Saturday 3 August, 2013

मैक्सिम गोर्की की कहानी : उसका प्रेमी

मुझे एक बार मेरी जान-पहचान वाले एक व्‍यक्ति ने यह घटना बताई थी।


उन दिनों में मास्को में पढ़ता था। मेरे पड़ोस में एक ऐसी महिला रहती थी, जिसकी प्रतिष्‍ठा को वहां सन्दिग्ध माना जाना था। वह पोलैंड की रहने वाली थी और उसका नाम टेरेसा था। मर्दों की तरह लम्बा कद, गठीला डील-डौल, काली घनी भौंहे, जानवरों जैसी चमकती काली आंखें, भारी आवाज, कोचवान जैसी चाल,  बेहद ताकतवर मांसपेशियां और मछुआरे की बीवी जैसा उसका रंग-ढंग, उसके व्यक्तित्व को मेरे लिए खौफनाक बनाते थे। मैं बिल्कुल ऊपर रहता था और उसकी बरसाती मेरे ठीक सामने थी। जब वह घर पर होती तो मैं कभी भी अपना दरवाजा खुला नहीं छोड़ता था। कभी-कभार हम सीढिय़ों पर या आँगन में मिलते और वह ऐसे चालाक सनकीपने से मुस्कुराती कि मैं अपनी मुस्‍कुराहट छुपा लेता। अक्सर वह मुझे नशे में धुत मिलती और उसकी आंखों में उनींदापन, बालों में अस्त-व्यस्तता दिखाई देती और ख़ास तौर पर वीभत्स ठहाके लगाती रहती। ऐसे में वह मुझसे जरुर बात करती।
'और कैसे हो मि. स्टूडेन्ट’ कहते ही उसकी वीभत्स हंसी उसके प्रति मेरी नफरत को और बढ़ा देती। मैंने उससे ऐसी खैफनाक मुलाकातें टालने के लिए कई बार यह कमरा छोडऩे का विचार किया, लेकिन मुझे अपना छोटा-सा आशियाना बहुत प्यारा लगता था। उसकी खिड़की से बाहर का दृश्य बहुत खूबसूरत लगता था और वहां काफी शांति थी, इसलिए मैंने इस कष्ट को सहन करना स्वीकार कर लिया।

और एक सुबह जब मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा क्लास से गैर-हाजिरी का बहाना तलाश कर रहा था, ठीक उसी समय दरवाजा खुला और टेरेसा की भारी आवाज ने मेरी चेतना को झकझोर दिया।

'तबीयत तो ठीक है मि. स्टूडेन्ट?
'क्या चाहिए आपको?’ मैंने पूछा और देखा कि उसके चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव तैर गए हैं और साथ ही कुछ विनम्रता भी... मेरे लिए उसके चेहरे की यह मुद्रा बिल्‍कुल अजनबी-सी थी।    
'सर, मैं आपसे कुछ मदद मांगने आई हूं, निराश तो नहीं करेंगे?’ 
मैं चुपचाप पड़ा रहा और खुद से ही कहने लगा, 'हे दयानिधान  करुणानिधान  उठो!’ 
'मुझे घर पर एक चिट्ठी भेजनी है। बस इतना-सा निवेदन है।‘ उसने कहा। उसकी कोमल-कातर आवाज़ में जैसे जल्‍दी से यह काम कर देने की प्रार्थना थी। 
'रक्षा करना भगवान’, मैंने मन ही मन अपने ईश्‍वर से कहा और उठकर अपनी मेज तक आया। एक कागज उठाया और उससे कहा, 'इधर आकर बैठिए और बताइये क्या लिखना है?’ 
वह आई, बहुत ही सावधानी के साथ कुर्सी पर बैठी और मेरी तरफ अपराध-भाव से देखने लगी।
'अच्छा तो किसके नाम चिट्ठी लिखवाना चाहती हैं आप?’ 
'बोसेलाव काशपुत के नाम, कस्बा स्वीजियाना, बारसा रोड।‘ 
'ठीक है, जल्दी से बताइये क्या लिखना है?
'माई डियर बोल्स... मेरे प्रियतम...मेरे विश्वस्त प्रेमी। भगवान तुम्हारी रक्षा करे। हे सोने जैसे खरे दिल वाले, तुमने इतने दिनों से इस छोटी-सी दुखियारी बतख, टेरेसा को चिट्ठी क्‍यों नहीं लिखी?’ 
मेरी हंसी निकलते-निकलते रह गई। 'एक छोटी-सी दुखियारी बतख। पांच फुट से भी लम्बी, पत्थर की तरह सख्त और भारी चेहरा इतना काला कि बेचारी छोटी बतख जैसे जिन्दगी भर किसी चिमनी में रही हो और कभी नहाई ही नहीं हो। किसी तरह खुद की हंसी पर काबू पाकर मैंने पूछा, 'कौन है यह मि. बोलेस?’ 
‘बोल्‍स, मि. स्‍टूडेंट’, उसने इस तरह कहा मानो मैंने उसका नाम पुकारने में कोई बड़ी बेहूदगी कर दी हो।

'वह बोल्‍स है, मेरा नौजवान आदमी।‘ 
'नौजवान आदमी।‘ 
'आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है? मैं, एक लड़की, क्या मेरा नौजवान आदमी नहीं हो सकता?

वह और एक लड़की? ठीक है।
'ओह, क्यों नहीं? इस दुनिया में सब कुछ संभव है और क्‍या यह नौजवान बहुत लंबे समय से आपका आदमी है?’ मैंने पूछा।
'छह साल से।‘ 
'ओह, हां, तो चलिए आपकी चिट्ठी लिखते हैं।‘ और मैंने चिट्ठी लिख दी।
लेकिन मैं आपको एक बात बिल्‍कुल साफ़ तौर पर बता दूं कि मैं चाहता तो इस पत्राचार में अगर जानबूझकर भी बहुत-सी चीज़ें बदल देता, बशर्ते यहां टेरेसा के अलावा कोई और चाहे जैसी भी लड़की होती।‘ 

