Sunday 30 May, 2010

सर्बिया का चमकीला नक्षत्र - ईवो आंद्रिक

दो साल की उम्र में जिस बालक को पिता अनाथ छोड़ जाएं, उस के भविष्य की कल्पना ही भयावह होती है। लेकिन जीवट हो तो इंसान क्या नहीं कर सकता? ऐसा ही हुआ, 1961 के नोबल पुरस्कार विजेता कथाकार-उपन्यासकार ईवो आंद्रिक के साथ। 9 अक्टूबर, 1892 को जन्मे ईवो को पिता की मृत्यु के बाद मां के साथ ननिहाल आना पड़ा और आरंभिक वर्ष वहीं गुजारने पड़े। ईवो का जन्म आस्ट्रिया-हंगरी के अधीन प्राचीन ऑटोमान साम्राज्य में हुआ, जो पहले यूगोस्लाविया का भाग था और आज बोस्निया और हर्जेगोविना देश का हिस्सा है। शुरुआत में ईवो ने जिम्नास्टिक की शिक्षा ली और कालांतर में उच्च अध्ययन के लिए कई विश्‍वविद्यालयों में पढ़ाई की। 19 साल की उम्र में ईवो की पहली कविता एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई। युवावस्था में ही आंद्रिक क्रांतिकारी छात्र संगठनों से जुड़ गए थे, इसलिए उनके लेखन और व्यवहार में भी क्रांति के स्वर उभरने लगे थे। ईवो वैचारिक रूप से साम्राज्यवाद के खिलाफ थे और यूगोस्लाविया के समर्थक थे, इसलिए उपनिवेशवादी सरकार ने प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान ईवो आंद्रिक को जेल में डाल दिया। जेल में रहने के दौरान आंद्रिक ने क्रांतिकारी साहित्य का भरपूर अध्ययन किया। लेकिन रूस की सफल क्रांति के बाद बने यूगोस्लाविया गणराज्य में ईवो आंद्रिक को जेल से रिहाई मिली।

प्रथम विश्‍वयुद्ध की समाप्ति के बाद ईवो आंद्रिक ने चार विश्‍वविद्यालयों में स्लाविक भाषा और साहित्य का अध्ययन किया और ‘तुर्की शासनकाल में बोस्नियाई संस्कृति का इतिहास’ विषय पर शोध किया। 1920 में उन्हें यूगोस्लावियाई प्रशासनिक सेवा में ले लिया गया, जहां बीस वर्ष तक उन्होंने कई महत्वपूर्ण राजनयिक पदों पर काम करते हुए अपनी लेखन यात्रा जारी रखी। ईवो की कविताएं अब तमाम महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं और उन्होंने लेखन के साथ विश्‍व साहित्य से अनुवाद का काम भी शुरु कर दिया था। 1920 में पहली कहानी के प्रकाशन के साथ ही ईवो आंद्रिक ने कविता से किनारा कर लिया और पूरी तरह गद्य के लिए समर्पित हो गए। कहानी लेखन में ईवो ने सदियों पुरानी यूगोस्लावियाई लोक संस्कृति को रूपायित करते हुए वहां की कैथोलिक, यहूदी और मुस्लिम समुदाय की समृद्ध विरासत और संघर्षशील जनता के दुख दर्द को शानदार अभिव्यक्ति दी।

