Sunday 23 May, 2010

फतवा है फरमान नहीं

हाल ही में दारुल उलूम देवबंद से एक फतवा जारी हुआ है, जिसके मुताबिक किसी मुस्लिम महिला का कार्यालयों में पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करना और उसकी कमाई से घर का खर्च चलाना गैर इस्लामिक माना गया है। यह पहली बार नहीं हुआ है, भारत के मुस्लिम संस्थान बरसों से ऐसे फतवे निकालते रहे हैं, जिनका वर्तमान से, आधुनिक विचारशील  दुनिया से कोई सरोकार नहीं होता और ये संस्थान अपने इतिहास के खोल में ही आनंद पाते हैं। गैर इस्लामी लोगों को तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि फतवे का मतलब फरमान या आदेश नहीं होता। ऐसे फतवों पर बाहर की दुनिया हंसती है, इस्लाम के मुताबिक फतवे का मतलब है किसी व्यक्ति विशेष अर्थात धार्मिक विद्वान से किसी धर्मावलंबी द्वारा पूछे गए किसी सवाल के संबंध में कोई राय जाहिर करना। यह राय सिर्फ देने वाले के लिए अनुल्लंघनीय है, बाकी सब लोग इसे मानने या ना मानने के लिए स्वतंत्र हैं, उन पर कोई बंदिश नहीं है, खुद सवाल पूछने वाला भी इसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। इस्लाम की तरह तमाम धर्मों में इस किस्म के धार्मिक आदेश निकलते रहते हैं, जिनकी कोई परवाह नहीं करता। सिर्फ इस्लाम में ही इसके उदय के बाद करीब दस लाख फतवे जारी हो चुके जिनमें से शायद दस फीसद भी नहीं माने गए। धार्मिक आदेश दुनिया में सदियों से निकलते रहे हैं, और अगर इंसान इनके कहे पर चलता तो आज भी बैलगाड़ी युग में होता। यह मनुष्य सभ्यता की विरासत का ही कमाल है कि तमाम धार्मिक प्रपंचों के बावजूद मनुष्य अपने अनुसार जीवन जीता है और धर्म का कोई बंधन उसे ऐसा करने से नहीं रोकता।

दरअसल मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे बंधनों को तोड़ने में आनंद मिलता है, इसे किसी बच्चे की गतिविधियों से सहज समझा जा सकता है, जिसे जो काम नहीं करने के लिए मना किया जाए वह पहले करता है, क्योंकि अवज्ञा का अपना मजा है, इससे आज्ञा देने वाला खीजता है और अवज्ञा करने वाले को इस खीज में आनंद मिलता है। जैसे धर्म ने कहा कि जनेउ धारण करना और उसके नियमों का पालन करना चाहिए, बच्चे के लिए इसका कोई अर्थ नहीं, वह उतार कर रख देता है क्योंकि बार-बार उसे कान पर लपेटना और धोना-साफ रखना उसके लिए फालतू काम हैं। इसलिए आजकल ब्राह्मणों में भी यज्ञोपवीत विवाह से पूर्व ही पहना जाता है और फिर अधिकांश लोग जीवन भर नहीं पहनते।

धार्मिक आदेशों का इतिहास सदियों पुराना है, लगभग हर धर्म में धर्मगुरु लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए अथवा अपने धर्मावलंबियों को सही राह दिखाने के मकसद से समय-समय पर धर्मादेश निकालते रहे हैं, जिनके मानने या ना मानने से सभ्य समाज को बनाने में ऐतिहासिक प्रभाव पड़े हैं। उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में एक समय विदेशयात्रा को अधार्मिक घोषित कर दिया गया, जिससे लोगों ने व्यापार एवं ज्ञानार्जन के लिए बाहर जाना बंद कर दिया। इसका सामाजिक प्रभाव यह पड़ा कि लोग एक ही देश में बंद हो गए, नए आविष्कारी संसाधन आना बंद हो गए, हमारा उत्पादन हमीं उपभोग करने लगे, दुनिया में क्या कुछ चल रहा है, हम जान ही नहीं सके, हमारे विद्यार्थी और विद्वान कूपमंडूक बने रहे। हमारे देश पर लगातार आक्रमण होते रहे और हम सहते रहे। हमें पता ही नहीं चला कि बारूद जैसी किसी चीज का आविष्कार हो चुका है जो हमारी तलवारों के मुकाबले ज्यादा घातक है। बाल्टी से लेकर रोटी तक हमने तब जानी जब हम पर विदेशियों ने आधिपत्य जमा लिया, क्योंकि रोटी और बाल्टी विदेशी ही लेकर आए। सिर्फ एक धार्मिक आदेश किसी कौम का कितना हित-अहित कर सकता है इस एक उदाहरण से आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

दुनिया में सबसे ज्यादा धर्मादेश इस्लाम और ईसाई धर्मों ने निकाले हैं, लेकिन पश्चिमी समाज में धर्म और विज्ञान के संघर्ष में राज्य ने चूंकि विज्ञान का साथ दिया इसलिए वहां बहुत से मामलों में नई सोच को फलने-फूलने का मौका मिला और विकास हुआ। दुनिया के कई देशों में राज्य धार्मिक मामलों में राय-मशविरा देने के लिए धार्मिक मंत्री नियुक्त करते हैं, लेकिन उसकी राय मानना राज्य या जनता के लिए अनिवार्य नहीं होता। ऐसी नियुक्तियां सिर्फ इसलिए की जाती हैं ताकि धर्मसत्ता को यह विश्वास बना रहे कि उनकी राज्य में कोई पूछ है, इसे एक किस्म का तुष्टिकरण भी कह सकते हैं। मध्य पूर्व के बहुत से इस्लामी देशों में फतवा जारी करने से पहले बहस होती है और इस्लामी विद्वान और न्यायविद मिलकर मशविरा करते हैं। फतवे के बाद उपजने वाली तमाम परिस्थितियों और प्रभावों का अध्ययन करने के बाद ही कोई फतवा जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया में एक सीमा तक यह संभावना रहती है कि ऐसा फतवा नहीं जारी किया सकता जिससे धर्मावलंबियों की सामान्य जीवनचर्या और देश की विकास प्रक्रिया में अवरोध पैदा हो। जाहिर है कि हाल ही में जारी किए गए फतवे में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया, इसीलिए इसे लेकर कई किस्म की बातें हो रही हैं।