'मैं तहेदिल से आपकी शुक्रगुजार हूं। उम्मीद करती हूं कि कभी मैं भी आपके काम आ सकूं।‘ टैरेसा ने बहुत सौजन्‍य और सद्भाव के साथ कहा। 
'नहीं इसकी कोई जरुरत नहीं, शुक्रिया।‘ 
'शायद आपकी कमीज़ और पतलूनों को मरम्मत की जरुरत हो, मैं कर दूंगी।‘ 
मुझे लगा कि इस हथिनी जैसी महिला ने मुझे शर्मसार कर दिया और मैंने विनम्रतापूर्वक उससे कहा कि मुझे उसकी सेवाओं की कोई जरुरत नहीं है। सुनकर वह चली गई।
एक या दो सप्‍ताह गुज़रे होंगे कि एक दिन शाम के वक्‍त मैं खिड़की पर बैठा सीटी बजा रहा था और खुद से ही कहीं बहुत दूर जाने की सोच रहा था। मैं बिल्‍कुल बोर हो गया था। मैसम बड़ा खराब था और मैं बाहर नहीं जाना चाहता था। मैं अपने बारे में आत्‍म-विश्‍लेषण और चिंतन की प्रक्रिया में डूबा हुआ था। हालांकि यह भी निहायत ही बकवास काम था, लेकिन मुझे इसके अलावा कुछ और करने की सूझ ही नहीं रही थी। उसी समय दरवाज़ा खुला। हे भगवान तेरा शुक्रिया। कोई भीतर आया। 
'हैलो मि. स्टूडेन्ट, कुछ खास काम तो नहीं कर रहे आप?’ 
यह टैरेसा थी, हुंह...।

'नहीं, क्या बात है?’ 
'मैं पूछ रही थी कि क्या आप मेरे लिए एक और चिट्ठी लिख देंगे?’ 
'अच्छा, मि. बोल्स को?
'नहीं, इस बार उनकी तरफ से।‘ 
'क्या... क्‍या मतलब?’ 
'ओह मैं भी बेवकूफ हूं। माफ करें, मेरी एक जान पहचान वाले हैं पुरुष मित्र। मेरी जैसी ही उनकी भी एक प्रेमिका है टेरेसा। क्या आप उस टेरेसा के लिए एक चिट्ठी लिख देंगे?’ 
मैंने देखा, वह तनाव में थी, उसकी अंगुलियां कांप रही थीं।... पहले तो मैं चकरा गया था, फिर मामला मेरी कुछ समझ में आया।
मैंने कहा, 'देखिए मोहतरमा, न तो कोई बोल्स है और न ही टेरेसा। आप अब तक मुझसे झूठ पर झूठ बोलती जा रही हैं। छल किए जा रही हैं। क्‍या आप मेरी जासूसी करने नहीं आ रही हैं? मुझे आपसे पहचान बढ़ाने में या आपकी जान-पहचान वालों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। समझीं आप?’ 
और अचानक वह बुरी तरह घबरा कर परेशान हो गई। वह कभी इस पांव पर तो कभी उस पांव पर खड़ी होकर अजीब ढंग से बड़बड़ाने लगी। लग रहा था जैसे वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन कह नहीं पा रही थी। मुझे लगा, मैंने उस पर सन्देह करके बहुत गलत किया है। यह तो शायद कोई और ही बात थी।

वह 'मि. स्टूडेन्ट’ कहकर अचानक अपना सिर हिलाती हुई पलटी और दरवाजे से बाहर निकल कर अपने कमरे में चली गई। मैं अपने कमरे में दिमाग में उमड़ रहे अप्रीतिकर भावों के साथ जड़वत रह गया। एक भयानक आवाज के साथ उसका दरवाजा बन्द होने की आवाज आई। मुझे काफी दुख हुआ और लगा कि मुझे उसके पास जाकर सारा मामला सुलझा लेना चाहिए। उसे जाकर बुलाना चाहिए और वो जो चाहती है, उसके लिए लिख देना चाहिए।
मैं उसके कमरे में गया। वह घुटनों पर झुकी हाथों में सिर पकड़े बैठी थी। 'सुनिये’

अब देखिए मैं जब भी अपनी कहानी के इस बिंदु पर आता हूं तो हमेशा मेरी बहुत अजीब हालत हो जाती है और मैं बहुत मूर्खतापूर्ण महसूस करने लगता हूं। ‘मेरी बात सुनेंगी आप?’ मैंने कहा।
वह उठी, आंखें चमकाती हुईं मुझ तक आई और मेरे कंधों पर हाथ टिकाते हुए अपनी खरखरी आवाज में फुसफुसाती हुई बोली, 'देखिये, बात यह है कि न तो सच में कोई बोल्स है और न ही टेरेसा। लेकिन इससे आपको क्या ? आपको तो एक कागज पर कुछ लिखने में ही तकलीफ होती है। कोई बोल्स नहीं और न ही टेरेसा, सिर्फ  मैं हूं। और आपके पास ये जो दोनों हैं, इनसे आप जो कुछ अच्‍छा चाहें, कर सकते हैं।‘ 
'माफ कीजिए।‘ मैंने कहा, 'यह सब क्या है? आप कहती हैं कोई बोल्स नहीं है?’ 
'हां।‘
'और कोई टेरेसा भी नहीं?’ 
'हां, कोई और टैरेसा नही, बस मैं ही टेरेसा हूं।‘ 
मैं कुछ भी नहीं समझ पाया। मैंने अपनी निगाहें उस पर टिका दीं और सोचने लगा कि दोनों में से पहले कौन आगे बढ़कर कोई हरकत करता है। लेकिन वही पहले मेज तक गई, कुछ तलाश किया और मेरे पास आकर शिकायती मुद्रा में उलाहने के साथ कहने लगी 'अगर आपको बोल्स के नाम चिट्ठी लिखने में तकलीफ हुई तो यह रहा आपका लिखा कागज। दूसरे लोग लिख देंगे मेरे लिए।‘

मैंने देखा उसके हाथ में बोल्‍स के नाम मेरे हाथों लिखा हुआ पत्र था। ओफ्फो...। 
'सुनिए मैडम, आखिर इस सबका क्या मतलब है? आप क्यों दूसरों के पास पत्र लिखवाने के लिए जायेंगी? यह तो पहले ही लिखा हुआ है और आपने इसे अभी तक भेजा भी नहीं?’ 
'कहां भेजती?’ 
'क्यों? मि. बोल्स को।‘ 
‘ऐसा कोई शख्स है ही नहीं।‘
मैं कुछ नहीं समझ पाया। फिर उसने बताना शुरू किया।
'बात यह है कि ऐसा कोई इंसान है ही नहीं।‘ और फिर उसने अपने हाथ कुछ इस तरह फैलाते हुए कहा, जैसे उसे खुद ही यकीन नहीं कि ऐसा कोई इन्‍सान है ही नहीं।  