दस साल में उनकी कहानियों के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें सबका शीर्षक ‘कहानियां’ था। द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान यूगोस्लाविया पर नाजी आक्रमण के बाद ईवो अपनी राजनयिक सेवा छोड़कर स्वदेश वापस लौट आए। लौटते ही नाजियों ने ईवो को उनके घर में ही नजरबंद कर दिया। इस अवधि में ईवो ने अपना सर्वश्रेष्ठ लेखन किया जो 1945 में उपन्यास त्रयी के रूप में प्रकाशित हुआ। इस त्रयी में ‘द ब्रिज ऑन द्रीना’, ‘बोस्नियन क्रॉनिकल’ और ‘द वूमन फ्राम सरायेवो’ को जबर्दस्त लोकप्रियता हासिल हुई। पूर्वी बोस्निया में द्रीना नदी पर एक प्राचीन पुल के माध्यम से ईवो ने बोस्नियाई ग्रामीण समुदाय के चार सदियों के संघर्षमय जीवन को पहली बार विश्‍व के समक्ष रखा। यहां पुल और नदी जीवंत चरित्र के रूप में सामने आते हैं। यह पुल पूरब और पश्चिम को जोड़ने वाले घटक के तौर पर उभरता है, जिसे प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया जाता है। ‘बोस्नियन क्रॉनिकल’ में संस्कृतियों के संघर्ष को ईवो ने अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। नेपोलियन के विश्‍वविजयी अभियान के बाद फ्रांसिसी शासन के दौरान किस तरह तुर्की और यूरोपीय संस्कृतियों में जबरदस्त टकराव होता है, इसे महज सात साल के दौरान एक कथासूत्र में पिरोकर ईवो आंद्रिक ने दर्शाया। ‘द वूमन फ्राम सरायेवो’ में एक नौकरानी की धनलोलुपता को ईवो ने एक नीतिकथा की शैली में औपन्यासिकता प्रदान की। यह नौकरानी अच्छी खासी खाती पीती महिला है, लेकिन पैसों को लेकर उसके लालच का कोई अंत नहीं है।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ईवो आंद्रिक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए और कई वर्षों तक वे यूगोस्लावियाई लेखक संघ के अध्यक्ष रहे। इस अवधि में ईवो ने सैंकडों कहानियां, यात्रा संस्मरण, सामयिक विषयों पर लेख और कुछ लघु उपन्यास लिखे। पांचवे दशक में यूगोस्लाविया में सामाजिक यथार्थवाद और आधुनिकता को लेकर लंबी बहस चली, जिसमें ईवो आधुनिकता के पक्ष में खड़े थे और अंततः उनके पक्ष की ही जीत हुई। 1960 तक आते-आते ईवो आंद्रिक की रचनाओं का दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुवाद होने लगा था और वे सर्वाधिक अनूदित सर्बियाई लेखक हो चुके थे। यूगोस्लाविया के वे सबसे सम्मानित, चर्चित और महत्वपूर्ण व्यक्तियों में थे। 1959 में जाकर ईवो ने चित्रकार मिलिका बेबिक से विवाह किया। 1961 में उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। सर्बियाई भाषा के वे पहले साहित्यकार थे, जिन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने का गौरव मिला। उनकी नोबल प्रशस्ति में कहा गया कि ईवो आंद्रिक के लेखन में आधुनिक मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि के साथ पुराकथाओं जैसी मानव नियति के दर्शन होते हैं। मानवता के प्रति ईवो गहरा अनुराग और प्रेम महसूस करते हैं लेकिन सबसे बड़ी बुराई के तौर पर दुनिया में मौजूद भय और हिंसा से मुंह नहीं मोड़ते। ईवो आंद्रिक ने अपने देश के इतिहास से मानव की नियति कथाओं को लेकर महाकाव्यात्मक शक्ति से अभिव्यक्त किया है। हिंदी में उनकी कुछ कहानियों का अनुवाद हुआ है। करीब तीन दशक पहले ईवो की उपन्यास त्रयी के पहले उपन्यास को साहित्य अकादमी ने ‘द्रीना नदी का पुल’ शीर्षक से प्रकाशित किया था, जो अब अनुपलब्ध है। ईवो आंद्रिक के लेखन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे एक निजी और देशज कथा को वैश्विक आयाम देते हैं और इसीलिए सुदूर बोस्निया के बाशिंदों की कहानी भी अपनी-सी लगने लगती है। 13 मार्च, 1975 को 83 बरस की उम्र में ईवो आंद्रिक का निधन हुआ। उनकी मृत्यु के बाद बोस्निया में उनका स्मारक और संग्रहालय बनाया गया। ईवो आंद्रिक आज भी दुनिया में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले सर्बियाई लेखक हैं।

