Thursday, 29 January 2009

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: सबको सबक सिखाता उत्सव

पिछले चार साल से जयपुर में चला आ रहा ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ एशिया में जापान के बाद संभवतः सबसे बड़ा साहित्यिक उत्सव है। इस उत्सव की सबसे अहम बात यह है कि यह लगभग पूरी तरह निजी और कार्पोरेट प्रयासों प्रयासों से आयोजित होता है और इसमें दुनिया भर के लेखक और प्रकाशन व्यवसाय से जुड़े लोग शिरकत करते हैं। हर साल इसमें भाग लेने वाले लेखकों, कलाकारों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रारंभ में विभिन्न साहित्यिक हलकों से इस उत्सव की इस बात के लिए आलोचना होती थी कि इसमें सिर्फ अंग्रेजीदां विशिष्टजनों और प्रभुवर्गीय लेखकों का ही वर्चस्व रहता है। किंतु साल दर साल आयोजकों ने अपनी आलोचनाओं से जो कुछ सीखा है, उससे इसकी गुणवत्ता में ही नहीं, प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई है। यही वजह है कि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ, अब इसमें राजस्थानी और उर्दू के साथ हमारी देवभाषा संस्कृत के लेखकों का भी प्रतिनिधित्व होने लगा है और अगर आयोजकों के किये गये वादों पर विश्वासकरें तो अगले साल से भारतीय भाषाई लेखकों के साथ-साथ राजस्थान की समृद्ध समकालीन रचनाशीलता को भी पहले से कहीं अधिक सम्मानजनक प्रतिनिधित्व मिलेगा। दरअसल इस संभावना के पीछे स्थानीय लेखकों की नाराजगी के समानांतर अंतर्राष्ट्रीय लेखकों का भी आग्रह है, जिसमें वे चाहते हैं कि अधिक से अधिक स्थानीय और भारतीय भाषाई लेखकों के साथ उनका रचनात्मक और आत्मीय संवाद कायम हो सके। अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों की भांति अन्य भाषाई लेखकों की भी अनुवाद के माध्यम से दुनिया भर में ख्याति है। इस उत्सव में आने वाले विदेशी लेखक और प्रकाशक जानते हैं कि अभी भी बहुत से ऐसे लेखक-रचनाकार मौजूद हैं, जिनकी रचनात्मकता अंतर्राष्ट्रीय स्तर की है और उसे व्यापक रूप से प्रतिष्ठित किया जा सकता है। विदेशी लेखकों के लिए इस प्रकार का संवाद भारतीय जनमानस को और अधिक नजदीकी से देखने का अवसर प्रदान करेगा।


