Sunday 24 July, 2011

सतरंगी है सावन


तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ साथ
                           *परवीन शाकिर

क्‍या घर, क्‍या जंगल और क्‍या बादल, सावन में तो यूं लगता है जैसे पूरी कायनात भीग रही है। पत्‍ता-पत्‍ता, बूटा-बूटा, रेशा-रेशा, जर्रा-जर्रा जिस वक्‍त भीगता है और हवा में एक मदमस्‍त कर देने वाली खुश्‍बू बिखेर देता है तो धरती और आकाश के बीच अमृत सरीखी पानी की बूंदें नाचने लगती हैं। कुदरत की ताल पर नाचते इन नन्‍हे-नन्‍हे पानी के कतरों पर जब सूर्यदेव की किरणें अपना स्‍नेह लुटाने आती हैं तो इस कायनात के तमाम रंग एक साथ कतार बांधकर खड़े हो जाते हैं सावन के स्‍वागत में। कुदरती रंगों की यह कतार इंसानी आंखों में इंद्रधनुष बन जाती है और एक ऐसे पावन दृश्‍य की रचना करती है कि इंसानी जज्‍बातों का समंदर मचलने लगता है। ऐसे में एक बार फिर परवीन शाकिर का शेर याद आता है:

धनक उतरती नहीं मेरे खून में जब तक
मैं अपने जिस्‍म की नीली रगों से जंग में हूं

धनक माने इंद्रधनुष के सातों रंग जब तक इंसान की जज्‍बाती नसों में नहीं उतरते, वो अपनी नीली नसों से ही लड़ता रहता है। किसे नहीं भाती रंगों की यह अनुपम सौगात, जो हमें यूं तो बारह महीने देखने को मिलती है, लेकिन बारिश में और खासकर सावन में सबसे ज्‍यादा दिखाई देती है। इस कुदरती करिश्‍मे को हमारी सभ्‍यता और संस्‍कृति में इतना पवित्र माना गया है कि हमारे बचपन में इसकी ओर अंगुली उठाना भी पाप माना जाता था और बड़े बुजुर्ग कहते थे कि इंद्रधनुष की ओर अंगुली उठाने से तुम्‍हारी अंगुलियां गल जाएंगी। ऐसी पवित्रता और किन कुदरती चीजों को लेकर है जरा सोचिए।

यूं दुनिया भर में इंद्रधनुष को लेकर कई किस्‍म के धार्मिक विश्‍वास हैं, हम तो इसे वर्षा ऋतु के देवता इंद्र का धनुष मानते हैं, लेकिन बंगाल में इसे भगवान राम का धनुष माना जाता है और इसीलिए इसे रामधनु कहते हैं। अरबी और इस्‍लामिक संस्‍कृति में भी इसे बादल और बारिश के फरिश्‍ते कुज़ह का धनुष मानते हैं।  यूनानी मिथकों में इसे वो रास्‍ता माना जाता है जो देवदूत आइरिस ने धरती और स्‍वर्ग के बीच बनाया था। बारिश से बाढ़ जैसी त्रासदियां भी जुड़ी होती हैं, इसीलिए मेसोपोटामिया के गिलगमेश महाकाव्‍य में इंद्रधनुष को माता इश्‍तर के गले का वो हार कहा गया है जो माता ने इस वचन के साथ आकाश में उठा लिया कि वह उन दिनों को कभी माफ नहीं करेगी, जिन्‍होंने भयानक बाढ़ में उसके बच्‍चों को लील लिया। ईसाई मिथकों में भी इंद्रधनुष को ईश्‍वर का ऐसा ही वचन माना जाता है। एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि किसी भी सभ्‍यता और संस्‍कृति में इंद्रधनुष को बुराई के प्रतीक के रूप में नहीं देखा गया और हो भी क्‍यों... कुदरत की इतनी नायाब और सुंदरतम कृति को कोई कैसे बुरा कह सकता है। सही बात तो यह है कि इंद्रधनुष सबसे ज्‍यादा युवा दिलों को सदियों से पसंद आता रहा है और नैसर्गिक प्रेम के प्रतीक के रूप में दुनिया भर की कविता में व्‍यक्‍त होता आया है। सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना ने एक प्रेम कविता में लिखा है-

