Friday, 23 January 2009

भास्कर की संवेदनशीलता क्या कहिये!

हिन्दी का सबसे बड़ा अखबार होने का यह तो मतलब नहीं होता कि सबसे ज़्यादा संवेदनशील भी हो? भास्कर जब ऐसे दावे करता है तो गुस्सा आता है। परसों रात एक फ़ोन आया कि क्या जयपुर में चल रहे लिट्रेचर फेस्टिवल में विक्रम सेठ ने मंच पर शराब पी है? मैंने कहा, पता नहीं-मैंने देखा नहीं-और पी ली तो क्या गुनाह हो गया? फ़ोन करने वाले मित्र ने कहा, यह कल के भास्कर का बड़ा मुद्दा बन रहा है। मैंने कहा, बनने दो यार, भास्कर को अख़बार बेचने के लिए ऐसी शोशेबाजी करने की बीमारी है। पिछले बरस भास्कर के एक पत्रकार को आयोजकों ने खाना नहीं खिलाया तो उसने वितंडा मचवा दिया और हम से भी बयान दिलवा दिया। हो सकता है इस बार भास्कर का कोई कंठीधारी फेस्टिवल में पहुँच गया हो, जिसे विक्रम सेठ की किताबों के नाम भी ना पता हों, और वो संस्कृति का वैसे ही स्वयम्भू ठेकेदार बन गया हो, जैसे वैलेंटाइन डे पर शिव सैनिक और बजरंग दली बन जाते हैं। मैंने अपने अति-उत्साही मित्र को शांत रहने के लिए कहा, और सलाह दी कि गुस्सा कम करने के लिए दो पैग लगा लो यार। मैं भी यही कर रहा हूँ।
सुबह के भास्कर में फ्रंट पेज पर विक्रम सेठ की हाथ में रेड वाइन की बोतल थामे फोटो थी और शुद्धता-शुचिता वादी लेखकों के गुस्साए हुए बयानों से भरे दो पेज। मेरी पत्नी ने कहा, यह क्या बकवास है? ज़्यादातर लेखक-पत्रकार तो शराब पीते ही हैं, इसमें इतना ऊधम मचाने की क्या बात है? उसने कहा, राजस्थान की परम्परा तो सदियों से पीने-पिलाने की रही है, 'भर ल्या ऐ कल्हाली दारू दाखां री...पधारो म्हारे देस' । फ़िर फोन पर फोन आने लगे, फोनिक बहस में मैंने कहा, दुनिया के महानतम लेखकों में से ऐसे पाँच लेखकों के नाम बता दीजिये, जिन्होंने शराब नहीं पी हो।
लेकिन भास्कर में कुछ कमाल ऐसे होते हैं कि आपको या तो मज़ा आ जाता है या, रोना आता है। तो साहब, इस बार कमाल यह हुआ कि दम्भी-बड़बोले सम्पादक कल्पेश याग्निक, जिन्हें मुख्य पृष्ठ पर विशेष सम्पादकीय लिखने की बीमारी है, ने लेखक की संवेदनशीलता को लेकर फ़िर एक विशेष सम्पादकीय पेल डाला। इस बार उन्होंने मेयो कोलेज की एक छात्रा की मानसिक उथल-पुथल की कल्पना कर लिखा, 'वह मेयो कोलेज से सिर्फ़ अपने सपनों के लेखक को देखने आई थी। लेकिन बाद में उसकी घबराहट देखने लायक थी। उसने मासूमियत से पूछा: क्या विक्रम सेठ ऐसे हैं?' अब इन्हें कौन बताये कि मेयो में पढने वाले विद्यार्थी करोड़पति घरों के होते हैं, जिनके लिए ऐसे वाकये बेहद सामान्य होते हैं। और अगर संवेदना कि बात करें तो भैये, भास्कर की संवेदनशीलता का तो आलम यह है कि यहाँ, यानी भास्कर में काम करने वाले साहित्यकारों को भी बड़ी बे-इज्ज़ती के