काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि किसी तरह से ज़र्दा-गुटखा खाने कि लत छूट जाए। लेकिन कोई रास्ता नही दिख रहा था। आखिरकार एक दिन ख़बर मिली कि हमारे सहकर्मी जैन साहेब सेवा निवृति के कुछ महीने बाद ही कैंसर हॉस्पिटल पहुँच गए। जैन साहेब को मैं बीते २२ बरसों से पान-ज़र्दा-गुटखा खाते देखते आया हूँ। उनकी मस्तमौला तबियत पे कैंसर का कहर टूटा, यह ख़बर सुनकर मुझे लगा कि यार अब भी नही तो कब सुधरोगे? फ़िर किसी वज़ह से यानी कि नींद पूरी न होने और हाजमा ख़राब रहने के कारण, एक दिन रक्त चाप बढ़ गया। डॉक्टर ने हमेशा कि तरह दवा दी और कहा कि अब यह ज़र्दा-गुटखा छोड़ दो. मैंने कहा आजकल रजनीगंधा-तुलसी तो बंद कर दिया है, सादा पान मसाला खाता हूँ. डॉक्टर ने सब कुछ छोड़ने कि हिदायत दी. मजाक में डॉक्टर ने कहा कि कवि महाराज, क्या आप उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं, जब कोई ह्रदय रोग विशेषज्ञ या कैंसर का इलाज करने वाला डॉक्टर कहेगा तभी आप यह सब छोडेंगे? दोस्तों बात सीधी दिल को लग गयी, और बन्दे ने तय कर लिया कि किश्तों में सब छोड़ देंगे. शुरू में थोड़ा कष्ट हुआ, लेकिन आखिरकार सब छूट गया.
आजकल बड़ा मजा आ रहा है। मुंह का स्वाद अपने मौलिक स्वरुप में लौट आया है. जायके याद आ रहे हैं. यादों की इस बारिश में पुरानी गज़लें याद आ रही हैं.
मेहँदी हसन साहेब की पुरसुकून आवाज़ में गाई गई ग़ज़ल का शेर तबियत को लेकर याद आ रहा है।
ले गया छीन के कौन तेरा सब्र-ओ-करार
कि तबियत मेरी माइल कभी ऐसी तो ना थी
suparv blog this is really good blog . plz keep it up
ReplyDeletevisit my blog
www.netfandu.blogspot.com