Sunday 25 July, 2010

गांवों की कुरीतियां और ग्रामीण नेतृत्व

राजस्थान में आज भी अशिक्षा और अज्ञान के कारण सैंकड़ों किस्म की सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्‍वासों की दुनिया शहर, कस्बों से लेकर गांवों तक महामारी की तरह फैली हुई हैं। दुर्भाग्य से इन सबका शिकार अंततः महिलाएं होती हैं। निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं। जातिवादी घृणा की वजह से महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं होती हैं। जाति और परंपरा के नाम पर विधवाओं का जीवन नरक बना दिया जाता है। शराब और अफीम का नशा औरतों को हिंसा का शिकार बनाता है। किसी प्रकार के पारिवारिक संपत्ति विवाद में महिला का हिस्सा पुरुष हड़प लेते हैं। दहेज प्रताड़ना के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर साल हजारों गर्भवती स्त्रियों को जान से हाथ धोना पड़ता है। कन्या भ्रूण हत्या और कई जातियों में जन्म के साथ ही कन्या को मार देने की परंपरा से मरने वाली बालिकाओं की तो गिनती ही नहीं है। कुपोषण के कारण महिलाएं अनेक खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त हो जाती हैं, जिनके इलाज के लिए झाड़-फूंक और जादू-टोना ग्रामीण राजस्थान की पुरानी पहचान है, जिसमें अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। परिवार में किसी भी काम के लिए सबसे पहले महिला को ही जुटना पड़ता है और विपत्ति आने पर उसे ही सबसे पहले अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं, मसलन अनाज नहीं है तो औरत ही निराहार रहेगी या उसे ही कम भोजन दिया जाएगा। अकेली और अनाश्रित महिला हो तो उसकी संपत्ति हथियाने के लिए हर कोई पीछे पड़ जाएगा। एक तरह से देखा जाए तो ग्रामीण समाज में स्त्री की हालत दुधारु पशु से भी गई बीती है।

स्त्री को लिंगभेद की क्रूर व्यवस्था के कारण कर्ह किस्म की हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अभी तक की बहुप्रचारित शिक्षा का प्रसार भी ग्रामीण समुदाय में इस विचार को नहीं पैबस्त कर पाया है कि जैविक लिंग अलग होने के कारण स्त्री में पुरुष से अलग कोई विशेषता नहीं होती और प्रकृति ने जो भेद बनाए हैं, उसके सिवा सारे भेद मर्दवादी समाज ने बनाए हैं। दरअसल, हमारी शिक्षा को सबसे पहला काम ही यह करना चाहिए था कि लिंगभेद को समाप्त करे। दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ, इसीलिए देश की आधी आबादी की शक्ति का इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी हम आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से दुनिया के बहुत से देशों से पिछड़े हुए हैं। राजस्थान में स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ने एक महान अवसर दिया है कि स्त्रीशक्ति का नारी हित में इस प्रकार प्रयोग किया जाए कि पांच साल बाद एक नया राजस्थान देखने को मिले। इस काम में उन महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बेहद प्रभावशाली हो सकती है जो इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत कर आई हैं।

राजस्थान में 14 जुलाई से ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगभेद संबंधी मसलों को लेकर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के सहयोग से प्रिया संस्था की ओर से एक अभियान की शुरुआत हुई है। इस अभियान में ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को विशेष प्रशिक्षण देकर कहा जाएगा कि वे अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में बालिका शिक्षा, महिलाओं के प्रति हिंसा, बाल विवाह और महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर जन जागरूकता फैलाएं, ताकि विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लिंगभेद समाप्त किया जा सके। सन् 2013 तक चलने वाला यह अभियान दरअसल उस विराट अंतर्राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा है जिसके तहत सन् 2015 तक दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक असमानता को खत्म किया जाना है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य नामक इस परियोजना के आठ बिंदुओं में सबसे अहम है गरीबी को पचास प्रतिशत तक कम करना और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समूल नष्ट करना। बालिका शिक्षा के अंतर्गत दुनिया की सभी बालिकाओं को 2005 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य था, जिसे भारत पांच साल बाद भी हासिल नहीं कर सका है। अब इसके लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं और कई किस्म की बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजनाएं चल रही हैं।