आम आस्थावान हिंदू भी अपनी दिनचर्या में रोज कई किस्म के फतवों का सामना करते हैं। मसलन, कहीं जाना हो, कोई मुहूर्त निकलवाना हो, चौघड़िया देखना हो, पूजा का समय पूछना हो या किसी विशेष उद्देश्य के लिए कोई बात पूछनी हो तो प्रायः लोग किसी पंडित के पास जाते हैं। यहां पंडित की राय का स्थान वही है जो इस्लाम में फतवे का है, अर्थात पूछने वाला पंडित की राय मानने या ना मानने के लिए स्वतंत्र है। सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय बहुत से आस्थावान हिंदू अन्न-जल ग्रहण नहीं करते, ग्रहण पूरा होने के बाद ही स्नान व पूजा के बाद सामान्य दिनचर्या शुरु करते हैं। इस संबंध में किसी समय कोई फतवा जारी हुआ होगा, जिसे लोग आज तक मानते आ रहे हैं, अखबार तक रोज राहु काल छाप रहे हैं, सूतक का समय प्रकाशित कर रहे हैं। मानने वाले मान रहे हैं और नहीं मानने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। वजह यह कि आधुनिक समय में विज्ञान ने बहुत सी पुरानी धारणाओं को अवैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है और लोग किंचित आधुनिकता और कामकाज की व्यस्तता के चलते पुरातनपंथी विचारों से मुक्त हो रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में अतिआस्थावान और कष्टों में जी रहे लोग अपने संशय दूर करने के लिए धर्मगुरुओं की शरण में जाते हैं और उन्हें धर्मग्रंथों में बताई गई पुरातनपंथी सोच के हिसाब से ऐसे हल या उपाय जानने को मिलते हैं, जिनसे मानवता के विकास का ही मार्ग अवरुद्ध होता है।

धर्म अपने आप में एक पूर्ण सत्ता है। वह राज्य के बाद सबसे बड़ी सत्ता है और इतिहास में तो धर्म राज्य को चलाने वाली सत्ता रही है। धर्म की या कहें कि धार्मिक सत्ता की सदैव यही आकांक्षा रहती है कि दुनिया अगर उसके कहे पर चले तो सही मायने में एक धार्मिक राज्य की स्थापना हो सकेगी। लेकिन मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है कि वह बंधनों से मुक्त होकर नया करने की निरंतर कोषिश करता है। इसके लिए वह धर्मगुरुओं से बहस भी करता है, जैसे डार्विन ने की थी। दुनिया के इतिहास में गैलीलियो और डार्विन अगर धर्मसत्ता से नहीं टकराते तो सोचिए इस दुनिया का क्या स्वरूप होता? इतिहास के हर काल खण्ड में ऐसे दूरदृष्टिवान लोग होते हैं, जो धार्मिक जकड़बंदियों के खिलाफ खड़े होते हैं। लोग गुपचुप ही सही उनका अनुसरण करते हैं और एक समय ऐसा आता है कि जकड़बंदियां स्वतः समाप्त हो जाती हैं और नए विचार सहज स्वाभाविक माने जाने लगते हैं। हालांकि ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है जो कहते हैं कि धर्म अपने मूल में एक हद तक विज्ञान का सहयोगी ही होता है, क्योंकि दोनों की प्रकृति है कि नया कुछ खोजा जाए, जिससे दोनों के मतावलंबियों की संख्या बढ़े। बहरहाल, इस बहस में ना भी पड़ें कि धर्म और विज्ञान कहां तक साथ निभाते हैं, तो भी एक बात तो तय है कि मानवता के इतिहास में इन दोनों के बीच हुए संघर्ष में अधिकांश लोगों ने विज्ञान और वैज्ञानिक विचारों का साथ दिया है, इसीलिए हम यहां तक पहुंचे हैं। धर्मगुरु कुछ भी कहते रहें, मनुष्य अपने हिसाब से सोच विचार कर निर्णय लेता है और आगे बढ़ता रहता है। धर्म और धर्मगुरु अपनी पवित्र किताबों में सुरक्षित रहते हैं, जनता उनका उतना ही सम्मान करती है, जितने के वे हकदार होते हैं।

यह आलेख जयपुर से प्रकाशित ‘डेली न्यूज’ के रविवारीय परिशिष्ट ‘हम लोग’ में 23 मई, 2010 को प्रकाशित हुआ।
Photo Courtsey : twocircles.net

1 comment:

  1. धर्म और विज्ञान कहां तक साथ निभाते हैं, तो भी एक बात तो तय है कि मानवता के इतिहास में इन दोनों के बीच हुए संघर्ष में अधिकांश लोगों ने विज्ञान और वैज्ञानिक विचारों का साथ दिया है, इसीलिए हम यहां तक पहुंचे हैं। धर्मगुरु कुछ भी कहते रहें, मनुष्य अपने हिसाब से सोच विचार कर निर्णय लेता है और आगे बढ़ता रहता है...
    वक़्त के साथ ढल लेने वाले ही ज्यादा देर तक दूर तक चल पाते हैं ...वो मनुष्य हो या धर्म ...!!

    ReplyDelete