‘लेकिन मैं चाहती हूं कि वो हो ।... क्या मैं औरों की तरह इंसान नहीं हूं? हां, हां, मैं अच्‍छी तरह जानती हूं कि वह नहीं है कहीं भी... लेकिन किसी को भी ऐसे शख्‍स को चिट्ठी लिखने में  क्या और क्‍यों तकलीफ होती है?’ 
'माफ कीजिए- किसे?’ 
'मि. बोल्स को और किसे?’ 
'लेकिन वह तो है ही नहीं- उसका कोई अस्तित्व नहीं।‘ 
'हे भगवान, क्या फर्क  पड़ता है अगर वह नहीं है। उसका कोई अस्तित्व नहीं, लेकिन हो तो सकता है। मैं उसे लिखती हूं और इससे लगता है कि वो है और टेरेसा, जो मैं हूं, उसे वह जवाब देता है और मैं फिर उसे लिखती हूं।‘ 
और आखिरकार मेरी कुछ समझ में आया। मेरे पास एक ऐसी इंसानी शख्सियत खड़ी थी, जिसे दुनिया में प्यार करने वाला कोई नहीं था और जिसने ख़ुद अपने लिए एक दोस्त ईजाद कर लिया था।
'देखिए, आपने बोल्स के नाम एक चिट्ठी लिखी। मैं इसे किसी के पास ले जाती और वह इसे पढ़कर सुनाता तो मुझे लगता कि बोल्स है। और मैंने आपसे टेरेसा के नाम पत्र लिखने के लिए कहा था, उसे लेकर मैं किसी के पास जाती और उसे सुनते हुए मुझे विश्वास हो जाता कि बोल्स जरुर है और जिन्दगी मेरे लिए थोड़ी सहज-सरल हो जाती।‘ 
‘हे ईश्‍वर, मुझे अपनी शरण में ले लो।‘ उसकी बातें सुनकर मैंने अपने आप से ही कहा।
उस दिन के बाद से मैं नियमित रुप से सप्‍ताह में दो बार उसके लिए चिट्ठियां लिखने लगा। बोल्स के नाम और बोल्स की तरफ से टेरेसा को। वह उन्हें सुनती और रोने लग जाती। काल्पनिक बोल्स के वास्तविक पत्रों से आंसुओं में डूब कर उसने मेरे कपड़ों की मरम्मत का जिम्मा ले लिया। लगभग तीन महीने के इस सिलसिले के बाद उन्होंने उसे जेल भेज दिया। अब तो वह निश्चित तौर पर मर चुकी होगी। 

इतना कहकर मेरे परिचित ने सिगरेट की राख़ झाड़ते हुए अपनी बात समाप्‍त करते हुए कहा।

बहरहाल, इंसान जितनी कड़वी चीजें चख लेता है, जीवन में उसे मीठी चीजें चखने के बाद उनकी उतनी ही भूख बढ़ती जाती है। और हम अपनी नियति में लिपटे हुए लोग इस बात को कभी नहीं समझ सकते।

और फिर तमाम चीजें बेहद मूर्खतापूर्ण और क्रूर नज़र आने लगती हैं। जिन्‍हें हम वंचित वर्ग कहते हैं, वे कौन हैं आखिर... मैं जानना चाहता हूं। वे हैं हमारे जैसे ही एक ही मांस, मज्‍जा और रक्‍त से बने लोग... यह बात हमें युगों से बताई जा रही है। और हम इसे सच में बस सुनते आए हैं... और सिर्फ शैतान ही जानता है कि यह कितना घिनौना सच है?... क्‍या हम मानवतावाद के प्रवचनों से पूरी तरह दूर भाग चले हैं?... लेकिन वास्‍तविकता में हम सब भी बेहद गिरे हुए और पतित लोग हैं। और जितना मैं समझ पाया हूं उसके अनुसार हम आत्‍मकेंद्रीयता और अपनी ही श्रेष्‍ठता के भावबोध के रसातल में पहुंच चुके हैं। लेकिन बहुत हो चुका यह सब... यह सब पर्वतों जितना ही पुराना है और इतना पुराना कि अब तो इसके बारे में बात करने पर भी शर्म महसूस होती है। बहुत-बहुत पुरानी बीमारी है यह सच में...


:: अनुवाद : प्रेमचन्‍द गांधी :: 

यह कहानी राजस्‍थान पत्रिका के 'परिवार' परिशिष्‍ट में बुधवार, 31 जुलाई, 2013 को प्रकाशित हुई है। 

पेंटिंग  रूसी चित्रकार पावेल फिलोनोव 1883-1941 की है। 

Thursday 27 September, 2012

नास्तिकों की भाषा : काव्‍य शृंखला

हिंदुस्‍तान के सबसे बड़े और महानतम नास्तिक अमर शहीद भगत सिंह को समर्पित हैं ये कविताएं। भगत सिंह जो हमें हर समय मनुष्‍य की अपराजेय कर्मशीलता की याद दिलाते रहते हैं। मुझे तो हर मुश्किल में भगत सिंह का रास्‍ता ही दिशा दिखाता है। उसी महान प्रेरक को लाल सलाम कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं। 


एक
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी र्इश्वर का नाम।

दो

बहुधा कम पड़ जाते हैं हमारे तर्क
एक सामान्य आस्थावान व्यकित के सामने
यह हमारी भाषा की लाचारी है


तीन

दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आर्इ है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज

खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं

हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है।

चार

प्रार्थना जैसा कोर्इ शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
र्इजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे 'संघर्ष।

पांच

सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ार्इ हमारी जुबान

विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर

किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम

पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी र्इश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा।

छह
नहीं हमने कभी नहीं कहा कि
मर गया है र्इश्वर

जो जन्मा ही नहीं
उसे मरा हुआ कैसे मान लें हम

हमारी भाषा में नहीं थीं
अंत, पराभव, मृत्यु और पतन की कामनाएं
हमने नहीं की ऐसी घोषणाएं

हमारे पास हमेशा ही रहा
मनुष्य का जयगान

सात
बहुत छोटा है हमारा शब्दकोश
उतनी ही कम है हमारी आबादी
बावजूद इसके हम निराश नहीं होते
आस्तिकों को ही सताती है निराशा
हमारी भाषा में सबसे बड़ा शब्द है उम्मीद
जैसे रेगिस्तान में बारिश।