ग्रामीण महिला जनप्रतिनिधियों के माध्यम से ग्रामीण समुदाय की सोच को बदला जा सकता है, क्योंकि पंचायतों में पिछले डेढ़ दशक से महिला आरक्षण की व्यवस्था ने महिला जनप्रतिनिधियों के प्रति समाज में एक नई और सकारात्मक छवि विकसित की है। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण प्रशासन को महिलाओं के प्रति उत्तरदायी बनाने की पहल क्रांतिकारी परिणाम दे सकती है। महिला पंच-सरपंच की स्थानीय छवि और दायित्वपूर्ण भूमिका होने के कारण लोग उनकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। उनकी नेतृत्वकारी छवि स्थानीय स्तर पर होने वाली लिंगभेद की मानसिकता को सहजता से बदल सकती है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रही विभिन्न महिला विकास योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और अधिकाधिक महिलाओं को लाभान्वित करवा कर ग्रामीण नेत्रियां करोड़ों बालिकाओं, युवतियों और महिलाओं का जीवन प्रगतिपथ पर ले जा सकती हैं। बाल विवाह रुकवाना, बालिकाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए पहल करना-लोगों को राजी करना, आंगनवाड़ी खुलवाना, स्त्री शिक्षा के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी देना, महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकना, विधवा और वृद्ध महिलाओं को पेंशन दिलवाना और स्वास्थ्य केंद्र खुलवाना जैसे बहुत से महिला सशक्तिकरण के काम महिला पंच-सरपंच के लिए सामान्य काम हैं। वे चाहें तो अपने क्षेत्र की महिलाओं का संगठन बना कर बहुत सी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक ढंग से लड़ाई भी लड़ सकती हैं। द हंगर प्रोजेक्ट जैसी कई गैर सरकारी संस्थाओं ने तो कई जिलों में महिला पंच सरपंच संगठन ही बना दिए हैं, जिनके माध्यम से महिला जनप्रतिनिधि सरकारी मशीनरी से अपने वाजिब हकों के लिए संघर्ष कर विजय हासिल करते हैं।

पंचायतों में महिला आरक्षण ने ग्रामीण महिलाओं को जो थोड़ा-बहुत आत्मविश्‍वास दिया है, उसे व्यापक बनाने की जरूरत है। अगर ग्रामीण समुदाय की सभी महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ खुलकर बोलने लग जाएं, अधिकारों के लिए आवाज उठाएं, ग्रामीण विकास के बजट में महिलाओं के लिए उचित प्रावधानों की मांग करें, किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करें और इसमें महिला जनप्रतिनिधि नेतृत्व करें तो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के अंतर्गत लिंगभेद समाप्त करने का लक्ष्य कहीं जल्दी हासिल किया जा सकता है।

