार्किक होना चाहिए। हिंदी कविता में इतना कुछ अतार्किक लिखा जा रहा है कि कई बार गुस्सा आता है, जब प्रयोग या चमत्कारिक प्रभाव के नाम पर अवैज्ञानिक बातें कह दी जाती हैं और सराही भी जाती हैं।

मैं कई बार महीनों तक कविता नहीं लिखता और कई बार ऐसा भी हुआ है कि एक ही रात में बीस-पच्चीस कविताएं लिखी गईं। सायास तो मुझे गद्य ही लिखना पड़ता है, कविता स्वतः चली आती है। चिंतन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और जब कोई विचार पूरी तरह पक जाता है तो वह कविता में व्यक्त हो जाता है। मेरी कवि मानसिकता को मैं एक रूमानी भावभूमि के रूप में देखता हूं, जिसमें किसी भी चीज को बेहद आत्मीयता के साथ आत्मसात करते हुए मैं उसे निजी और सार्वजनिक दोनों एक साथ बना देता हूं। इसमें कई बार सफल होता हूं और कई बार असफल भी। चीजों का मानवीकरण करना मेरी प्रिय रूचि है और यह परंपरा से निसृत बोध है, जो ऋग्वेद की ऋचाओं से चलकर कई कवियों की कविताओं से पढ़कर मैंने अर्जित किया है। मिथक और इतिहास मुझे प्रिय है, लेकिन वो कविता में एक समकालीन उपस्थिति के रूप में आते हैं। जब मैं आधुनिक जल प्रबंधन को देखता हूं तो मुझे इतिहास में नष्ट हुई नदी-घाटी सभ्यताएं हाल की घटनाएं लगती हैं, और हरसूद भी मोहंजोदड़ो के काल का लगता है। मैं घनघोर नास्तिक आदमी हूं, इसलिए मेरी कविताओं में उम्मीद सिर्फ मनुष्य के कर्म या प्राकृतिक शक्तियों से ही मिलती है। जयपुर के मूर्तिकारों के मोहल्ले को बरसों देखने के बाद मैंने ‘मूर्तिकार’ काव्य-त्रयी लिखी। उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है-

ध्यान से सुनो
छैनी हथौड़े का यह संगीत
खो जाओ
मेहनत और कारीगरी की इस सिम्फनी में

एक आदमी
तराश रहा है विधाता को

मेरा बचपन जिन इलाकों में बीता वहां मुस्लिम आबादी बहुत थी। मेरे बहुत-से दोस्त मुस्लिम हैं और मेरे पिताजी के भी। हमारा उन परिवारों से घरेलू रिश्‍ता है। बहुत से ऐसे घरों में पहले शादी के मौके पर तवायफें आती थीं और गजल, कव्वाली की महफिलें हुआ करती थीं। मेरी काव्य मानसिकता पर उस वक्त की कव्वालियों का गहरा असर है। सूफियाना कलाम आज भी संगीत में मेरी पहली पसंद है। मुझ जैसे नास्तिक को इसीलिए कविता में चीजों का मानवीकरण करना अच्छा लगता है। मेरे अवचेतन में बारहवीं कक्षा में पढ़े गए मीर और ग़ालिब के दीवान गहरे बसे हुए हैं, जब मैंने ग़जलनुमा कई कविताएं लिखकर एक पूरी कॉपी भर दी थी। मेरी याददाश्‍त बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन मैं उसकी कमी इस तरह पूरी करता हूं कि बचपन से ही किसी भी चीज को गहराई से अपने मस्तिष्क में गहरे से उतार लेता हूं, जो समय आने पर किसी ना किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है। बहुत संभव है मेरी कविताओं में ऐसे कवियों की काव्य पंक्तियों का प्रभाव आ गया हो। ग़ालिब और मीर के अध्ययन का एक प्रभाव मेरी चेतना पर यह पड़ा कि मेरी कविताएं सहज बनी रहीं। भाषाई दुराग्रहों से दूर, एक किस्म की हिंदुस्तानी भाषा में रची बसी। मैंने कभी सायास कोशिश नहीं की कि कविता में शब्द किस भाषा से आ रहे हैं, हिंदी, उर्दू और राजस्थानी तीनों मेरे लिए सहज हैं। मेरी कविताओं में अगर कोई भौगोलिकता की जांच करे तो उसमें रेतीले रेगिस्तान की व्यापक छवियां दिखाई देंगी, क्योंकि मरुस्थल मेरी चेतना में गहरे बसा हुआ है। हमारा पुराना घर रेत के एक टीले के साये में था और दूर-दूर तक रेत ही रेत थी, जिसमें खेलते हुए मेरा बचपन बीता।