आठ
हमेशा ही देखा गया हमें
शक की निगाहों से
यूं कहने को निर्भय लोगों को
कहा जाता है वीर और बहादुर
लेकिन हम नहीं नवाजे गए

हमारे लिए
दुनिया ने सिर्फ इतना कहा
जिन्हें न र्इश्वर का भय है
न धर्म की चिंता
उन पर कैसे किया जा सकता है विश्वास
इन पर ऐतबार करने का मतलब है
नरक कुण्ड में जाना
जबकि हमारे यहां नहीं था
नरक जैसा कोर्इ शब्द
हम स्वर्ग को कथा-किंवदंतियों से बाहर लाकर
यथार्थ में रचना चाहते थे
बिना चमत्कार और अंतिम सत्ता के।

नौ

झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोर्इ धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया।

दस

हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही

हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली।

ग्यारह

क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका

सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोर्इ नामलेवा

हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान।

बारह

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत।

तेरह

भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द

इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द।

चौदह

हमें कभी जरूरत नहीं हुर्इ
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद

दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन।

पंद्रह

दुनिया में सबसे सरल है हमारी भाषा
एक निरक्षर भी कर सकता है
इसके पूरे शब्दकोश का अनुवाद
जिंदगी से जुड़ी हो जो जुबान
उसे कहां जरूरत है अनुवाद की

सोलह

मछली को शार्क से
परिंदे को बाज से
हिरण को बाघ से
और इंसान को लालच से
बचाने वाली हमारी भाषा
सृष्टि के अंत तक बची रहेगी।



इस काव्‍य शृंखला के कुछ अंश सबसे पहले 'कथन' त्रैमासिक में प्रकाशित हुए थे। इसके बाद 'समालोचन' पर भी इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए। अब यह पूरी शृंखला यहां प्रस्‍तुत है।