यह आलेख 14 जुलाई, 2010 को दैनिक महका भारत, जयपुर में प्रकाशित हुआ।

Sunday 18 July, 2010

सत्‍ता के मानवीयकरण की हिमायत

नोबल पुरस्कार के इतिहास में साहित्य में सर्वाधिक पुरस्कार जर्मन भाषा के हिस्से में हैं, लेकिन बहुत-से ऐसे जर्मनभाषी लेखकों को भी मिले, जो जर्मनी मूल के नहीं थे या अपने मूल वतन से विस्थापित होकर किसी अन्य देश में रहे। दक्षिण-पूर्वी यूरोप के छोटे-से देश बल्गारिया को साहित्य में एक मात्र नोबल पुरस्कार 1981 में एलियास कैनेटी को 1981 में मिला। 25 जुलाई, 1905 को बल्गारिया के डेन्यूब नदी किनारे एक छोटे से नगर में कैनेटी का जन्म हुआ। सफल यहूदी व्यापारी माता-पिता के सबसे बड़े बेटे कैनेटी के बचपन के मात्र छह साल बल्गारिया में गुजरे और फिर परिवार इंग्लैंड चला गया। लेकिन यहां आते ही कैनेटी के पिता का अचानक निधन हो गया और मां परिवार को लेकर विएना चली आईं। यहीं से कैनेटी की आरंभिक शिक्षा प्रारंभ हुई। मां ने जर्मन भाषा पर जोर दिया, जो उस माहौल में अनिवार्य था। कुछ साल विएना में रहने के बाद परिवार ज्यूरिख चला गया और वहां से अंततः फ्रेंकफर्ट, जहां कैनेटी ने हाई स्कूल पास की। कैनेटी ने ग्यारह बरस की उम्र में लिखना आरंभ कर दिया था और 16 साल की उम्र में तो पहला काव्यनाटक ‘जूनियस ब्रूटस’ प्रकाशित भी हो गया था। उच्च अध्ययन के लिए कैनेटी एक बार फिर विएना गए, जहां उनके लेखन की नई शुरुआत हुई। हालांकि कैनेटी दर्शनशास्त्र और साहित्य पढना चाहते थे, किंतु दाखिला लिया रसायन विज्ञान में। विएना के साहित्यिक हलकों में उनका परिचय का सिलसिला आगे बढ़ता गया और वे लिखने लगे। राजनैतिक रूप से उनका झुकाव वामपंथ की तरफ था, इसीलिए 1927 के मशहूर जुलाई विद्रोह में भी कैनेटी ने सक्रिय भाग लिया और गिरफ्तार हुए। ब्लैक फ्राइडे के नाम से मशहूर इस विद्रोह का कैनेटी की मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ा, इसी को आधार बनाकर कालांतर में जब कैनेटी ने अपने लेखन में मुख्य स्थान दिया तो उनकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय हो गई। राजनीति और लेखन के साथ पढ़ाई चलती रही और 1929 में उन्होंने रसायनशास्त्र में पी.एच.डी. की डिग्री लेकर विज्ञान को अलविदा कह दिया। इसके बाद अमेरिकी लेखक अप्टॉन सिंक्लेयर के उपन्यासों का अनुवाद करते हुए और रंगमंच के लिए हास्य और प्रयोगधर्मी एब्सर्ड नाटक लिखते हुए कैनेटी ने अपनी विराट रचनात्मकता को बरकरार रखा।

अपने विद्यार्थी जीवन में कैनेटी एक बार बर्लिन गए, जहां बर्तोल्त ब्रेख्त और आइजैक बाबेल जैसे कई मशहूर नाटककारों से मुलाकात हुई। तभी कैनेटी ने तय कर लिया था कि वे मनुष्य के हास्यास्पद पागलपन को केंद्र में रखकर उपन्यासों की शृंखला लिखेंगे। करीब सात साल बाद इस विचार को ‘डाई ब्लैंगडंग’ उपन्यास में कैनेटी ने मूर्त रूप दिया। किस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को बरगला कर बेवकूफ बनाया जाता है और जनता भी धर्म और सत्ता की चकाचौंध में पगला जाती है, इसे ऐतिहासिक घटनाक्रमों और काल्पनिक कथा के माध्यम से कैनेटी ने विलक्षण ढंग से दर्शाया। यह उपन्यास अपने समय से पहले प्रकाशित हुआ, इसलिए तत्काल इस पर ध्यान नहीं गया, लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध की समाप्ति के बाद और खास तौर पर अंग्रेजी में अनुवाद के बाद इसकी ख्याति विश्‍वव्यापी हुई। नाजी सरकार ने उपन्यास को प्रतिबंधित कर दिया था। बाद में अनुवाद होने पर टॉमस मान और आइरिश मर्डोक जैसे आलोचक साहित्यकारों ने इस उपन्यास को ‘क्राउड सायक्लोजी’ का विश्‍वसाहित्य का बेहतरीन उपन्यास बताया था।

जब नाजी जर्मनी ने ऑस्ट्रिया को अपने कब्जे में ले लिया तो कैनेटी देश छोड़कर पहले पेरिस और फिर इंग्लैंड चले गए और वहीं रहने लगे। नाटक, डायरी, यात्रा विवरण और निबंध लिखते हुए कैनेटी ने 1960 में अपनी एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक पूरी की, ‘क्राउड्स एण्ड पावर।’ इस पुस्तक के आरंभ में वे यहां से अपना विश्‍लेषण शुरु करते हैं कि भीड़ की मानसिकता आदिकाल से ही बचे रहने के लिए संघर्ष की होती है और किसी के भी बचने का सबसे आसान उपाय है दूसरे की हत्या कर देना। कैनेटी विस्तार से बताते हैं कि भीड़ क्यों और कैसे हिटलर जैसे नेतृत्व के आदेशों की पालना करती है। उनकी मान्यता है कि अगर नेतृत्व को मानवीय बनाया जाए तो भीड़ द्वारा होने वाले नरसंहारों से बचा जा सकता है। लेकिन कैनेटी यह नहीं बता पाते कि नेतृत्व को कैसे मानवीय बनाया जाए।