Sunday 23 May, 2010

फतवा है फरमान नहीं

हाल ही में दारुल उलूम देवबंद से एक फतवा जारी हुआ है, जिसके मुताबिक किसी मुस्लिम महिला का कार्यालयों में पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करना और उसकी कमाई से घर का खर्च चलाना गैर इस्लामिक माना गया है। यह पहली बार नहीं हुआ है, भारत के मुस्लिम संस्थान बरसों से ऐसे फतवे निकालते रहे हैं, जिनका वर्तमान से, आधुनिक विचारशील  दुनिया से कोई सरोकार नहीं होता और ये संस्थान अपने इतिहास के खोल में ही आनंद पाते हैं। गैर इस्लामी लोगों को तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि फतवे का मतलब फरमान या आदेश नहीं होता। ऐसे फतवों पर बाहर की दुनिया हंसती है, इस्लाम के मुताबिक फतवे का मतलब है किसी व्यक्ति विशेष अर्थात धार्मिक विद्वान से किसी धर्मावलंबी द्वारा पूछे गए किसी सवाल के संबंध में कोई राय जाहिर करना। यह राय सिर्फ देने वाले के लिए अनुल्लंघनीय है, बाकी सब लोग इसे मानने या ना मानने के लिए स्वतंत्र हैं, उन पर कोई बंदिश नहीं है, खुद सवाल पूछने वाला भी इसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। इस्लाम की तरह तमाम धर्मों में इस किस्म के धार्मिक आदेश निकलते रहते हैं, जिनकी कोई परवाह नहीं करता। सिर्फ इस्लाम में ही इसके उदय के बाद करीब दस लाख फतवे जारी हो चुके जिनमें से शायद दस फीसद भी नहीं माने गए। धार्मिक आदेश दुनिया में सदियों से निकलते रहे हैं, और अगर इंसान इनके कहे पर चलता तो आज भी बैलगाड़ी युग में होता। यह मनुष्य सभ्यता की विरासत का ही कमाल है कि तमाम धार्मिक प्रपंचों के बावजूद मनुष्य अपने अनुसार जीवन जीता है और धर्म का कोई बंधन उसे ऐसा करने से नहीं रोकता।

दरअसल मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे बंधनों को तोड़ने में आनंद मिलता है, इसे किसी बच्चे की गतिविधियों से सहज समझा जा सकता है, जिसे जो काम नहीं करने के लिए मना किया जाए वह पहले करता है, क्योंकि अवज्ञा का अपना मजा है, इससे आज्ञा देने वाला खीजता है और अवज्ञा करने वाले को इस खीज में आनंद मिलता है। जैसे धर्म ने कहा कि जनेउ धारण करना और उसके नियमों का पालन करना चाहिए, बच्चे के लिए इसका कोई अर्थ नहीं, वह उतार कर रख देता है क्योंकि बार-बार उसे कान पर लपेटना और धोना-साफ रखना उसके लिए फालतू काम हैं। इसलिए आजकल ब्राह्मणों में भी यज्ञोपवीत विवाह से पूर्व ही पहना जाता है और फिर अधिकांश लोग जीवन भर नहीं पहनते।

धार्मिक आदेशों का इतिहास सदियों पुराना है, लगभग हर धर्म में धर्मगुरु लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए अथवा अपने धर्मावलंबियों को सही राह दिखाने के मकसद से समय-समय पर धर्मादेश निकालते रहे हैं, जिनके मानने या ना मानने से सभ्य समाज को बनाने में ऐतिहासिक प्रभाव पड़े हैं। उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में एक समय विदेशयात्रा को अधार्मिक घोषित कर दिया गया, जिससे लोगों ने व्यापार एवं ज्ञानार्जन के लिए बाहर जाना बंद कर दिया। इसका सामाजिक प्रभाव यह पड़ा कि लोग एक ही देश में बंद हो गए, नए आविष्कारी संसाधन आना बंद हो गए, हमारा उत्पादन हमीं उपभोग करने लगे, दुनिया में क्या कुछ चल रहा है, हम जान ही नहीं सके, हमारे विद्यार्थी और विद्वान कूपमंडूक बने रहे। हमारे देश पर लगातार आक्रमण होते रहे और हम सहते रहे। हमें पता ही नहीं चला कि बारूद जैसी किसी चीज का आविष्कार हो चुका है जो हमारी तलवारों के मुकाबले ज्यादा घातक है। बाल्टी से लेकर रोटी तक हमने तब जानी जब हम पर विदेशियों ने आधिपत्य जमा लिया, क्योंकि रोटी और बाल्टी विदेशी ही लेकर आए। सिर्फ एक धार्मिक आदेश किसी कौम का कितना हित-अहित कर सकता है इस एक उदाहरण से आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