मुझे चूमो / खुला आकाश बना दो
मुझे चूमो / जलभरा मेघ बना दो
मुझे चूमो / शीतल पवन बना दो
मुझे चूमो / दमकता सूर्य बना दो
फिर मेरे अनंत नील को इंद्रधनुष सा लपेट कर
मुझमें विलय हो जाओ।

विज्ञान में सबसे पहले अरस्‍तू ने इसकी व्‍याख्‍या की और उसके बाद पानी की बूंदों और सूरज की किरणों के इस अचरज भरे खेल को लेकर वैज्ञानिकों ने खूब दिमाग दौड़ाए और इसका पूरा खेल खेलकर रख दिया। लेकिन प्रकृति के इस चमत्‍कार को कवि, कलाकार और लेखकों ने रंगों और प्रकाश का खेल नहीं समझा, उनके लिए यह जादुई संसार विज्ञान की व्‍याख्‍याओं से टूटने वाला नहीं था। अंग्रेजी के महान कवि जॉन कीट्स ने महसूस किया कि न्‍यूटन ने इंद्रधनुष को लेकर रची गई तमाम कविताएं नष्‍ट कर डालीं, इसीलिए उन्‍होंने एक विता में लिखा, एक समय था जब स्‍वर्ग में एक दारुण इंद्रधनुष हुआ करता था। उन्‍होंने बड़े दुख के साथ आगे लिखा कि दर्शन और विज्ञान एक दिन तमाम मिथकों को जीत लेंगे और इंद्रधनुष को उधेड़ कर रख देंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और इंद्रधनुष का जादू साहित्‍य और कला में बरकरार रहा। इसीलिए इसकी शान में परवीन शाकिर ने लिखा,

धनक धनक मेरी पोरों के ख्‍वाब कर देगा
वो लम्‍स मेरे बदन को गुलाब कर देगा

कबा-ए-जिस्‍म के हर तार से गुजरता हुआ
किरन का प्‍यार मुझे आफताब कर देगा

रिचर्ड डॉकिंस ने कीट्स की मान्‍यता के उलट कहा था कि विज्ञान हमेशा ही अपनी प्रकृति से महान कविता को प्रेरित करता है। आप इस अवधारणा को परवीन के इन दो शेरों में बहुत गहराई से पहचान सकते हैं। कुदरत का एक बेमिसाल नजारा कैसे नायाब कविता को संभव बनाता है और कैसे विज्ञान के द्वारा खोले हुए रहस्‍य को एक कवयित्री अपनी कविता में बहुत प्‍यार से एक नई कल्‍पना का रूप देती है। कीट्स के बरक्‍स विलियम वर्ड्सवर्थ कहते हैं-

मेरा दिल उछलता है
जब मैं आकाश में एक इंद्रधनुष निहारता हूं
यही हुआ था जब मैं जन्‍मा था
अब जबकि मैं जवान हो गया हूं
तब भी यही होता है
जब मैं बूढा हो जाउंगा या मर जाउंगा
तब भी यही होगा
शिशु पिता है पुरुष का
और मैं कामना करता हूं कि
आने वाले मेरे तमाम दिन
नैसर्गि‍क पवित्रता से बंधे रहें।