दरअसल कैनेटी के लेखन की केंद्रीय चिंता यही है कि सत्ता को कैसे अत्यधिक मानवीय बनाया जाए, ताकि अवाम के बीच भेदभाव ना पनप सकें और लोग सामूहिक रूप से एक दूसरे को मारने पर उतारू ना हो जाएं। और अपनी इस चिंता को वे जिस कलात्मक सौंदर्य के साथ व्यक्त करते हैं, वह विश्‍वसाहित्य में दुर्लभ है। मृत्यु और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत समाज की कल्पना करते हुए कैनेटी काफ्का के साहित्य का अनूठा विश्‍लेषण करते हैं, जो ‘काफ्का’ज अदर ट्रायल: द लैटर्स टू फेलिस’ में सामने आता है। पत्र शैली में लिखी इस किताब में कैनेटी काफ्का के दुतरफा संघर्ष को बताते हैं, जिसमें सिर्फ दो विकल्प हैं, या तो मध्यवर्गीय आरामतलब जिंदगी के मजे लो अन्यथा वैयक्तिक निर्वासन भोगो। काफ्का जीवन और रचना दोनों में कैसे यह संघर्ष कर रहे थे, इसे कैनेटी ने काफ्का की प्रेमिका फेलिस के नाम काल्पनिक पत्रों के माध्यम से बताने का सराहनीय काम किया। ‘द कंसाइंस ऑफ द वर्ड’ में कैनेटी कहते हैं कि इस दुनिया को बचाने, नया अर्थ देने और अधिक मानवीय बनाने में लेखक की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कैनेटी को नोबल पुरस्कार के अलावा विश्‍व साहित्य में करीब दर्जन भर प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से समादृत किया गया। 13 अगस्त, 1994 को ज्यूरिख में मृत्यु से पूर्व एलियास कैनेटी ने तीन खण्डों में अपनी वृहद् आत्मकथा और यात्रा संस्मरणों की एक पुस्तक भी लिखी।

Sunday 11 July, 2010

ऐसे कैसे चलेगी पंचायत

आज देश के अनेक राज्यों में असमान विकास के कारण आम आदमी का जीना इस कदर दूभर हो गया है कि भोले-भाले ग्रामीण किसान और आदिवासियों से लेकर खेत मजदूर और दूसरे दस्तकार तक गहरे असंतोष से भर गए हैं। आबादी के बहुत बड़े हिस्से को लगता है कि सरकार और सरकारी अधिकारी का उनसे कोई जुड़ाव या सरोकार नहीं है और सारी व्यवस्था उन्हें तिल-तिल कर मारने के लिए बनी है। इसीलिए कई राज्यों में नक्सलवाद की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं। लोगों के आक्रोश को एक हद तक दमन से दबाया जा सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं होंगे। आखिर एक देश की सरकार अपने ही लोगों को कैसे मार सकती है, जबकि हिंसा की राह पर लोगों को ले जाने वाले नक्सलियों के मुकाबले देश के पास जमीनी स्तर पर लोगों की जरूरत और क्षमताओं के लिहाज से पर्याप्त संसाधन ही नहीं विकास योजनाएं और उन्हें क्रियान्वित करने वाली एक पूरी व्यवस्था भी है। आवश्‍यकता इस बात की है कि उस व्यवस्था को जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा मजबूत किया जाए, ताकि त्रस्त और हताश लोगों को राहत मिले। महात्मा गांधी का सपना था कि ग्रामीण भारत का तेजी से और समुचित विकास करने के लिए ग्राम पंचायतों के माध्यम से एक प्रभावशाली व्यवस्था विकसित की जाए जो अपने स्तर पर ग्रामीण भारत के सर्वांगीण विकास का दायित्व वहन करे।