दुनिया में सबसे ज्यादा धर्मादेश इस्लाम और ईसाई धर्मों ने निकाले हैं, लेकिन पश्चिमी समाज में धर्म और विज्ञान के संघर्ष में राज्य ने चूंकि विज्ञान का साथ दिया इसलिए वहां बहुत से मामलों में नई सोच को फलने-फूलने का मौका मिला और विकास हुआ। दुनिया के कई देशों में राज्य धार्मिक मामलों में राय-मशविरा देने के लिए धार्मिक मंत्री नियुक्त करते हैं, लेकिन उसकी राय मानना राज्य या जनता के लिए अनिवार्य नहीं होता। ऐसी नियुक्तियां सिर्फ इसलिए की जाती हैं ताकि धर्मसत्ता को यह विश्वास बना रहे कि उनकी राज्य में कोई पूछ है, इसे एक किस्म का तुष्टिकरण भी कह सकते हैं। मध्य पूर्व के बहुत से इस्लामी देशों में फतवा जारी करने से पहले बहस होती है और इस्लामी विद्वान और न्यायविद मिलकर मशविरा करते हैं। फतवे के बाद उपजने वाली तमाम परिस्थितियों और प्रभावों का अध्ययन करने के बाद ही कोई फतवा जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया में एक सीमा तक यह संभावना रहती है कि ऐसा फतवा नहीं जारी किया सकता जिससे धर्मावलंबियों की सामान्य जीवनचर्या और देश की विकास प्रक्रिया में अवरोध पैदा हो। जाहिर है कि हाल ही में जारी किए गए फतवे में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया, इसीलिए इसे लेकर कई किस्म की बातें हो रही हैं।

आम आस्थावान हिंदू भी अपनी दिनचर्या में रोज कई किस्म के फतवों का सामना करते हैं। मसलन, कहीं जाना हो, कोई मुहूर्त निकलवाना हो, चौघड़िया देखना हो, पूजा का समय पूछना हो या किसी विशेष उद्देश्य के लिए कोई बात पूछनी हो तो प्रायः लोग किसी पंडित के पास जाते हैं। यहां पंडित की राय का स्थान वही है जो इस्लाम में फतवे का है, अर्थात पूछने वाला पंडित की राय मानने या ना मानने के लिए स्वतंत्र है। सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय बहुत से आस्थावान हिंदू अन्न-जल ग्रहण नहीं करते, ग्रहण पूरा होने के बाद ही स्नान व पूजा के बाद सामान्य दिनचर्या शुरु करते हैं। इस संबंध में किसी समय कोई फतवा जारी हुआ होगा, जिसे लोग आज तक मानते आ रहे हैं, अखबार तक रोज राहु काल छाप रहे हैं, सूतक का समय प्रकाशित कर रहे हैं। मानने वाले मान रहे हैं और नहीं मानने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। वजह यह कि आधुनिक समय में विज्ञान ने बहुत सी पुरानी धारणाओं को अवैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है और लोग किंचित आधुनिकता और कामकाज की व्यस्तता के चलते पुरातनपंथी विचारों से मुक्त हो रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में अतिआस्थावान और कष्टों में जी रहे लोग अपने संशय दूर करने के लिए धर्मगुरुओं की शरण में जाते हैं और उन्हें धर्मग्रंथों में बताई गई पुरातनपंथी सोच के हिसाब से ऐसे हल या उपाय जानने को मिलते हैं, जिनसे मानवता के विकास का ही मार्ग अवरुद्ध होता है।

धर्म अपने आप में एक पूर्ण सत्ता है। वह राज्य के बाद सबसे बड़ी सत्ता है और इतिहास में तो धर्म राज्य को चलाने वाली सत्ता रही है। धर्म की या कहें कि धार्मिक सत्ता की सदैव यही आकांक्षा रहती है कि दुनिया अगर उसके कहे पर चले तो सही मायने में एक धार्मिक राज्य की स्थापना हो सकेगी। लेकिन मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है कि वह बंधनों से मुक्त होकर नया करने की निरंतर कोषिश करता है। इसके लिए वह धर्मगुरुओं से बहस भी करता है, जैसे डार्विन ने की थी। दुनिया के इतिहास में गैलीलियो और डार्विन अगर धर्मसत्ता से नहीं टकराते तो सोचिए इस दुनिया का क्या स्वरूप होता? इतिहास के हर काल खण्ड में ऐसे दूरदृष्टिवान लोग होते हैं, जो धार्मिक जकड़बंदियों के खिलाफ खड़े होते हैं। लोग गुपचुप ही सही उनका अनुसरण करते हैं और एक समय ऐसा आता है कि जकड़बंदियां स्वतः समाप्त हो जाती हैं और नए विचार सहज स्वाभाविक माने जाने लगते हैं। हालांकि ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है जो कहते हैं कि धर्म अपने मूल में एक हद तक विज्ञान का सहयोगी ही होता है, क्योंकि दोनों की प्रकृति है कि नया कुछ खोजा जाए, जिससे दोनों के मतावलंबियों की संख्या बढ़े। बहरहाल, इस बहस में ना भी पड़ें कि धर्म और विज्ञान कहां तक साथ निभाते हैं, तो भी एक बात तो तय है कि मानवता के इतिहास में इन दोनों के बीच हुए संघर्ष में अधिकांश लोगों ने विज्ञान और वैज्ञानिक विचारों का साथ दिया है, इसीलिए हम यहां तक पहुंचे हैं। धर्मगुरु कुछ भी कहते रहें, मनुष्य अपने हिसाब से सोच विचार कर निर्णय लेता है और आगे बढ़ता रहता है। धर्म और धर्मगुरु अपनी पवित्र किताबों में सुरक्षित रहते हैं, जनता उनका उतना ही सम्मान करती है, जितने के वे हकदार होते हैं।