जयपुर विरासत फाउंडेशन द्वारा आयोजित किये जाने वाले इस साहित्य उत्सव में इस बार पांच दिन में तकरीबन सौ के आसपास कार्यक्रम हुए, जिनमें साहित्य, समाज, प्रकाशन जगत, अनुवाद से लेकर कला, संगीत, धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद जैसे ज्वलंत विषयों पर भी खुलकर चर्चा हुई। हर शाम देश-विदेश के लोकप्रिय और लोक कलाकारों के संगीत कार्यक्रम खास आकर्षण का केंद्र रहे, तो आॅस्कर के लिए नामांकित ‘स्लमडाॅग मिलियनेयर’ का विशेष प्रदर्शन और वह भी इसके लेखक विकास स्वरूप की उपस्थिति में, उत्सव को अलग रंग दे गया। पुस्तक और चित्र प्रदर्शनियों ने माहौल को रचनात्मक रूप से समृद्ध किया। यहां पाठक अपने प्रिय लेखकों की किताबें, उनके हस्ताक्षरों सहित प्राप्त कर सके। इसमें भी खास बात यह रही कि अनेक पाठक अपनी मनपसंद किताबों को प्राप्त करने से सिर्फ इसलिए वंचित रहे कि आनन-फानन में ही किताबें बिक गईं। हमारे ही नगर के एक वरिष्ठ कवि की पुस्तक पहले दिन ही समाप्त हो गई और राजस्थान के लगभग सभी लेखकों की पुस्तकें हाथों-हाथ बिक गईं। इस उत्सव में अगर यह प्रतिबंध हटा दिया जाये कि इसमें भागीदार लेखकों की ही किताबें बिक्री के लिए उपलब्ध होंगी तो पाठकों को अन्य महत्वपूर्ण लेखकों की पुस्तकें भी खरीदने का मौका मिलेगा। इसमें विशेष रूप से भारतीय भाषाओं के लेखकों की पुस्तकों की अलग से प्रदर्षनी होनी चाहिए। आखिरकार हम भारतीय साहित्य और इसके साहित्यकारों के प्रोत्साहन में ही तो इस उत्सव का महत्व देखते हैं । सामान्य तौर पर इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, वजह यह कि हम हिंदी समाज के लोग यह मानकर चलते हैं कि पाठक पढ़ना नहीं चाहता और हिंदी के प्रकाषक तो पाठक और लेखक को दो जुदा दुनिया के लोग मानकर चलते हैं। इसीलिए हिंदी का प्रकाषक सिर्फ सरकारी खरीद और पुस्तकालयों में किताबें खपाने की तरफ ही ध्यान देता है। इस उत्सव से कम से कम हिंदी के प्रकाषकों को यह तो सीखना ही चाहिए कि पाठक और लेखक के बीच आत्मीय संवाद के माध्यम से किताबों को वास्तविक पाठक तक आसानी से पहुंचाया जा सकता है और इस प्रकार एक बड़े बाजार को पाया जा सकता है, तब शायद किसी प्रकाषक को सरकारी खरीद की आस में रिष्वतखोर सरकारी तंत्र की जी हुजूरी नहीं करनी पड़ेगी। अंग्रेजी का अच्छा प्रकाषक सिर्फ और सिर्फ पाठक पर ध्यान देता है, इसीलिए वहां लेखक की पहली किताब भी महत्वपुर्ण हो जाती है, जबकि हमारे यहां दर्जनों किताबें लिखने के बावजूद लेखक को कोई महत्व नहीं मिलता। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल निष्चिित रूप से अभी भी अंग्रेजीदां लोगों के पूर्ण प्रभाव में है। संभवतः यह एक अंतर्राष्टीय मजबूरी है, वैसे अगर आप कोई अखिल भारतीय आयोजन भी करें तो वह भी अंग्रेजी से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन इस किस्म के आयोजनों की खास खूबी यह होती है कि आपको एक साथ देष-दुनिया की कई भाषाएं सुनने को मिलती हैं। जैसे इस बार षक्तिदान कविया ने डिंगल में और के. सच्चिदानंदन ने मलयालम में कविता पाठ किया तो पाठक-श्रोताओं को एक बिल्कुल भिन्न तरह की भाषाओं को आस्वादन करने का मौका मिला। इसी तरह राजस्थानी और बांग्ला बाउल लोक कलाकारों के कार्यक्रम में भाषा के साथ संगीत की लय भी देखते ही बनती थी। विदेषी लेखक यही चाहते हैं, दरअसल भाषिक सौंदर्य का आस्वाद तमाम लेखकों को भाता है। मुझे एक अमेरिकी लेखक ने कहा कि मैं चाहता हूॅं कि यहां भारत की विभिन्न भाषाओं के लेखकों को उनकी मूल भाषा में सुनने का अवसर मिले, हम भले ही उसे आत्मसात न कर पायें, परंतु हम वाणी का सौंदर्य तो पहचान ही सकते हैं, हमारे लिए इसका संक्षिप्त अनुवाद हो जाये तो हम उसे और अच्छे ढंग से समझ सकेंगे। वैसे यह हमारी गलतफहमी है कि विदेषी हिंदी नहीं समझते। दरअसल भारत आने से पहले अधिकांष लेखक हिंदी का संक्षिप्त पाठ्यक्रम सीखकर आते हैं, जिसमें उन्हें सामान्य षिष्टाचार के साथ आम तौर पर काम आने वाली रोजमर्रा की हिंदी सिखाई जाती है। इसीलिए आपको कोई ना कोई विदेषी लेखक इस किस्म के समारोह में हिंदी बोलता दिखाई दे जायेगा।