नए भारत का निर्माण करेंगी महिलाएं
हम जानते हैं कि आम आदमी सामान्य तौर पर हथियार तभी उठाता है जब उसके अस्तित्व पर ही संकट आ जाए, अन्यथा वह सहज भाव से अभावों की जिंदगी भी जी लेता है और शिकायत भी नहीं करता। इसीलिए संविधान के 73वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए कम से कम तैंतीस और राजस्थान जैसे कई राज्यों में तो पचास फीसद आरक्षण की व्यवस्था ने इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अनूठा अवसर प्रदान किया है कि वे इस महादेश को अपने ममत्व, वात्सल्य और पारिवारिक दायित्व की भावना के साथ विकास की उस राह पर ले जाएं जहां हर भारतीय के पास एक सहज जीवन जीने के संसाधन उपलब्ध हों। अकेले राजस्थान में 2010 के पंचायत चुनावों में कुल एक लाख बीस हजार पंचायत जनप्रतिनिधियों में साठ हजार से अधिक महिलाएं चुनाव जीत कर आई हैं। सरकार की मंशा इन जनप्रतिनिधियों के माध्यम से एक नए ग्रामीण भारत का निर्माण करने की है। लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली में भारी अंतर्विरोध होने के कारण वांछित परिणाम प्राप्त होने में अभी बहुत समय लगना है। यह स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि खुद भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ से लिखित में वादा किया है कि आने वाले पांच सालों में यानी सन् 2015 तक शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप न्यूनतम लक्ष्य प्राप्त कर लिए जाएंगे। ये लक्ष्य मूल रूप से गरीबी उन्मूलन और भुखमरी को समाप्त करने के लिए तय किए गए हैं और दुनिया के कई देशों ने भारत की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ ऐसे वायदा पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। हम जानते हैं कि आंकड़ों के स्तर पर सरकारी लक्ष्य कैसे प्राप्त किए जाते हैं और वाहवाही लूटी जाती है। इसलिए उन रुकावटों की पहचान बहुत जरूरी है, जो हजारों करोड़ रुपये खर्च कर समग्र भारत के विकास का लक्ष्य हासिल करने के मकसद में दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। इस मकसद को हासिल करने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत प्रभावी हो सकती है, बशर्ते सरकारें और स्वयं महिलाएं इस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर इसे अमल में लाएं।

अबला को बनना होगा सबला
नई लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं का चुनाव में जीत कर आना ही प्रमुख नहीं है, बल्कि उनके लिए सबसे जरूरी यह है कि उनकी क्षमताओं को अधिकाधिक विकसित किया जाए, जिससे वे लोक कल्याण में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका सही ढंग से निभा सकें। फिलहाल स्थिति यह है कि महिला जनप्रतिनिधि अशिक्षा और पुरुषों पर निर्भरता की वजह से न तो अपनी क्षमताओं को पहचान पाती हैं और न ही विकसित कर पाती हैं। हाल ही में देखा गया कि राजस्थान के शिक्षा मंत्री भंवर लाल मेघवाल ने बस्सी तहसील की जिला परिषद सदस्य करमा देवी मीणा के साथ अभद्रता की। करमा देवी सिर्फ यही तो चाहती थी कि उनके गांव के स्कूल में अध्यापक की नियुक्ति की जाए। करमा देवी के साथ जो कुछ हुआ वह हमारे समाज की मर्दवादी मानसिकता का एक सबूत है। करमा देवी नहीं जानतीं कि एक महिला जनप्रतिनिधि के लिए इस लोकतंत्र में अभी कितने रास्ते हैं, जिनसे वे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकती हैं, मसलन वे अगर अपने साथ गांव के स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर सामूहिकता के साथ अपनी बात मनवाने की कोशिश करतीं तो नजारा ही कुछ और होता। लेकिन इसी के साथ सच्चाई यह भी है कि इस बार के पंचायत चुनावों में बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं जीत कर आई हैं जो अपनी यथासंभव क्षमता के साथ अपने गांवों को बदलते भारत के साथ कदमताल करने की दिशा में ले जाने के लिए काम कर रही हैं।