यह आलेख जयपुर से प्रकाशित ‘डेली न्यूज’ के रविवारीय परिशिष्ट ‘हम लोग’ में 23 मई, 2010 को प्रकाशित हुआ।
Photo Courtsey : twocircles.net

Sunday 16 May, 2010

बेचैन आत्‍मा का कवि : इयुजीनियो मोन्‍ताले

समकालीन भारतीय कविता, विशेष रूप से हिंदी कविता को विश्‍व के जिन कवियों ने बेहद प्रभावित किया है, उनमें इतालवी कवि इयुजीनियो मोंताले का नाम प्रमुख है। आधुनिक इतिहास, दर्शन, प्रेम और मानवीय अस्तित्व की विविध दुविधाओं और बेचैनियों को गीतात्मक सौंदर्य और अबूझ रहस्यों के साथ प्रस्तुत करने वाले मोंताले को 1975 में नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया था। 12 अक्टूबर, 1896 को व्यापारी परिवार में जन्मे मोंताले छह भाई-बहिनों में सबसे छोटे थे। खराब सेहत के चलते बचपन में पढ़ाई आधी-अधूरी रही। संगीत का शौक था और गायक बनने का सपना लिए मोंताले संगीत सीखने लगे। लेकिन अपने गुरु की असामयिक मृत्यु से विचलित हो मोंताले ने संगीत शिक्षा छोड दी और साहित्य की तरफ चले आए। उनकी रूचि इतालवी और यूरोपीय साहित्य के साथ दर्शनशास्त्र में थी। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण उन्हें अपने मन से कुछ भी करने की स्वतंत्रता थी। इसलिए कुछ दिन उन्होंने एकाउंटेंट की नौकरी भी की और प्रथम विश्‍वयुद्ध में सैन्य अधिकारी के रूप में देश की सेवा भी की। लेकिन किताबों के प्रति अपने अगाध प्रेम की वजह से वे पूरी तरह साहित्य की दुनिया में लौट आए। पुस्तकालयों में घंटों बैठकर पढते और लिखते। कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हुए उन्होंने कुछ समय एक प्रकाशन संस्थान में भी काम किया। 1928 में वे एक अनुसंधान पुस्तकालय के निदेशक नियुक्त किए गए, जहां से उनकी आलोचना यात्रा आरंभ होकर नए आयामों तक पहुंची।

मोंताले राजनैतिक तौर पर फासीवाद के विरोधियों के साथ थे, इसलिए उनका पहला कविता संग्रह 'बोन्स ऑफ द कटलफिश' 1925 में फासीवाद विरोधी प्रकाशक पिएरो गोबेती ने प्रकाशित किया। मोंताले परिवार गर्मियों के दिन  एक छोटे से गांव लिगूरिया में बिताया करता था। मोंताले ने अपने पहले संग्रह की कविताओं में उसी गांव के श्रमशील लोगों की जिंदगी, उस वातावरण में अपने एकांतिक अस्तित्व और उसमें छाई हुई हताशा और नैराश्‍य के बीच वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत किया। प्रथम विश्‍वयुद्ध की निरर्थकता ने समूचे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया और मोंताले भी इससे अछूते नहीं रहे। मोंताले के पहले संग्रह में एक प्रसिद्ध कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-

आज हमारे पास आपसे कहने के लिए इतना भर है कि
हम वो नहीं हैं कि जो हम होना नहीं चाहते