लिखने के बाद मैं अपनी कविताओं को लंबे समय के लिए भूल जाता हूं। जब कभी वक्त मिलता है पलटकर देखता हूं और उन पर कई दृष्टिकोणों से विचार करता रहता हूं। जब अपने लिखे शब्दों से मोह नहीं रह जाता, मैं उनका संपादन करने लगता हूं और यह प्रक्रिया खासी लंबी चलती है। कई बार कोई कविता मुझे दस बरस बाद पूर्ण लगती है। मेरी प्रकाशित कविताओं से कहीं अधिक अप्रकाशित कविताएं हैं, क्योंकि मैं कविताओं के प्रकाशन को लेकर बहुत ही सशंकित रहता हूं। मुझे जब तक नहीं लगता कि कोई कविता पूरी तरह पाठकों के लिए उस रूप में तैयार नहीं हुई है, मैं प्रकाशन तो दूर उसका पाठ भी नहीं करता। स्वभाव से मैं आज भी बहुत संकोची हूं और कविताओं के मामले में तो इस कदर कि अपनी कविता की डायरी कई बार जानबूझकर भूल जाता हूं। मुझे कविता सुनाना तभी आनंददायक लगता है जब अपनी कविताओं को लेकर बहुत गहरी आश्‍वस्ति हो कि इन कविताओं को सुनाने से मेरी कवि छवि पर कोई गलत असर नहीं पड़ेगा और लोगों को ये पसंद आएंगी। और सुनाते वक्त मैं इस बात का खयाल रखता हूं कि पाठ अच्छा हो। मेरा पाठ सुधारने में रंगमंच के साहचर्य का भी योगदान है। राजेश जोशी और कृष्‍ण कल्पित जैसे कवियों का पाठ सुनकर भी खुद को बहुत सुधारा है मैंने, फिर भी लगता है कि मैं अपनी कविताओं का कोई बहुत अच्छा पाठ नहीं करता।

मैं जब कविता नहीं लिख रहा होता तो गद्य लिखता हूं। आजकल तो मांग पर भी लिखना पड़ता है, इसलिए कई बार गद्य में ही काव्य का प्रभाव पैदा करने का प्रयत्न करता हूं। अखबारी लेखन ने एक चीज सिखाई कि सहज और सरस लेखन ही पाठक को प्रभावित करता है, इसलिए मेरी कविता में भी यह चीजें आईं। मैं अखबारी लेखन इसलिए भी करता हूं कि एक बड़े समुदाय तक अगर आपको पहुंचना है, आपके विचारों को ले जाना है तो उन माध्यमों का प्रयोग करना ही चाहिए, क्योंकि आखिरी मकसद तो यही है ना कि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाएं। एक सच्चे वामपंथी रचनाकार का काम पहले जनता को शिक्षित करना और फिर अपनी रचना पहुंचाना होता है।