सरकारी स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए किए जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण है, सभी स्तरों पर जन प्रतिनिधियों को सघन प्रशिक्षण प्रदान करना। लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि सरकारी स्तर पर प्रशिक्षण को मात्र खानापूर्ति के लिए किया जाता है। दूसरी तरफ जनप्रतिनिधि भी प्रशिक्षण के प्रति उदासीन होते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन यह प्रतिशत उपस्थिति का है और वह भी अनिवार्यता के कारण। वास्तव में कितने जनप्रतिनिधि लाभान्वित होकर निकले और कितनों ने इसका व्यवहारिक जीवन में प्रयोग किया इसके कोई आंकड़े नहीं हैं। एक बार प्रशिक्षण के बाद सरकार अपना दायित्व पूर्ण मानती है और अगले चुनाव तक भूल जाती है। ग्रामीण जनप्रतिनिधियों के लिए एक बार के नहीं सतत प्रशिक्षण की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि ऐसा करने से ही नेतृत्वकारी क्षमताओं और आत्मविश्‍वास का विकास होता है, पूरे तंत्र और व्यवस्था को समझने में सहायता मिलती है। महिला जनप्रतिनिधियों के साथ आरंभ से अंत तक काम करने और सहयोग करने के लिए द हंगर प्रोजेक्ट जैसी बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं हैं, जो पूरी गंभीरता के साथ ग्रामीण विकास में महिला नेतृत्व को प्रभावकारी बनाने में लगी हैं और इसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं।

गरीबी की मार महिला पर भार
इस हकीकत को सभी मानते हैं कि गरीबी की मार ग्रामीण भारत को ज्यादा झेलनी पड़ती है। इसी के साथ यह भी सच है कि निर्धनता का पहला शिकार महिलाओं को ही होना पड़ता है, सबसे पहले उन्हीं पर होने वाले खर्च कम किए जाते हैं और परिवार की आय बढ़ाने के लिए उन्हीं को सबसे ज्यादा श्रम करना पड़ता है। स्त्री को दोयम मानने की मानसिकता भी हमारे यहां व्यापक है। इस धारणा के साथ ग्रामीण महिलाओं के हालात बदलने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। पंचायत का बजट बनाते समय अगर वे महिलाओं की प्राथमिकता वाले पहलुओं की पैरवी करें, विकास कार्यों में महिला आधारित मुद्दों को शामिल करवाने में सफल हों और महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकने की कोशिश करें तो परिदृश्‍य बदलने में देर नहीं लगेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे समाज में स्वयं महिला जनप्रतिनिधियों के साथ ही आए दिन यौन दुराचरण के मामले सामने आते रहते हैं। इसमें सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि महिला जनप्रतिनिधि को स्वयं पर होने वाली हिंसा या यौन दुराचरण के मामले में विशेष कानूनी संरक्षण नहीं है, उसके साथ सामान्य महिला जैसी ही स्थिति है।

बिना तालमेल कैसी पंचायत
पंचायती राज व्यवस्था का सांगठनिक ढांचा इस प्रकार का है कि वह ऊपर से नीचे एक दूसरे पर आश्रित है, लेकिन संकट यह है कि इस बहुस्तरीय प्रणाली को सहयोग करने वाली कोई व्यवस्था नहीं है। पंचायत स्तर पर पंच, सरपंच, उप सरपंच और ग्राम सेवक होते हैं, लेकिन इन सबमें कोई तालमेल नहीं होता। जाति, धर्म, लिंग, वर्ग और राजनैतिक दल जैसे भेद की वजह से आम तौर पर सामंजस्य नहीं हो पाता। जबकि पंचायती राज व्यवस्था एक किस्म की टीम भावना की मांग करती है, जो कहीं दिखाई नहीं देती। ग्राम सेवक और अन्य सरकारी कर्मचारी व अधिकारी अपनी नौकरी पक्की मान कर जनप्रतिनिधियों के साथ, खासकर महिलाओं के साथ मनमानी करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि लोगों के काम नहीं हो पाते और व्यवस्था के प्रति असंतोष पनपता है। सरकारी मशीनरी और जनप्रतिनिधियों में जिस प्रकार के संबंध होने चाहिएं, उसकी गैर मौजूदगी जमीनी लोकतंत्र को विकसित नहीं होने देती। मानसिकता में बदलाव से ही ये हालात बदल सकते हैं। इस बदलाव में पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ग्रामसभा प्रायः सब जगह बेहद कमजोर है। सन् 2010 को ग्रामसभा सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया गया है, लेकिन राजस्थान में छह महीने गुजरने के बाद भी इसकी कोई सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं देती। पिछली बार जब सी.पी. जोशी राजस्थान के पंचायत राज मंत्री बने थे, तो ग्रामसभा को मजबूत करने के लिए लगातार अखबारों में विज्ञापन छपे थे। अब जोशी केंद्रीय मंत्री हैं, लेकिन ग्राम सभा की मजबूती की आवाज कहीं नहीं है।