1933 में मोंताले की मुलाकात यहूदी-अमेरिकी शोधकर्ता इरमा ब्रेंडिस से हुई और जल्द ही उनकी मित्रता मशहूर हो गई। दांते पर शोधरत इरमा को लोग दांते की प्रेमिका बिएत्रिस की तरह मोंताले की बिएत्रिस कहने लगे। 1938 में फासीवादी सरकार ने आते ही मोंताले को निदेशक के पद से हटा दिया। अगले साल उनका सबसे महत्वपूर्ण संग्रह 'द ऑकेजंस' प्रकाशित हुआ। इसे इतालवी साहित्य में प्रथम विश्‍वयुद्ध के बाद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है। इस संग्रह में एक तरफ तो फासीवाद के विरोध में स्वर उठाती कविताएं हैं तो दूसरी तरफ इरमा को क्लीजिया के रूप में संबोधित कर लिखी गई प्रेम कविताएं हैं। मानव मन की अनंत गहराइयों का उत्खनन करते हुए मोंताले अपने निजी संसार को भी कविता में अपनी दुरूह शैली में सार्वजनिक बना देते हैं। बेहद निजी और अबूझ संसार को अपनी कविता में रचते हुए मोंताले व्यक्तिगत रूप से भी गैर सांसारिक हो जाते हैं। संगीत की दुनिया में उन्हें सुकून मिलता है और वे इटली के सबसे बड़े अखबार कूरियर डेला सेरा के लिए अपने नियमित स्तंभ में संगीत की चर्चा करते रहते हैं। अपनी कविता की एकांतिक दुनिया और दुरुहता के बारे एक बार उन्होंने कहा था, 'एक कवि कभी नहीं जानता और अक्सर जान ही नहीं पाता कि वह किस पाठक को संबोधित कर लिख रहा है।'
 
लंबे समय तक मोंताले कविता की दुनिया से दूर रहे और विश्‍व के महान साहित्यकारों की रचनाओं का इतालवी में अनुवाद करते रहे। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद वे मिलान चले गए। यहां वे अपनी आत्मकथा लिखने लगे जो कई सालों में कई बार प्रकाशित होते अंततः दो खण्डों में पूरी हुई। 1956 में उनका महत्वपूर्ण संग्रह 'द स्टोर्म एण्ड अदर पोएम्स' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद उपजी स्थितियों का काव्यात्मक और आलोचनात्मक आख्‍यान है। इसमें हिटलर, मुसोलिनी और क्लीजिया के साथ स्वयं कवि अपने समय की निर्मम आलोचना करता हुआ जंग की खिलाफत करता है और मानवता की बात करता है। चौथा संग्रह 'सेतूरा' 1962 में प्रकाशित हुआ। इसमें मोंताले बेहद व्यंग्यात्मक लहजे में दुनिया की विद्रूपताओं का वर्णन करते हैं। 'धुंधली-सी रोशनी हुई/जब इंसान ने सोचा/कि वह छछूंदरों और झींगुरों से बहुत बड़ा है।'

1967 में उन्हें इटली की सीनेट का आजीवन सदस्य बनाया गया। उन्हें मिलान, केंब्रिज और रोम विद्गवविद्यालयों ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। 1975 में उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। 12 सितंबर 1981 को उनका निधन हुआ। मोंताले की मृत्यु के बाद 1996 में प्रकाशित उनकी डायरी कवियों, काव्यप्रेमियों और आलोचकों के बीच बहुत लोकप्रिय है।