लड़कियां, स्त्रियां, बच्चे, मजदूर, कामगार, दलित, वंचित, अल्पसंख्यक और प्रकृति मेरे लिए कविता में पहली प्राथमिकता पर हैं। मैं भव्यता पर नहीं अभावों पर कविता लिखता हूं, क्योंकि मेरा जीवन बेहद अभावों में बीता है। मैं बचपन में जिस निजी स्कूल में पढ़ता था, उसका मालिक-हैडमास्टर मेरे जैसे दलित विद्यार्थियों को बहुत पीटता था और यह भविष्यवाणी करता था कि तुम जिंदगी में होटल में कप-प्लेट धोने से बड़ा काम नहीं कर सकते, क्यों वक्त बर्बाद कर रहे हो पढ़ाई में? मुझे लगता है कि मैं उसकी भविष्यवाणी को दूसरी तरह सही सिद्ध कर रहा हूं। समाज में कितनी गंदगी भरी पड़ी है चारों तरफ, उसकी सफाई कौन करेगा? अगर मेरी कविता इस गंदगी का एक अंश भी साफ कर सके तो इसी में मेरी कविता की सार्थकता होगी। मुझे लोगों से बहुत प्यार है फिर वो चाहे भारत के हों या बाहर के, मैं अपनी कविताओं में उन सबके दुख दर्द, सुख दुख की बातें करना चाहता हूं।

Thursday 4 February, 2010

घूंघट खोल, बढ़के बोल

महिलाओं के सफल शासन की हाल की झांकी से जाहिर है कि आने वाले दौर में घूंघट की घबराहट नहीं, हौसले के बोल सुनने को मिलेंगे।

देश करवट ले रहा है। यह सही है कि पंचायती शासन में अब तक ग्रामीण महिलाओं के नाम पर पुरूषों ने ही शासन किया है। लेकिन जिसने भी झिझक छोडकर सक्रियता दिखाई, उसने पुरूषों से बेहतर काम करके दिखाया। महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से 50 फीसदी करने का प्रस्ताव आया, तो महिलाओं ने भी ठान लिया कि वे गांव के विकास में भागीदार बनकर दिखाएंगी। अब अनेक महिलाएं पंच, सरपंच बनकर देश को नई दिशा दे रही हैं और पुरूषों से बेहतर जनप्रतिनिधि साबित हो रही हैं।

पंचायती राज में पंच और सरपंच बनकर महिलाओं ने दिखा दिया है कि वे चौखट से चौबारे तक का सफर तय कर चुकी हैं। भले ही राजनीति के ककहरे से वाकिफ नहीं हों, पर अपनी जिम्मेदारियां वे बखूबी निभाती हैं। इन्हें सिर्फ अपने गांव के विकास से मतलब है। अब इन्हें हर कदम पर पतियों के सहारे की जरूरत नहीं रह गई है। पंचायती राज में महिलाओं के बढते कदम गांव-ढाणियों में विकास की गंगा बहा सकते हैं। राजस्थान के अलवर जिले में बहरोड के दूधवाल गांव की वार्ड पंच शांतिदेवी के कार्यकाल पर नजर डालें। उन्होंने गांव के स्कूल में कमरे बनवाए और पीने के पानी की व्यवस्था कर बुनियादी काम किया। ऎसे काम ज्यादातर पुरूष जनप्रतिनिधियों के लिए कम महत्‍व के होते हैं। पर महिला जनप्रतिनिधि उन आधारभूत मुद्दों को लेकर राजनीति में आगे आ रही हैं, जिनसे उनके क्षेत्र की जनता लाभान्वित होती है। ऎसा इसलिए भी है कि एक महिला होने के नाते वे भलीभांति समझती हैं कि लोगों की असली समस्याएं क्या हैं, जिनका वे खुद आए दिन सामना करती रही हैं। बीकानेर जिले के लूणकरणसर में गांव की महिलाओं के साथ मारपीट की समस्या आम थी। शराबी पति पत्नियों की कमाई हथियाकर उसे शराब में उडा देते थे। वार्ड पंच रहने के दौरान कांतादेवी नाई ने इसके लिए संघर्ष किया और सरपंच को कहा कि महिलाओं को उनकी मेहनत की कमाई अपने हाथों में मिलनी चाहिए। आज महिलाएं अपने पैसे की मालिक हैं।