नरेगा ही करेगा हर मर्ज की दवा
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून लागू होने के बाद ग्रामीण भारत में गरीब लोगों को जीने का एक नया संबल मिला है। पहले नरेगा और अब महानरेगा दोनों ही पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से क्रियान्वित हो रहे हैं। हर पंचायत के पास इसके तहत सालाना एक करोड़ का बजट है, जो न केवल गांव के विकास कार्यों में इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि इसी में से गरीबों को रोजगार भी मिल रहा है। इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतें भी आ रही हैं, लेकिन फिर भी यह अकेली योजना ग्रामीण भारत में उपजे असंतोष को कम करने में सक्षम है, जरूरत भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और अधिकाधिक लोगों तक पहुंचने की है। हमारे गृहमंत्री और कई दलों के नेता बारंबार नक्सलवाद से निपटने के लिए दमन की कार्यवाहियों की बात करते हैं, लेकिन एक छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि लोगों को सही राह दिखाने के लिए जब हमारे पास पर्याप्त चीजें मौजूद हैं तो आप दवा की जगह बंदूक की गोली क्यों देना चाहते हैं? इस सवाल का जवाब किसी सरकार के पास नहीं है और सारी समस्याएं इसीलिए खड़ी हो रही हैं।

यह आलेख डेली न्‍यूज़ के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में रविवार, 11 जुलाई, 2010 को कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ।

Sunday 4 July, 2010

जयपुर : अब दरख्तों की खैर नहीं...!

अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहा है शहर

इस शहर में कुछ सडक़ें ऐसी हैं, जो विकास और सुविधाओं के नाम पर नग्न कर दी गई हैं। पहले कभी इन सडक़ों पर हरे-भरे पेड़ों की लंबी कतारें हुआ करती थीं, जिनकी शीतल छांव में थके हारे लोग पसीना सुखाते थे, परिन्दे आशियाना बसाते थे और जिनके पत्ते जानवरों का भोजन बनते थे। आज इन सडक़ों पर दूर-दूर तक पेड़-पौधों के नामोनिशान नजर नहीं आते।

बढ़ते ट्रैफिक दबाव से निपटने का आसान उपाय था, सडक़ों को ज्यादा से ज्यादा चौड़ा करना। इसके लिए राह में आने वाले तमाम पेड़-पौधों की निर्ममतापूर्वक बलि दे दी गई। सीकर रोड पर बी.आर.टी.एस. के लिए सडक़ क्या चौड़ी हुई, बेजुबान दरख्तों को समूल नष्ट कर दिया गया। आज हरमाड़ा से लेकर चौमूं पुलिया, झोटवाड़ा ओवरब्रिज से चांदपोल, पानीपेच से रेलवे स्टेशन, चिंकारा कैंटीन से ट्रांसपोर्ट नगर, सांगानेरी गेट से लेकर जोरावर सिंह गेट, चांदपोल से गलता गेट, नारायण सिंह सर्किल से ट्रांसपोर्ट नगर, अजमेरी गेट से सीतापुरा, गवर्नमेंट हॉस्टल से पुरानी चुंगी, अम्बेडकर सर्किल से सोडाला थाना, समूचा बी-टू बाइपास, इंदिरा मार्केट से घाटगेट तक और समूची चारदीवारी में सिर्फ गिनती के पेड़ बचे हैं। इन रास्तों पर अगर कहीं हरे दरख्त दिखते भी हैं तो अधिकांश सडक़ किनारे की इमारतों की बाउंड्री में हैं। मुख्य सडक़ों पर हरियाली के नाम पर सजावटी पौधे हैं।