दुनिया में जहां भी सामाजिक और सांस्‍कृतिक विविधता है, वहां उस वैविध्‍य को सुंदरतम रूप देने के लिए इंद्रधनुष की ही उपमा दी जाती है। हमारे देश में जो विराट सांस्‍कृतिक वैभव और विविधता है, उसे इंद्रधनुषी सांस्‍कृतिक छटा इसीलिए कहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में हमारी तरह ही रंग-बिरंगा सांस्‍कृतिक संसार है, इसलिए वहां की पूरी संस्‍कृति को ही रेनबो कल्‍चर कहते हैं। इस तरह दुनिया में इंद्रधनुष एक ऐसे अकेले प्रतीक के रूप में सामने आता है जो विविधताओं के बावजूद एकता, सहअस्तित्‍व और सहजीवन को दर्शाता है। इस दुनिया में जितने धार्मिक विश्‍वास हैं, सांस्‍कृतिक मान्‍यताएं हैं और जितनी भी किस्‍म की विविधताएं हैं, वे सब हमें इंद्रधनुषी आभा में लिपटी इस प्रकृति की सबसे शानदार विरासत लगती हैं। यह विरासत हमें एक ऐसी दुनिया रचने-बसाने की प्रेरणा देती है जिसमें सारी असहमतियों और विभिन्‍नताओं के बावजूद हम एक साथ रह सकते हैं, क्‍योंकि इसी में वह कुदरती खूबसूरती है, जो धरती पर इंद्रधनुष रचती है। कितनी खूबसूरत कल्‍पना है कि इंद्रधनुष के सात रंगों में इस धरती के समस्‍त धर्म एक कतार में यूं झुककर धनुषबद्ध हो जाते हैं जैसे पृथ्‍वी को सिजदा कर रहे हों। इस जमीन पर ऐसे इंद्रधनुष रचने की जरूरत है, जो इंसान को इंसान से जोड़ें, जो भय से दुनिया को मुक्‍त करे। हमें वो इंद्रधनुष चाहिएं, जिनके रंगों में हम अपने आसपास की दुख और दारिद्र्य भरी दुनिया को खूबसूरत लिबासों में सजा सकें और उन्‍हें आसमानों की बुलंदियों पर इंद्रधनुष की तरह देख सकें। हमें विज्ञान की वह प्रकाशभरी दुनिया चाहिए जो कुदरत के इंद्रधनुषी रहस्‍यों को खोलती हुई इंसान को अज्ञान के सनातन अंधकार से बाहर निकाल कर इंद्रधनुष दिखाए। यूनानी मिथक में जो रास्‍ता देवदूत स्‍वर्ग से धरती के बीच बनाता है, वह रास्‍ता हमें जमीन पर स्‍वर्ग उतारने का बनाना है, जिसका प्रतीक है इंद्रधनुष। बादलों का जो फरिश्‍ता है, देवता है वह इस धरती पर हमारे खेत-खलिहानों को बारिश से इस कदर पूर दे कि कोई भूखा ना रहे और इंद्रधनुष को आधी रोटी का रंगीन टुकड़ा ना समझे। हमें इश्‍तर माता का वो हार जमीन पर लाना है जो देवी मां ने सैलाब में तबाह हुई संतानों के दुख में आकाश में उठा लिया। हमें बाढ़ में नहीं बारिश में इंद्रधनुष चाहिएं। मन को हर्षित करने वाली वह बारिश जो किसी का घर नहीं उजाड़े और देवताओं को किसी वचन की तरह अपनी संततियों को बचाने के लिए आसमान में इंद्रधनुष नहीं टांगना पड़े। हमें सिर्फ बारिश में नहीं हर मौसम में इंद्रधनुष चाहिएं। हम एक ऐसे बाग की कल्‍पना करते हैं जहां इस धरती के तमाम बाशिंदें बेखौफ तफरीह करने के लिए आएं और जब बारिश की फुहारें आसमानी अमृत बरसाने लगें तो हर कोई परवीन शाकिर की तरह गाता चले-

चिडि़या पूरी भीग चुकी है
और दरख्‍त भी पत्‍ता पत्‍ता टपक रहा है
घोसला कब का बिखर चुका है
चिडिया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्‍छा लगता है।

और ऐसे मौसम में इंद्रधनुष को देखना भी कितना अच्‍छा लगता है।

(यह आलेख डेली न्‍यूज, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट हम लोग की टॉप स्‍टोरी के रूप में 24 जुलाई, 2011 को प्रकाशित हुआ।)
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