भ्रष्टाचार नहीं होगा

गांवों में विकास के कई कार्य बरसों से अधूरे पडे रह जाते हैं। वजह साफ है, कुछ तो धनाभाव और कुछ भ्रष्टाचार। पुरूष सरपंच महिला वार्डपंच को भाव ही नहीं देते। लेकिन हौसला हो तो क्या नहीं हो सकता सिरोही जिले के चनार गांव की शिक्षित वार्ड पंच निमिषा बारोट ने अधूरे पडे सामुदायिक भवन के निर्माण को लेकर सरपंच को तैयार किया। एक साल से अधूरे पडे काम को पूरा करवाया और कोई भ्रष्टाचार नहीं होने दिया। ग्राम पंचायतों की राजनीति में जहां निमिषा जैसी उच्च शिक्षित महिलाएं आ रही हैं, वहीं अशिक्षित महिलाएं भी अब पढना-लिखना सीखकर अपना काम खुद देखने के प्रति गंभीर हो रही हैं। पंचायत की बैठकों में प्रस्ताव पढने से लेकर अंतिम रूप देने तक के काम को निष्ठापूर्वक निभाने में महिला जनप्रतिनिधि पूरी सक्रियता दिखा रही हैं। सिरोही के मोरधला गांव में लक्ष्मी बैरवा ने वार्ड पंच रहने के दौरान शराब की समस्या से निजात दिलाने के लिए मुहिम चलाई। बकौल लक्ष्मी, 'मैंने शराब पीकर उत्पात मचाने वालों के खिलाफ लडाई लडने के लिए 50 महिलाओं को अपने साथ लिया और मोर्चा खोल दिया। कानून ने भी हमारी मदद की और गांव को शराबियों से मुक्त कराया।'

आत्मविश्वास सामने है

कहा जाता है कि आरक्षित सीटों पर राजनीति के माहिर लोग अपने परिवार की स्त्रियों को आगे ला रहे हैं। यह बात एक हद तक सही भी है। लेकिन इसके बरक्स यह भी सच्चाई है कि अब महिला किसी की कठपुतली बनकर काम नहीं करती। अलवर में बानसूर के गांव बाढ मिलखपुर की उमा ने 12 साल की उम्र में खुद का बाल विवाह रूकवाया और 19 साल की उम्र में जाकर शादी की। शादी के बाद शराबी पति की शराब छुडवाई। उसका यह हौसला वार्ड पंच बनने पर भी जारी रहा और उसने गांव में शराब की दुकानों को बंद करवाकर ही चैन लिया।

पुरूषों को साथ देना होगा

पुरूष की भूमिका सहयोगी की हो गई है। स्त्री की एक नई छवि चुनावी राजनीति में बन रही है, जो उसे गहरा आत्मविश्वास देती है और अपने निर्णय खुद लेने के लिए प्रेरित करती है। राजसमंद जिले के गांव सिंदेसर कलां में वार्ड पंच रहने के दौरान तारा ने महिला-पुरूष के बीच होने वाले लिंगभेद को खत्म करने के लिए अपने ससुर के सामने आवाज उठाई। उसके ससुर पंचायत में सरपंच थे। तारा ने पंचायत में सबको बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए कोशिश की। अब पंचायत की सभी औरतें पुरूषों के साथ कुर्सियों पर बैठती हैं।

बदले हैं हालात

देश भर में पंचायतों की राजनीति को बदलने में बहुत-सी गैर सरकारी संस्थाओं का बडा योगदान है। 'द हंगर प्रोजेक्ट' जैसी कई संस्थाएं राजस्थान सहित देश के कई राज्यों में महिला जनप्रतिनिधित्व को बढाने और उन्हें मजबूत बनाने में जुटी हुई हैं। पिछले साल जयपुर में आयोजित महिला पंच-सरपंच सम्मेलन में महिलाएं आगे आईं तो अधिकारियों ने उनकी समस्याओं को गंभीरता से लेना शुरू किया और उनके काम तेजी से होने लगे। पिछले पंचायत चुनाव में 33 फीसदी महिला आरक्षण से अगर हालात में यह बदलाव दिखाई दिया तो इस दफा के 50 फीसदी आरक्षण और उसमें भी गैर आरक्षित सीटों पर भी चुनाव जीतकर आने वाली महिलाओं की संख्या को और जोड दें, तो हमें एक सुनहरे भविष्य के संकेत साफ दिखाई दे रहे हैं।