Sunday 5 August, 2012

नमक इश्क का : मोपासां की कहानी


दरख्तों से सरसब्ज पहाड़ी पर पुराने फैशन की एक हवेली थी। ऊंचे और लंबे छायादार पेड़ों की हरियाली उसे घेरे हुए थी। एक विशाल बाग था, जिसके आगे घना जंगल और फिर एक खुला मैदान था। हवेली के सामने की तरफ पत्थर का एक विशालकाय जलकुंड था, जिसमें संगमरमर में तराशी हुई परियां नहा रही थीं। ढलान पर एक के बाद एक कई कुंड थे, जिनमें से पानी की एक धारा अदृश्य फव्वारे की तरह नाचती हुई एक जलप्रपात का आभास देती थी।
इस सामंती आवास में एक नाजुक मिजाजी और नफासत को करीने से सहेजा गया था। शंख और सीपियों से सजी एक गुफा में पुराने जमाने की प्रेमकथाएं सोई हुई थीं। एक तरह से कहें तो पूरी हवेली में पुराने वक्त को सहेजकर रखा गया था। ऐसा लगता था जैसे कोई भी चीज अभी बस बोल ही पड़ेगी। बैठक की दीवारों पर पुरातन शैली की पेंटिंग्स थीं, जिनमें सम्राट लुई-15 के साथ भेड़ें चराते चरवाहे और घने घेरदार लहंगों में सुंदरियों के साथ विग पहने जांबाज आशिक चित्रित किए गए थे। एक लंबी आराम कुर्सी में एक बहुत ही बूढ़ी औरत बैठी थी। अगर वह हिलती-डुलती नहीं तो उसके मृत होने का आभास होता। उसके अनावृत पतले हाथों की चमड़ी बिल्कुल मिस्र की ममियों जैसी लगती थी।
उसकी निगाहें दूर क्षितिज में कुछ खोज रही थीं। ऐसा लगता था जैसे वह बाग में अपनी जवानी के दिन याद कर रही हो। खिड़कियों से हरियाली और फूलों में नहाकर आई हुई खुशबूदार हवा उसके झुर्रियों भरे माथे को छूकर उसे यादों के समंदर में लिए जा रही थी। उसके पास ही सुंदर परदे से ढंकी स्टूल पर एक युवती बैठी थी जिसके बाल हवा में उड़ रहे थे। वह एक कपड़े पर कढ़ाई कर रही थी। उसकी आंखों में कुछ तनाव और माथे पर चिंता की लकीरें दिख रही थीं। लग रहा था वह कढ़ाई तो कर रही है लेकिन उसका दिलो-दिमाग कहीं और खोया हुआ है। बुढिय़ा ने तुरंत ही लड़की को अपनी तरफ देखने के लिए विवश कर दिया।
'बेर्थे, अखबार में से कुछ पढ़कर सुनाओ ना। ताकि मुझे भी तो पता चला कि दुनिया में क्या हो रहा है?'
 लड़की ने अखबार उठाया और तेजी से मुआयना करते हुए कहा, 'इसमें राजनीति की एक बड़ी खबर है, इसे तो छोड़ दूं ना दादी मां?'
'हां बेटी, हां। क्या कहीं कोई प्रेम-प्रसंग की खबर नहीं है? क्या फ्रांस में आशिक मिजाजी और प्यार-मोहब्बत मर चुकी है, जो अब हमारे जमाने जैसी प्रेम-प्रसंगों की चर्चा ही बंद हो गई है?'
लड़की देर तक अखबार के पन्नों के कोने-कोने तलाश करने के बाद बोली, 'यह मिल गई एक खबर। इसका हैडिंग है 'एक प्रेम प्रसंग।'
बुढिय़ा के झुर्रियों भरे चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी, 'हां मुझे यह खबर सुनाओ।'
यह तेजाब फेंकने की एक घटना थी, जिसमें एक स्त्री ने अपने पति की प्रेमिका से बदला लेने के लिए उस पर तेजाब फेंक दिया था। प्रेमिका की आंखें जल गई थीं। अदालत ने उस स्त्री को बाइज्जत बरी कर दिया था और लोगों ने फैसले की तारीफ की थी।
सुनकर दादी मां उत्तेजना में चिल्लाईं, 'यह तो भयानक है बेहद खौफनाक! देखो बेटी, शायद तुम्हें मेरे मतलब की कोई खबर मिले?' 
लड़की ने वापस अखबार को खंगाला तो अपराध के समाचारों में से पढ़कर सुनाने लगी।
'उदास नाटक- दुकान पर काम करने वाली एक लड़की, जो ज्यादा जवान नहीं थी। उसने एक नौजवान के प्यार में डूबकर खुद को समर्पित कर दिया लेकिन प्रेमी बेवफा निकला। लड़की ने बदला लेने के लिए अपने प्रेमी को गोलियों से भून दिया। लड़का जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गया। अदालत ने लड़की को बरी कर दिया और जनता ने फैसले की तारीफ की।'
खबर सुनकर दादी मां को गहरा धक्का लगा और वे कांपते हुए कहने लगीं, 'क्यों आजकल के लोग पागल हो गए हैं? तुम लोग पागल हो! ईश्वर ने जीवन के लिए सबसे बड़ा वरदान इंसान को प्रेम के रूप में दिया है। मनुष्य ने इसमें शिष्टता और रसिकता जोड़ी है। हमारे नीरस क्षणों को आल्हादित करने वाली चीज है प्रेम, जिसे तुम्हारी पीढ़ी के लोग तेजाब और बंदूकों से ऐसे खराब कर रहे हैं, जैसे उम्दा शराब में मिट्टी डाल दी जाए।'
लड़की दादी के क्रोध और झुंझलाहट को नहीं समझ पाई। कहने लगी, 'दादी मां उस औरत ने बिल्कुल सही किया। वह शादीशुदा थी और उसका पति उसे धोखा दे रहा था।'
दादी मां बोलीं, 'पता नहीं ये लोग आजकल की लड़कियों के दिमाग में कैसे-कैसे विचार ठूंस रहे हैं?' 
लड़की ने जवाब दिया, 'लेकिन दादी मां, शादी एक पवित्र बंधन है।'
दादी मां का जन्म पराक्रम और आशिक मिजाजी के दौर में हुआ था। वह अपने दौर में डूबकर दिल से कहने लगी, 'सुनो बेटा, मैंने तीन पीढिय़ां देखी हैं। शादी और प्यार में कोई समानता नहीं है। हम परिवार के लिए शादी करते हैं और शादी को खारिज नहीं कर सकते। अगर समाज एक जंजीर है तो हर परिवार उसकी एक कड़ी है। इन कडिय़ों को जोडऩे के लिए हम वैसी ही चीजें ढूंढते हैं जिनसे यह जंजीर बनी रहे। हम शादी करते हैं तो कई चीजें मिलाते हैं जाति, समाज, धन-दौलत, भविष्य, रुचियां आदि-आदि। दुनिया हमें मजबूर करती है इसलिए हम एक बार शादी करते हैं लेकिन जिंदगी में हम बीसियों बार प्रेम कर सकते हैं क्योंकि कुदरत ने हमें ऐसा ही बनाया है। तुम जानती हो बेटी, शादी एक कानून है और प्यार करना इंसान की फितरत। यह फितरत ही हमें कभी सीधे तो कभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने के लिए मजबूर करती है। दुनिया ने कानून इसलिए बनाए हैं कि इनसे इंसान की मूल प्रवृत्तियों को काबू में किया जा सके। ऐसा करना जरूरी भी था लेकिन हमारी मूल प्रवृत्तियां ज्यादा शक्तिशाली हैं, हमें इनका विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि ये हमें ईश्वर ने दी हैं जबकि कानून इंसान ने बनाए हैं। अगर हम जीवन में प्यार की खुशबू नहीं भरेंगे तो जिंदगी बेकार हो जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे बच्चे की दवा में चीनी मिलाकर देना।'
बेर्थे की आंखें आश्चर्य से खुली रह गईं। वह बड़बड़ाई, 'ओह, दादी मां, हम प्यार सिर्फ एक बार कर सकते हैं।'
दादी मां ने आसमान की ओर अपने कांपते हाथों को ऐसे उठाया जैसे कामदेव का आवाहन कर रही हों। फिर उत्तेजना में कहने लगीं, 'तुम लोग बिल्कुल गुलामों जैसे हो गए हो, बिल्कुल सामान्य। तुम लोगों ने हर काम को भारी-भरकम शब्दों में बांध दिया है और हर जगह कठिन कर्तव्यों के बंधन बांध दिए हैं। तुम लोग समता और शाश्वत लगाव में यकीन रखते हो। तुम्हें यह बताने के लिए कि कइयों ने प्यार में जान कुर्बान की है, अनेक कवियों ने कविताएं लिखी हैं। हमारे जमाने में कविता का मतलब होता था पुरुष को स्त्री से प्रेम करना सिखाना। प्रत्येक स्त्री से प्रेम करना और हम! जब हमें कोई भा जाता था तो हम उसे संदेश पहुंचाती थीं। जब नए प्रेम की उमंग हमारे मन में जागती थी तो हम पिछले प्रेमी से किनारा करने में भी देर नहीं लगाती थीं। हम दोनों से भी प्रेम कर सकती थीं।'
बुढिय़ा एक रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराई। उसकी बूढ़ी-भूरी आंखों में एक ऐसी चमक थी और चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे वह किसी और ही मिट्टी की बनी हो। जैसे कोई शासक हो, सारे नियम और कायदे-कानूनों से ऊपर। लड़की का रंग पीला पड़ गया था। वह बड़बड़ाते हुए बोली, 'इसका मतलब उस जमाने में औरतें मर्यादाहीन आचरण करती थीं?'
दादी मां ने मुस्कुराना बंद किया। ऐसा लगता था जैसे उसके दिल में वाल्‍तेयर की विडंबना और रूसो की दार्शनिकता गहरे समाई हुई हो। 'इसलिए कि हम प्यार करके उसे स्वीकारने की हिम्मत रखती थीं, यहां तक कि गर्व से बताती थीं। मेरी बच्ची अगर उस जमाने में किसी स्त्री का प्रेमी नहीं होता था तो लोग उसका मजाक उड़ाते थे। तुम्हें  लगता है कि तुम्हारा पति जिंदगी भर सिर्फ तुमसे ही प्यार करता रहेगा, यह हो भी सकता है। मैं तुमसे कहती हूं कि शादी समाज के अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है लेकिन यह मनुष्य जाति की मूल प्रवृति नहीं है। कुछ समझीं क्या तुम? जीवन में एकमात्र खूबसूरत चीज है प्रेम और सिर्फ प्रेम। तुम इसे कैसे गलत समझ सकती हो? कैसे खराब कर और कह सकते हो? तुम इसे किसी रस्म-रिवाज या संस्कार की तरह क्यों समझते हो? जैसे कि कोई कपड़ा खरीदकर लाना हो।'
लड़की ने बुढिय़ा के कांपते हाथों को अपने हाथों में थामते हुए कहा, 'चुप करो दादी मां। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूं अब और नहीं... बस करो।'
वह अपने घुटनों के बल झुककर, आंखों में आंसू भरकर प्रार्थना करने लगी कि ईश्वर उसे एक सघन, गहन और अमर प्रेम का आशीर्वाद दे। एक ऐसा प्रेम जो आधुनिक कवियों का स्वप्न है। जबकि दादी मां ने बड़े प्‍यार से उसका माथा चूमा। अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिकों के उस तर्क पर विश्वास और आस्था जताते हुए, जिसने जिंदगी को अपने वक्त में इश्क के नमक से जायकेदार बना दिया था, दादी मां ने कहा, 'सावधान! मेरी प्यारी बच्ची। अगर तुम इन मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास करोगी तो जिंदगी में कभी सुखी नहीं रह पाओगी।'
*कहानी का अनुवाद मेरा है।*