Sunday 9 May, 2010

मां तुझे सलाम

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दुनिया ही क्या समूची सृष्टि में मां को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। पशु-पक्षी जगत से लेकर मानव जगत में मां की महिमा अपरंपार है। सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को जन्म देने वाली मां को विश्‍व की समस्त संस्कृतियों में सबसे बड़ा दर्जा दिया गया है। भारत में तो मातृ पूजा हजारों साल से चली आ रही है। हम तो धरती को भी मां के रूप में पूजते हैं। दरअसल जिन स्थानों पर मनुष्य का जीवन भोजन के लिए प्रकृति पर अधिक निर्भर रहा, वहां के लोगों ने स्त्री की उर्वरता, पोषण की सामर्थ्य, ममता और सृजनात्मकता को नमन करते हुए मातृशक्ति की कल्पना की। आज हमारे खेतों में दिखाई देने वाली लाल प्रस्तर प्रतिमाएं प्राचीनकाल में मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में हमारे पूर्वजों ने आरंभ की थीं। महान दर्शनशास्त्री डॉ. देवी प्रसाद चटोपाध्याय ने 'लोकायत' में लिखा है कि प्राचीन काल में बरसात से पहले लोग खेतों में उपजाउ लाल मिट्‌टी बिछा देते थे, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ऐसा करने से बारिश के बाद धरती रजस्वला हो जाएगी और खूब अन्न उपजाएगी, जैसे रजस्वला होने के बाद स्त्री में प्रजनन क्षमता विकसित हो जाती है। अब उस मान्यता के निशान भर बचे हैं, जिन्हें हम बालाजी के लाल रंग के कारण हनुमान का प्रतीक मानते हैं। दक्षिण भारत में वर्षा काल में समुद्र में पानी का रंग लाल हो जाने को लेकर मान्यता है कि समुद्र माता रजस्वला हो गई है। ऐसे बरसाती समय में मछुआरे समुद्र में मछली पकड ने नहीं जाते। वजह यह भी कि इसी समय मछलियां प्रजनन करती हैं, जो भारतीय परंपरा में भगवान के मत्स्य अवतार का एक रूप है।
भारत में जहां मां को शक्तिरूपा माना जाता है और गाय को उसका प्रतिरूप, वहीं ग्रीक संस्कृति में मां को गैया कहा जाता था। बौद्ध धर्म में तो भगवान बुद्ध के स्त्रीरूप में देवी तारा की महिमा गाई जाती है। रंग और विशेषताओं के अनुसार देवी तारा के दर्जनों रूपों की पूजा की जाती है। यहूदियों की बाइबिल के अनुसार कुल ५५ पैगंबर धरती पर आए उनमें से ७ स्त्रियां थीं। ईसाई समुदाय में तो मदर मैरी की महिमा का लंबा इतिहास है और प्रभु यीशु की माता को सर्वोपरि माना गया है। यूरोप के कई देशों में, खास तौर पर ब्रिटेन और आयरलैंड में तथा पुराने ब्रिटिश उपनिवेशी देशों में मदरिंग सण्डे मनाने की परंपरा आज भी विद्यमान है। वैसे अगर गौर से देखा जाए तो दुनिया के विभिन्न धर्मों में बहुत से ऐसे ईश्‍वर या देवदूत हुए हैं, जिन्हें मां ने ईश्‍वरीय इच्छा के लिए जन्म दिया, फिर वो चाहे राम हों, कृष्ण हों, ईसा मसीह हों, भगवान महावीर हों अथवा गणेश।
इस्लाम में मां को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। पैगंबर मोहम्मद साहेब का कहना था कि जन्नत का दरवाजा मां के कदमों में है। अर्थात्‌ जिसने मां को नाराज किया या दुख पहुंचाया तो ऐसे इंसान को जन्नत में जगह नहीं मिलती। एक बार एक व्यक्ति ने पैगंबर मोहम्मद साहेब से पूछा कि हे खुदा के पैगंबर, मुझे समझाओ कि मैं किसके प्रति सम्मान और प्रेम प्रकट करूं? मोहम्मद साहेब ने कहा, 'तुम्हारी मां।' व्यक्ति ने फिर पूछा, 'इसके बाद?' मोहम्मद साहेब ने कहा, 'तुम्हारी मां।' उस आदमी ने फिर से पूछा, 'इसके बाद?' मोहम्मद साहेब ने कहा, 'तुम्हारी मां।'  बंदे ने चौथी बार पूछा, 'और उसके बाद?' मोहम्मद साहेब ने कहा, 'अपने पिता के प्रति।' इस्लामी देशों में मोहम्मद साहेब की बेटी फातिमा के जन्मदिन को मातृत्व का दिवस माना जाता है। बहुत से अरब देशों में २१ मार्च को मातृदिवस मनाया जाता है।
सूर्य को पिता और धरती को माता मानने वाले वाले यूनान में मार्च के किसी रविवार को यूनानी देवताओं की मां सिबेल के लिए समर्पित किया जाता था। वहीं से मदर्स डे की शुरुआत मानी जाती है। आज भी दुनिया के कई देशों में यही नियम कायम है। भारत में जहां साल में दो बार नवरात्रों के दौरान मातृशक्ति की पूजा की जाती है वहीं दुनिया के दूसरे देशों की विभिन्न संस्कृतियों में मातृशक्ति को अलग अलग समय पर नमन किया जाता है। विश्‍व के दर्जनों देशों में विश्‍व महिला दिवस को ही मातृत्व दिवस के रूप् में मनाया जाता है। थाईलैंड में महारानी श्रीकीत के जन्मदिन को मातृशक्ति का दिन माना जाता है, जो आज भी जीवित हैं। चीन में महान दार्शनिक मेंग जाई की मां के जन्मदिन को हाल के कुछ वर्षों से मातृदिवस के रूप में मनाया जाने लगा है। इण्डोनेद्गिाया में २२ दिसंबर को महिला एवं मातृत्व दिवस मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन १९३८ में इण्डोनेशियन वीमेन कांग्रेस का पहला सम्मेलन हुआ था। इजराइल में हेनेरिता जोल के जन्मदिन को मातृदिवस के तौर पर मनाया जाता है, जिसने जर्मन नाजियों के आक्रमण के समय हजारों यहूदियों की जान बचाई थी। नेपाल में वैशाख के कृष्णपक्ष में माता तीर्थ उत्सव मनाया जाता है। पनामा, मेक्सिको, बोलिविया जैसे कई देशों में मां के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए बाकायदा कानून बना कर एक दिन तय किया गया है। अमेरिका में मदर्स डे के लिए संघर्ष करने वाली अन्ना जार्विस को १९१४ में राष्ट्रपति विड्रो विल्सन द्वारा मई के दूसरे रविवार को आधिकारिक अवकाश घोषित करने पर सफलता मिली। लेकिन अन्ना को कुछ ही समय बाद अहसास हो गया कि उसकी कल्पना से परे जाकर यह उत्सव व्यापारियों के हाथों में जाकर 'हालमार्क होलीडे' हो गया।