साथ बाहर का रास्ता दिखाया गया है। विश्वास न हो तो भाई राम कुमार सिंह का ब्लॉग पढ़ लीजिये, लिंक इसी पोस्ट पर मिल जायेगा। और लेखकों से मुफ्त में विमर्श करवाने वाला भास्कर, किस संवेदनशीलता की बात करता है, जब वो लवलीन जैसी महान लेखिका की मौत की ख़बर भी छापने लायक नहीं समझता, श्रद्धांजलि देना तो बहुत दूर की बात है। क्या लवलीन की मौत की ख़बर भी इसलिए नहीं छपी कि वो सिगरेट और शराब पीती थी? वैसे भास्कर के एक पूर्व-कर्मचारी के मुताबिक, भास्कर में सम्पादकों की कोई मीटिंग बिना शराब के नहीं होती। और भास्कर कानक्लेव में तो कहते हैं, नदियाँ बहती हैं।
बहरहाल, नैतिकता, शुचिता, शुद्धता और आदर्श की बात करने वाले लेखकों से भी सवाल करना चाहता हूँ कि यूरोप में पुनर्जागरण लेखक, चिंतकों के बल पर ही तो आया था। कभी वक्त मिले तो मोपासां को पढ़ लेना, नैतिकता के सारे सवाल हल हो जायेंगे। लेखक ख़ुद नए आदर्श बनाता है और वक्त के साथ उन्हें स्वीकार भी किया जाता है। दो कोडी के अनपढ़, बद-दिमाग पत्रकार उसकी मर्यादा तय नहीं कर सकते। क्या तोल्स्तोय को इसलिए खारिज कर दिया जाए कि उन्होंने अपनी नौकरानी से अवैध सम्बन्ध बनाए और एक औलाद भी पैदा कर दी। मुंशी प्रेमचंद के बारे में गोयनका आज तक ऐसी बकवास करते हैं, लेकिन प्रेमचंद की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई।
मुझे उम्मीद थी कि इस ख़ास ख़बर और सम्पादकीय का ज़बरदस्त असर होगा, भास्कर अपने जिला दफ्तरों में आदर्शवादी लेखकों को बुलाएगा और इस कथित सांस्कृतिक अपमान को लेकर आग उगलते बयान छपेंगे, कई तुक्कड़ कवि कवितायें लिखेंगे, जिन्हें शान से प्रकाशित किया जायेगा। लेकिन ऐसा नही हुआ, संघी पत्रकार तरुण विजय से विशेष लेख लिखवाया गया, अब वो तो संस्कृति की रक्षा के पुराने सिपाही हैं, सो उन्हें तो यही लिखना था। मैं पूछना चाहता हूँ तरुण विजय से कि जब अटल बिहारी वाजपेयी 'सदा-ऐ-सरहद' लेकर लाहौर गए थे, तो पाक-सीमा में उनका स्वागत पूरे सैन्य सम्मान से हुआ था, और पूरे देश ने टीवी पर देखा था, वाजपेयी जी के हाथ में शैम्पेन या बीयर का बड़ा सा ग्लास था। तब भारतीय संस्कृति क्या आराम करने चली गई थी भाई साहब?
कल शाम प्रख्यात पत्रकार तरुण तेजपाल ने भीड़ भरे लॉन में अपनी एक महिला मित्र का लिप-लोंक चुम्बन लिया, उस दृश्य को कैमरे में क़ैद करने के लिए कोई प्रेस फोटोग्राफर नहीं था। अब कल्पेश याग्निक, तरुण विजय और तमाम आदर्शवादी लोग क्या तरुण तेजपाल से भी इस बारे में सवाल करेंगे?

1 comment:

  1. अच्छा लेख है ....आपका और आपके ब्लॉग का स्वागत है ...लिखते रहें .....

    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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