Thursday 5 July, 2012

फिर मिलेंगे बारिश में


जिंदगी की किताब स्त्री पुरुष के एक बाग में मिलने से शुरू होती है और ईश्वरीय ज्ञान पर खत्म हो जाती है। - ऑस्कर वाइल्ड

जी हां, बहुत से लोगों की जिंदगी की किताब भी उसी अध्याय से शुरू होती है जिसमें स्त्री का प्रवेश होता है। मेरे साथ भी यही हुआ। वह मेरी जिंदगी में तब आई, जब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था। सच में अगर ठीक से विचार कर कहूं तो वह मेरी कल्पनाओं जैसी तो कहीं से भी नहीं थी। बल्कि आज के लिहाज से कहूं तो उसके सिन्दूरी गाल सच्‍चाई से कोसों दूर के लगते थे यानी कुल जमा में वह अप्रतिम सौन्दर्य की धनी थी। मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करता था और गंभीरतापूर्वक कानूनी तौर पर उससे शादी करने के बारे में सोचने लगा था। किस्मत से उसने पड़ौस के एक कसाई के कारण मुझे छोड़ दिया। उस वक्त मुझे बहुत तकलीफ हुई जिसने मुझे स्त्री जाति के प्रति शर्मीला बना दिया। उन दिनों में तंगहाली में जी रहा था। गरीब के दुख को कौन समझता है। यदा-कदा मिलने वाली स्त्रियां भी मुझे हिकारत से देखकर झिड़क देती थीं। सच तो यह है कि मैं दूसरी तरह का अमीर था। मेरी रुचियां बहुत सामान्य थीं और किसी से मेरे संबंध खराब नहीं थे। कुछ समय बाद स्त्रियां मुझमें रुचि दिखाने लगीं। मेरा खयाल है कि जब स्त्रियों का भरपूर सान्निध्‍य मिले तो आपको उस नकली पूंजी से मुक्ति पाने में बहुत सहूलियत होती है, जैसे मैं समझता रहा कि मेरे पास उसकी चाहत की पूंजी थी। मेरे आसपास जो महिलाएं थीं, उन्‍हें मेरी सादगी में कुछ विशेष लगने लगा, जबकि पहले वे सादगी को बेहूदगी समझती थीं। मेरे दोस्‍त हार्डिंग ने बताया कि मेरे बारे में उसकी बहन ने ऐसा ही कुछ कहा था। उसकी बहन बहुत तेज-तर्रार चालाक लड़की थी। ख़ैर, घर में इकलौती संतान होने के कारण मुझे स्त्री को उस रूप में देखने का मौका नहीं मिला जैसा भरे-पूरे घर में होता है। स्त्रियों की सामान्‍य चीजें भी मेरे लिए बहुत पवित्र हुआ करती थीं। इसलिए मैं किताबों में डूब गया, जहां नायिका के रूप में स्त्री होती थी। मेरा खयाल था कि औरतों के बारे में मेरी युवकोचित जिज्ञासाएं उन किताबों से ही शांत होंगी और उनके बीच गहरे उतरने से पहले मुझे उनके बारे में ठीक से जाने लेना चाहिए। कह नहीं सकता कि इससे मुझे कितना फायदा हुआ, बस इतना जानता हूं कि स्‍त्री जाति के बारे में इतनी विभिन्‍न प्रकार की जानकारियां हासिल हुईं कि जैसे मैं सालमन मछलियों की एक पूरी प्रजाति के बारे में जान गया होउं। 

मेरे दोस्‍त स्मिथ ने मुझे बताया कि सालमन मछली चार तरह की होती हैं, बाकी सब उसकी विविध उपजातियां और किस्‍में होती हैं। इसी तरह कुछ लेखक मित्रों ने बताया कि स्त्रियों में बस अच्‍छी और बुरी दो ही तरह की महिलाएं होती हैं। लेकिन मेरे जैसे सत्‍यान्‍वेषी के लिए तमाम जानकारियां पहेलियों जैसी थीं, क्‍योंकि वहां कई किस्‍मों का मिश्रण मिलता था मुझे। इसलिए एक दिन मैंने किताबें छोड़ दीं और वैज्ञानिक शोधकर्ता की तरह स्‍त्री जाति के अन्‍वेषण के लिए अपनी ही राह पर चल निकला। मेरे लिहाज से फ्रेंच, जर्मन, स्‍पेनिश और घरेलू ब्रिटिश तो महिलाओं की चार मूल प्रजातियां थी हीं। मैंने सबसे युवा से लेकर तीन बार की तलाकशुदा और विधवा सबका ठीक से अध्‍ययन किया। मैंने उनके बारे में जितना जाना, वही मुझे हमेशा कम लगता था। लेकिन लगता है कि वे मुझे समझ जाती थीं। उन्‍होंने मुझे सीरियसली लेने से ही जैसे मना कर दिया था। इसलिए मैंने भी एक दिन ये सब छोड़ दिया और बंदूक उठाकर शिकार करने निकल गया। मैंने धरती पर कोई जगह नहीं छोड़ी, हर उस जंगल में गया, जहां शायद ही कोई अंग्रेज कभी गया हो। इस दुनिया में आवारा घूमने से बेहतर कोई जिंदगी नहीं और कुदरत को पढ़ने से बड़ी कोई किताब नहीं है।