वो नहीं बनना चाहती मां



एक तरफ जहां मां को लेकर दुनिया भर में श्रद्धाभाव है वहीं इसी दुनिया में ऐसी महिलाएं भी हैं जो मां नहीं बनना चाहतीं। नारीवादी समुदाय में एक नारा है जिसकी पैरोकार महिलाएं गर्व से कहती हैं 'चाइल्डलैस बाइ च्वाइस'। इनका मानना है कि बच्चे पैदा करने या ना करने का अधिकार एक स्त्री के पास होना चाहिए। जो दुनिया हम बना रहे हैं उसमें किसी बच्चे को जन्म देकर हम आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं? आज की आतंक और हिंसा भरी दुनिया में किसी भी मासूम को आखिर क्यों लाया जाए? इस धारा की कवयित्री शेरी एन स्लाटर 'मां के आंसू' कविता में लिखती है-

लड़का या लडकी, किसी भी बच्चे को

जन्म देना एक भयानक विचार है

इस बदसूरत और खतरनाक दुनिया में

.....

जहां एक सरकार कहती है

'आओ सेना में दाखिल हो जाओ'

मांओं के आंसुओं से कब्रिस्तानों में बाढ आ गई है

और मैं महसूस करती हूं कि

जो मेरे पास नहीं है वो मुझे नहीं चाहिए।


इसी तरह पॉला अमान लिखती है-

सेब और सांपों की चमकीली जगहों में

बस यही आवाजें गूंजती हैं

'दूधों नहाओ, पूतों फलो!'

'क्या तुम्हारा परिवार है?'

अजनबी लोग पूछते हैं

मानो, मेरी उम्र की औरत के पास

अपनी उर्वरता साबित कर

इस दुनिया को देने के लिए

फल के रूप में सिर्फ एक बच्चा ही बचा है

कवयित्री एलीसन सोलोमन बहुत खूबसूरती के साथ मातृत्वहीन महिला की ताकत बयान करते हुए कहती है-

मैंने पीरियड्‌स की बदसूरती
बयान करती कोई कविता नहीं देखी
वैसे पीरियड्‌स चमत्कारी भी होते हैं

.....

गहरे लाल फूल क्या हैं
सिर्फ एक खाली गर्भाशय के सबूत के सिवा?

.....

एक सूनी कोख भी खूबसूरत होती है....

मैं जानती हूं

एक बांझ औरत भी कविता लिखती है।
यह आलेख 'डेली न्‍यूज़' जयपुर के रविवारीय संस्‍करण 'हम लोग' में रविवार 9 मई, 2010 को प्रकाशित हुआ।
यहाँ प्रयोग की गई पेंटिंग इरान के मशहूर चित्रकार इमान मलेकी की है.