इस किस्म के आयोजनों की सबसे बड़ी कमी यह रहती है कि इनमें आम आदमी की चिंताओं के बजाय उन बातों को ज्यादा महत्व दिया जाता है, जिनसे उच्च और मध्य वर्ग का रिष्ता रहता है। यद्यपि आतंकवाद और धार्मिक कट्टरवाद जैसी चीजें सभी को समान रूप से प्रभावित करती हैं, जिन पर इस बार खुलकर चर्चा हुई, जिनमें भाग लेने वाले लोगों के साथ उपस्थित लोगों के संवाद से पता चला कि सामान्य भारतीय न तो धार्मिक कट्टरपंथ के साथ है और न ही वह उन्हें किसी किस्म से बढ़ावा देना पसंद करता है। फिर भी राजस्थान के मालीराम शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ओ सतासर’ के अंष का पाठ किया तो गरीब किसान जीवन का दर्दनाक पहलू सामने आया और सरवत खान के ‘अंधेरा पग’ से राजपुरोहित समाज की सदियों पुरानी महिला विरोधी परंपराओं का दिल दहला देने वाला पक्ष उजागर हुआ। इस तरह के जमीन से जुड़े लेखकों की अगर अधिक से अधिक भागीदारी हो तो इस अंतर्राष्टीय साहित्य उत्सव में भारतीय जनजीवन का सच्चा लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है।स्थानीय लेखकों के साथ इसमें कुल तीन सौ के करीब लेखक और प्रकाषकों ने भाग लिया। निष्चित रूप से इसमें भारतीय और राजस्थानी भागीदारी कम है, इसमें कम से कम प्रतिदिन दो सत्र भारतीय भाषाई लेखकों के लिए होने चाहिएं। इससे भारत के बहुभाषी, सांस्कृतिक वैविध्य वाले बहुरंगी भारतीय साहित्य की छवि दुनिया भर के लेखक-प्रकाषक जगत के सम्मुख प्रस्तुत होगी। इसी तरह भारत के भी प्रमुख प्रकाषकों को, खास तौर पर हिंदी प्रकाषकों को आमंत्रित किया जाना चाहिए, जिससे वे भी यह सीख सकें कि पाठक और लेखक के बीच की दूरी कम करने से किस प्रकार सबका हित सध सकता है। इस उत्सव से मुझ जैसे लेखक को कम से कम यही सीखने को मिला कि साहित्य की जाजम पर सब बराबर होते हैं, जिसमें कोई विषिष्ट नहीं होता, इसीलिए यू. आर. अनंतमूर्ति से लेकर तरूण तेजपाल तक सब एक लाइन में लगकर चाय लेते हैं और कुर्सी खाली मिलने पर जमीन पर ही बैठ जाते हैं। साहित्यकारों के लिए इस आयोजन से यह भी एक किस्म की सीख ही मिलती है कि गंभीर साहित्यिक आयोजनों की तरह लेखक-पाठक संवाद और रचना पाठ जैसे आयोजनों को भी बढ़ावा देना चाहिए। मीडिया में इस साहित्य उत्सव को खासा महत्व मिला, लेकिन इसमें एक तो बिला वजह के विवाद के कारण और दूसरी वजह सितारा लेखक और फिल्मी-मीडिया हस्तियों का आगमन रही। इस आयोजन में ज्यादातर मीडियाकर्मी लेखक-सितारों के साक्षात्कार ही लेते रहे। मेरे खयाल से अगर वे सत्रों में हुई चर्चा और रचना पाठ को महत्व देते तो अखबारों के आम पाठकों को साहित्यकारों की गंभीर चिंताओं और सरोकारों के बारे में भी जानकारी मिलती। उम्मीद है अगले बरस चीजें और सुधरेंगी और जयपुर का यह विष्व स्तरीय आयोजन और नई बुलंदियों को छूएगा।

( इस पोस्ट में वर्तनी की अशुद्धियाँ, फॉण्ट परिवर्तन के कारण हैं, पाठक-मित्र कृपया क्षमा करेंगे। यह आलेख जयपुर से प्रकाशित 'डेली न्यूज़' अखबार में २८ जनवरी २२०९००९ को प्रकाशित हुआ है। )

1 comment:

  1. to kya rachanasheelta se mulakat ab inke bharose hi hogi? lekhak sangthan ka kam khatam?

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