ख़ैर, बारह बरस तक मेरी भटकती आत्मा मुझे दुनिया भर में घुमाती रही। मैंने हर जगह शिकार किया, मछली की असंख्‍य किस्‍में खोजीं और पकड़ीं। दुनिया के हसीनतर नज़ारों का आनंद लिया। लेकिन औरत की छाया से भी मुझे शर्म आती थी। पिछले साल मैं जिस फर्म के लिए काम कर रहा था, उसने केन्ट के नजदीक एक सराय में मुझे कुछ दिन के लिए रुकने को कहा। वहां मछली की एक नई प्रजाति का पता लगाना था। मैंने सराय का सालभर का किराया चुकाया और काम में जुट गया। 

मैं जिस मेज पर लिख रहा हूं, वहां एक दस्‍ताना रखा है। इसकी देह भूरे रंग की है। इसके चारों ओर चांदी जैसी सफेद धारियां हैं और गहरे भूरे रंग का रेशमी लैस है, जिससे बांधा जा सके। इससे एक प्‍यारी सी खुश्‍बू आ रही है जो शायद कीट-पतंगों को दूर रखने के लिए है। इसके साथ ही मेज पर और भी सामान रखा है। मैं आश्‍वस्‍त हूं कि यह सब इस सराय की मालकिन का तो नहीं ही है। मुझे पता नहीं क्‍यों लगता है कि कुछ होने वाला है। ऐसा मेरे साथ कई बार होता है, अचानक कोई अप्रत्‍याशित खतरा भांप कर या कि किसी और कारण से। मुझे लगता है किसी ने मुझे पीछे से देखा है और हल्‍की पदचाप सीढि़यां चढ़कर ऊपर जाती सुनाई देती हैं। मैं मेज पर दस्‍ताने के साथ रखी कैंची, धागे, लैस, रिबन, सुई आदि चीजों को छूने से अपने हाथ रोक लेता हूं।