हाल ही में हुए एक अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण में जयपुर सिर्फ इसलिए देश के श्रेष्ठ शहरों में पिछड़ गया, क्योंकि यहां बसावट की तुलना में हरियाली बेहद कम है। जहां दरख्त होने चाहिएं वहां अल्पायु सजावटी पौधे हैं। सार्वजनिक पार्कों में से अधिकांश में मंदिर बना दिए गए हैं, जो पूरी तरह गैर-कानूनी हैं। अखबारों में तस्वीरें छप रही हैं कि कैसे चोर दिन-दहाड़े ट्री-गार्ड उखाडक़र ले जा रहे हैं। हमारे शहर के पर्यावरण के साथ बरसों से यह खिलवाड़ हो रहा है और कोई कुछ नहीं बोलता। लोगों को याद होगा, कुछ ही बरस पहले बीसलपुर पाइप लाइन के लिए कैसे विशाल वृक्षों की बलि दी गई और जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपए पाइप लाइन में फूंक दिए गए। हमने पहले रामगढ़ को बर्बाद किया और अब बीसलपुर को। कूकस के बांध में तो पानी आए पच्चीस साल हो गए। इस बांध में पानी आने का जो रास्ता था उस पर बड़े-बड़े स्टार क्लास होटल और रिसोर्ट बन गए हैं। मावठे को सूखे कई बरस बीत गए। तालकटोरा क्रिकेट का मैदान है। सरस्वती कुण्ड के नदी एरिया से लेकर पहाड़ के साथ-साथ जलमहल तक चलते जाइए, पहाड़ तक पर कॉलोनियां बस गई हैं। कभी यहां का बरसाती पानी तालकटोरा और जलमहल तक जाता था। नाहरी का नाका के बांध में तो अब बंधा बस्ती ही बस गई है। कहां तक गिनें, एक अंतहीन सिलसिला है इस शहर की बर्बादी का।

एक दिन मैंने चिंकारा कैंटीन से सांगानेरी गेट आते हुए सडक़ पर लगे दरख्ïतों को गिनने की कोशिश की तो गिनती बीस-तीस से आगे नहीं जा सकी। इसमें भी आश्चर्य की बात यह कि बाईं तरफ यानी जी.पी.ओ. की तरफ वाले हिस्से में तो शायद पांच-सात पेड़ ही बचे हैं। अभी एक दिन पांच बत्ती पर देखा कि नरसिंह बाबा के मंदिर के बाहर का विशाल दरख्त काटा जा रहा था। यानी अब इस सडक़ पर बचे-खुचे दरख्तों की भी खैर नहीं।

यह उस शहर में हो रहा है जहां तीन सौ बरस से बगीची और बागों की परंपरा रही है। पुरोहित जी का बाग, हाथी बाबू का बाग, मां जी का बाग, नाटाणियों का बाग, सेठानी का बाग और विद्याधर का बाग जैसे बाग शहर की चारदीवारी से बाहर थे तो चारदीवारी में बगीचियों की भरमार थी। मसलन कायस्थों की बगीची, अमरनाथ की बगीची, सवाई पाव की बगीची, सिद्धेश्वर की बगीची, पतासी वालों की बगीची और लगभग हर रास्ते में ऐसी बगीचियां हुआ करती थीं। आज बगीचियों और बागों के बस नाम रह गए हैं, हर तरफ रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें बन गई हैं। इसीलिए इस शहर में जहां कभी दस-बीस फीट पर कुओं में पानी निकल आता था, आज पूरा शहर डार्क जोन में चला गया है। शहर में अब पानी सिर्फ विद्याधर नगर जैसे गिने-चुने इलाकों में बचा है, जहां सैंकड़ों ट्यूबवेलों से चौबीसों घण्टे पानी निकाला जा रहा है। इरादा साफ है, इन इलाकों को भी डार्क जोन में भेज दो। फिर लोग मजबूर होकर कोका कोला वालों का पानी खरीदेंगे, जो कालाडेरा को रसातल में ले जा रहा है।


हटा दिया रास्ते से हरा पेड़... : पांच बत्ती पर नरसिंह बाबा के मंदिर के पास इस हरे पेड़ को रातों रात उड़ा दिया गया। कहते हैं कि कुछ होटल, दुकान वालों के लिए बाधा पैदा करता यह पेड़ आंख की किरकिरी बना हुआ था, इसलिए इसका सफाया कर दिया गया।
फोटो: अशोक शर्मा