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Wednesday, 1 April 2009

पिता के बहाने एक खोजयात्रा

हर बार की तरह मैंने बीते हफ्ते 'डेली न्यूज़' के अपने 'पोथीखाना स्तम्भ में एक नई और शानदार किताब की चर्चा की है। यहाँ पेश है वही स्तम्भ, अपने दोस्तों और प्रिय पाठकों के लिए।
आतिश तासीर सिर्फ जन्म से मुसलमान हैं, वजह यह कि उनकी मां सिख हैं और एक पत्रकार होने के नाते उनकी मुलाकात एक संयोग से एक दिन पाकिस्तान के एक नेता से दिल्ली में होती है। कुछ दिनों की नजदीकियों से आतिश का जन्म होता है और पिता कभी पलटकर मां-बेटे की खैर-खबर नहीं लेते। मां ने बेटे को न केवल मुस्लिम नाम दिया, बल्कि परवरिश भी उसी रूप में करने की कोशिश की। अपने सिख भाई-बहनों के बीच पले-बढ़े आतिश उच्च शिक्षा प्राप्त कर पत्रकार बने और ‘टाइम’ जैसी पत्रिका से जुड़े। आतिश ने अपने पिता को सिर्फ एक तस्वीर में ही देखा था, लेकिन एक मुस्लिम होने के अहसास और उसकी वजह से उठने वाले कई सवाल उन्हें परेशान करने लगे तो उन्होंने इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए एक लंबी यात्रा शुरू की, जो अब एक किताब की शक्ल में सामने है, ‘स्ट्रेंजर टू हिस्ट्री-ए संस जर्नी थ्रू इस्लामिक लैंड्स।’

आतिश की पहली विडम्बना थी कि एक हिंदू भारतीय मां और पाकिस्तानी मुस्लिम पिता की संतान होने से एक बच्चे के मन में कितने किस्म के सवाल पैदा होते हैं। इन सवालों से जूझते हुए आतिश अपने मुस्लिम पाकिस्तानी पिता और उनके देश को जानने के लिए निकल पड़ते हैं। पिता आधुनिक हैं, शराब के शौकीन भी, लेकिन अपने आपको एक ‘सांस्कृतिक मुसलमान’ मानते हैं। आखिर यह सांस्कृतिक मुसलमान क्या है? अगर पूरी दुनिया की मुसलमान कौम एक है तो फिर इतने मुस्लिम देश क्यों हैं और क्यों आपस में लड़ते रहते हैं, क्यों पाकिस्तान से बांग्लादेश का जन्म होता है? ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने के लिए आतिश तासीर ने अपनी यात्रा शुरू की, इस्लाम के लिहाज से ऐतिहासिक और समृद्ध सांस्कृतिक नगर इस्ताम्बूल से। वहां से चलकर मक्का और ईरान होते हुए वे पाकिस्तान पहुंचते हैं, जहां अपने पिता से मिलते हैं। जिस दिन आतिश की पिता से मुलाकात होती है, उसी दिन पेशावर में बेनजीर भुट्टो की हत्या हो जाती है। आतिश के पिता सलमान तासीर हैं, जो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता हैं और पंजाब के गवर्नर हैं। आतिश की साहसी माँ हैं भारत की कद्दावर पत्रकार तवलीन सिंह।
आतिश अपनी किताब में लिखते हैं, ‘मैंने अपने पिता को आखिर खोज ही लिया, क्योंकि मैं उस अंधेरे मैं नहीं जीना चाहता था, जिसमें पिता के प्रति एक अजनबीपन जिंदगी भर बना रहे। अगर मैं अपने पिता से नहीं मिलता तो मैं जिंदगी भर उनके बारे में उन बातों से ही अंदाजा लगाता रहता, जो मेरी मां आस्थापूर्वक उनके बारे में मुझे बताती रही हैं। मुझे महसूस हुआ कि इस सब से तो मैं अपरिचय और अज्ञान के दायरे में बंधा रह जाउंगा। इतिहास को कभी भी आस्था और विशवास के सहारे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।’ अपनी यात्रा में आतिश ने न केवल अपने पिता को खोजा, बल्कि उन सवालों से भी दो-चार हुए, जिनको लेकर भारत, पाक और बांग्लादेश के मुसलमान दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुसलमानों से अलग सोच रखते हैं और अधिकाँश मुसलमान आधुनिकता को लेकर क्यों डर पाले रहते हैं। इन सवालों के जवाबों के लिए वे मुल्ला, मौलवी से लेकर आम लोगों तक से मिले। जो जवाब मिले वे परस्पर विरोधी और चौंकाने वाले थे।
तुर्की में आतिश की मुलाकात एक ऐसे चित्रकार से होती है, जो पक्का मजहबी मुसलमान है। एक दिन उसका दोस्त कार में रखी कुरान शरीफ उठाकर बाहर फेंक देता है और कहता है कि इसमें कुछ नहीं रखा। दरअसल तुर्की में सरकार पुलिस के बल पर इस्लामी कानून लागू करने के प्रयास करती है और इसीलिए चित्रकार का मित्र कुरान फेंक कर सरकार के प्रति अपनी नफरत जाहिर करता है। आप किसी भी व्यक्ति को जबर्दस्ती मजहबी नहीं बना सकते। इसी तरह तेहरान में आतिश की मुलाकात ऐसे मुसलमानों से होती है, जो गुपचुप तरीके से हरे रामा हरे कृष्णा संप्रदाय से जुड़े हुए हैं। तुर्की के मुसलमान जिस इस्लामी व्यवस्था का ख्वाब देखते हैं, वही ईरान में लागू होती है तो जनता परेशान होती है? इस्लाम और मुसलमानों के इन अंतर्विरोधों को आतिश तासीर ने बहुत खूबसूरती से और दिलचस्प अंदाज में उठाया है।
इस किताब को पढ़ते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आतिश की परवरिश एक सिख परिवार में हुई और आतिश के पिता को लेकर परिवार में जो नाराजगी और नफरत थी, वह बचपन से ही आतिश को घर में होते हुए भी घर से अलग होने के अहसास तले दबाये हुए थी। इसलिए आतिश की बहुत सी संकल्पनाओं से असहमत हुआ जा सकता है। लेकिन दिलचस्प अंतर्विरोधों को जानने, समझने और कुछ इस्लामी देशों की यात्रा करने के लिहाज से किताब जरूर पढ़ी जा सकती है।