यहां चारों ओर बहुत ही खूबसूरत नज़ारे हैं, बिल्‍कुल मन मोह लेने वाले। सराय के नजदीक ही नदी है और यहां से नदी का खूबसूरत दृश्य दिखता है। प्राकृतिक दृश्यावली, खेलते बच्चे, काम करते मजदूर और यहां के एकांत से मुझे फिर लगता है कि कुछ होने वाला है। शाम को खाने के बाद मैं नदी पर गया। बहुत ही सुहानी शाम। चांदी सी चमक लिए भूरी मटमैली संध्‍या। आसमान पर पीले-सुनहरी रंगों के जैसे आखिरी करतब नाच रहे हों। हल्की बारिश हुई थी, इसलिए हवा में सौंधी-सौंधी गंध फैली थी। मैं बचपन की ऐसी ही यादों में खो गया। बारिश के बाद कितना स्‍वर्गिक हो जाता है धरती का रूप। पागल कर देने वाली मिट्टी की महक। धुले-धुले पौधे और दरख्‍त। चमचमाती पत्तियां। हवा के संग नाचती हुई कुदरत जैसे इंसान को भी नचाने वाली हो। मैंने सड़क से अलग रास्ता लिया और धारा की तरफ चलने लगा। वाह! मुझसे पहले ही यहां कोई मौजूद है? वह आकृति एक झाड़ी के पीछे है, लेकिन मैं उसे खूबसूरती से पानी में कांटा डालते देख रहा हूं। मैं तेज चलता हूं और उसके नजदीक जाता हूं। अचानक मेरे कानों में सुनाई पड़ती है 'श्श्श शÓ की आवाज और मैं चीख पड़ता हूं। 'हेÓ सलेटी कपड़ों में एक स्त्री कांटा-वंशी पकड़े मुझ तक आती है। माफ कीजिए, लेकिन इस तरह मेरे पीछे आना बहुत भी मूर्खतापूर्ण हरकत थी आपकी। वह खुशनुमा शाम जैसी आवाज में बोली। मैंने अपना तर्क दिया और उसने अपना। उसने कैंची मांगी, मैंने चाकू सौंप दिया। चाकू देते हुए मुझे उसके हाथ देखकर लगा मैं एक सुखद स्पर्श के अहसास से वंचित रह गया हूं। किसी बात पर हम दोनों हंस पड़े। मैंने देखा उसका मस्तक बिल्कुल दूधिया रंग का था। सलेटी कैप के नीचे सलेटी आंखें। मुंह ऐसा जिसे एक पुरुष जिंदगी भर चूमना चाहे। बच्चों जैसा कोमल चेहरा, नुकीली ठुड्डी यानी धूसर प्रकाश में भी बहुत ही खूबसूरत चेहरा। हल्की-फुल्की बातचीत करते हुए वापस चल पड़े। मैंने खूबसूरत मछलियों से भरी उसकी डलिया थाम ली। उसका सामीप्य एक सुखद अहसास दे रहा था। हवा में तैरती फूलों की खुश्बू उसकी देहगंध से मिलकर अभूतपूर्व खुशी जगा रही थी।
जब उसके कदम सराय के बगीचे की ओर मुड़े तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। फिर लगा कि अरे यह तो वही है। मेरे हाथों से डलिया लेकर वह रसोई में चली गई। ... मैं बैठक में उसी के ख्यालों में गुम हूं और उसकी पदचाप सुनने के लिए कान लगाए खिड़की के सहारे खड़ा हूं। उसके आते ही मैं सब कुछ भूल जाता हूं। उसके हाथ गजब के सुन्दर हैं। इन्हें देखकर मुझे आर्किड के फूल याद आते हैं। वह बातचीत शुरू करती है और मैं उसकी आंखों की चमक में खो जाता हूं।
आप जानते हैं? जिप्सियों की मान्यता है कि रिबन और स्त्री को चांदनी रात या शमा की रोशनी में देखकर फैसला नहीं करना चाहिए।वह उठ खड़ी होती है और मैं उसके हाथ देखना चाहता हूं। वह सिर्फ किताब और टोकरी उठाकर हल्के से सिर झुकाते हुए 'गुडनाइटकहती है। मैं उसकी खाली कुर्सी के पास खड़ा होकर अपना हाथ वहां रख देता हूं, जहां उसका सिर टिका हुआ था। अगर वह यहां होती तो कैसी दिखती।
अगली सुबह मैं हर्ष और उन्माद में देर से उठा। तैयार होते वक्त दिल ने हल्की सीटियां बजाई। नीचे आकर देखा तो मालकिन नाश्ते की मेज साफ कर रही थी। मैं निराश था। मैंने भविष्य में जल्दी उठने की ठानी। उसके बारे में पूछना अच्छा नहीं लगा और यह भी कि इससे कहीं बुरा मान गई तो। शाम मैंने नदी पर गुजारी।  कल वह मुझे जिस जगह मिली थी, वहां बैठकर मैनें पाइप पिया। मैं आंखें बंद करता तो धुएं में उसका चेहरा नजर आता। थोड़ी देर बाद मैंने सोचा, शायद वह चली गई है। यह ख्याल आते ही मुझे कंपकंपी होने लगी। 
मैंने देखा खिड़की में रोशनी है। वह खिड़की पर झुकी है। मैंने हल्का सा खंखारा। वह तेजी से मुड़ी और हल्के से सिर झुकाकर मुस्कुराई। मेज पर दस्ताने, फीते और बहुत से कागज फैले पड़े थे। मुझे डर लगा, वह जा रही है। मैंने कहा, प्लीज, मुझे अपने से दूर मत कीजिए। अभी कितना सा तो वक्त बीता है? 
कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा। उसकी आवाज में आंसू तैर रहे थे। मैं कस्बे की तरफ गई थी। कितनी गर्मी और धूल थी। मैं बुरी तरह थक गई हूं। नौकरानी ने लैम्प के साथ ट्रे में नींबू पानी लाकर रख दिया। मैंने उसके लिए नीबूं पानी बनाया। 
खैर! दस दिन गुजर गए। हम कभी खाने पर तो कभी नाश्ते पर मिलते। साथ बैठ मछलियां पकड़ते या बगीचे में बैठकर बातें करते। उसमें एक बच्चे और औरत का गजब का मिश्रण है। वह कोई पत्र आने पर या कस्बे की तरफ जाती हुई एक लड़की जैसी दिखती है और कस्बे से लौटते हुए पैंतीस साल की औरत। 
रसोई के पास से गुजरते हुए मालकिन ने कहा- मुझे दुख है तुम उसे खो दोगे! क्या मतलब? उसके बिना तो मैं जिंदगी की, भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकता और मुझे तो यह भी पता नहीं कि वह आजाद है या नहीं। ...शाम को मैंने उसे बगीचे में देखा तो उसके पीछे चल दिया। हम नदी किनारे साथ बैठे। उसके बाएं हाथ में दस्ताना नहीं है और वह घास पर उसे रखे बैठी है।
आपको बुरा तो नहीं लगेगा अगर मैं कोई खास सवाल पूछूं? मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा, नहीं। मैंने उसका नंगा हाथ पकड़कर उसकी अंगूठी छूते हुए पूछा, क्या यह अंगूठी आपको किसी से बांधे हुए है? उसकी आवाज कांप रही थी, कानूनी रूप से तो किसी से नहीं। लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं? मैं खुद कुछ बताना चाहती थी। चलिए चलते हैं। खाने के बाद बैठक में मिलते हैं।
आप काफी समय से बाहर हैं और शायद अखबार नहीं पढ़ते हैं। मुझे नहीं पता आपने क्यों पूछा कि मैं आजाद हूं या नहीं। मैं कोई खूबसूरत औरत नहीं हूं। लेकिन कुछ है मेरे भीतर जो पुरुषों को लुभाता है। आज आपकी आंखों में जो देखा वह पहले भी बहुतों में देखा है मैंने। आज (सुबकते हुए) मैं कह सकती हूं कि मैं आजाद हूं। कल नहीं कह सकती थी। कल मेरे पति केस जीत गए। उन्होंने मुझे तलाक दे दिया। 
मुझे उस अतीत से कोई लेना-देना नहीं। मैं जिस दिन से आपसे मिला वहीं से मैं आपको जानते हुए पूछता हूं कि आप मुझसे शादी करेंगी?
सुनिए मुझे कुछ कहना है। मैंने मुकदमा लड़े बिना हार मान ली। मेरे पति ने चालाकी और धूर्तता से केस जीता। अखबारों ने मुझे व्यभिचारिणी कहा। पिछले सप्ताह एक अखबार में मेरा रेखाचित्र छपा। कितना अजीब है आप अपनी ही तस्वीर वाला अखबार खरीद रहे हैं। फिर भी जो कुछ हुआ उससे मैं खुश हूं। मैं बहुत अकेली पड़ गई हूं और आपका मेरी तरफ ध्यान देना मुझे अच्छा लग रहा है। लेकिन मैं आपसे पे्रम नहीं करती। आपको बहुत इंतजार करना पड़ेगा। ... मुझे पहले तो यह सीखना होगा मैं फिर से एक आजाद स्त्री हूं।  क्या आप मेरी इस वक्त की भावनाओं को समझ सकते हैं। 
मैंने इंकार में सिर हिलाया।
अगली बार हम दोनों के इरादे मजबूत होंगे। कहते हुए उसने मेरे होठों पर उंगली रख दी। आपके पास सोचने के लिए एक साल है। आप तब भी आज की बात ही कहेंगे तो मैं जवाब दूंगी। मुझे ढूंढऩा मत। जिंदा रही तो आऊंगी। मर गई तो खबर हो जाएगी।

 
मैंने हल्के से उसका हाथ चूमते हुए कहा- जैसी आपकी मर्जी। मैं यहीं मिलूंगा। दस बजे तक हम ऐसे ही बैठे रहे। फिर वह चली गई। ... अगले दिन नौकरानी ने आकर उसका दिया एक लिफाफा थमाया। इसमें एक सफेद दस्ताना था। इसलिए मैं इसे हर जगह साथ लिए रहता हूं। एक हफ्ते से ज्यादा सराय नहीं छोड़ता। मैं सपनों में उसको आता हुआ देख रहा हूं। वह पहले की तरह लम्बी घास को चीरते हुए आएगी। बारिश में चमकती चांदी जैसी पानी की बूंदों की तरह नाचती हुई आएगी। महकती धरती की सौंधी गंध लिये आएगी। उसकी सलेटी आंखों में चमक होगी और वह इस सलेटी दस्ताने के बदले वह चमक मुझे दे देगी। 
मूल कहानी जॉर्ज इगर्टन की है। पुनर्कथन प्रेम चंद गांधी। यह कहानी पत्रिका समूह के 'परिवार' परिशिष्‍ट में बुधवार, 04 जुलाई, 2012 को प्रकाशित हुई थी।