श्रेष्ठ विचार और आदर्शों को लेकर चलने वाला एक आंदोलन कैसे दिशाहीनता और दिग्भ्रम का शिकार होकर हास्यास्पद हो जाता है, जनलोकपाल आंदोलन इसका ज्वलंत उदाहरण है। एक गैर राजनीतिक आंदोलन अंततोगत्वा राजनीति की शरण में जा रहा है या कहें कि अन्ना हजारे की साफ सुथरी छवि समय के साथ राजनीति और स्वार्थ के यज्ञ में हवन हो रही है और खुद अन्ना इसे ठीक करने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के मसले पर शुरु हुआ अन्ना आंदोलन अब जिस दिशा में जा रहा है वह किसी भी रूप में गैर-राजनैतिक या कि जनपक्षधर नहीं है, बल्कि एक खास दिशा में भटकता हुआ यह कथित आंदोलन कुछ वर्चस्ववादी समूहों के हाथ में जाकर एक किस्म की फासिस्ट और अराजक परिणति को प्राप्त करने वाला है। जिस तरह अन्ना ने बिल पास ना करने की हालत में कांग्रेस को समर्थन देने से लोगों को मना किया है, वह ना तो गांधीवादी है और ना ही लोकतांत्रिक। गांधी जी ने कभी ऐसी शर्तें नहीं रखीं, जैसी अन्ना रख रहे हैं।
अन्ना हजारे के आंदोलन की हजार कमियां हैं और उनमें सबसे बड़ी कमी यह कि वे जिस देश में आंदोलन चला रहे हैं उसी की सरकार से यह मांग करते हैं कि वह अपने से ऊपर किसी ऐसी व्यवस्था का निर्माण करे, जिसकी चाबी कुछ लोगों के पास हो। इस देश के लोगों ने आजाद होने के बाद तय किया कि वे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था अमल में लाएंगे। अब अगर कुछ लोग उसके बरक्स कोई नई सत्ता खड़ी करना चाहते हैं तो बावजूद उनकी तमाम घोषित ईमानदारियों के यह देखना होगा कि वे असल में इस लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर कैसी व्यवस्था ईजाद करना चाहते हैं। इसके जो भी संकेत मिल रहे हैं वे बहुत खतरनाक हैं और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अधिकांश लोग उन संकेतों को नहीं समझ रहे हैं।
कहने के लिए यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए चलाया जा रहा आंदोलन है, लेकिन किसी एक सवाल या मुद्दे पर किसी राजनैतिक दल को वोट नहीं देने की अपील ही अलोकतांत्रिक है और इससे साफ संकेत मिलते हैं कि मामला देश में भ्रष्टाचार समाप्त करने का नहीं, बल्कि सीधे तौर पर एक नए सांकेतिक ढंग से हमारी राजनीति को संचालित करने का है। अब धीरे-धीरे स्पष्ट होता जा रहा है कि अन्ना हजारे के नाम पर भ्रष्टाचार समाप्त करने की आड़ में कितने किस्म के भ्रष्ट, अलोकतांत्रिक, अराजक, फासिस्ट और इस देश की एकता और अखण्डता को तोड़ देने वाले कुकृत्य सरअंजाम दिए जा रहे हैं। खुद अन्ना ही स्वीकार कर रहे हैं कि केजरीवाल और शांतिभूषण का रवैया ठीक नहीं रहा, जिसकी वजह से आंदोलन लंबा चला। और अब तो वैकल्पिक मीडिया में जो तथ्य सामने आए हैं उनसे पता चलता है कि पूरे आंदोलन का चरित्र ही अलोकतांत्रिक है और कुछ कार्पोरेट घरानों, राजनैतिक स्वार्थों और व्यक्तिगत हितों को साधने के लिए पूरे देश की जनता को गुमराह करने वाला रहा है।
इस देश को चलाने वाली शक्ति इस देश की जनता के पास है और वह अपनी शक्ति हर बार चुनाव में अपने प्रतिनिधियों को सौंप देती है। ये चुने हुए जनप्रतिनिधि ही इस तय कर सकते हैं कि जनता की किस समस्या का समाधान कैसे करना है। अब अगर जनप्रतिनिधि ही भ्रष्ट हों तो ऐसे भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाना भी जनप्रतिनिधियों का ही काम है और इसमें कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। इसलिए जब अन्ना कांग्रेस को वोट नहीं देने की अपील करते हैं तो इसे सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिशोध की भावना कहना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस सत्ता में है और उसने अन्ना टीम का लोकपाल बिल पास नहीं किया, इसलिए उसे वोट नहीं दें। लेकिन गुजरात में मोदी सरकार ने लोकायुक्त नियुक्त नहीं किया तो अन्ना टीम ने भाजपा के बारे में कुछ नहीं कहा, मतलब साफ है कि टीम अन्ना एक खास किस्म की राजनीति कर रही है।
अन्ना और उनके साथी जिस तरह के लोकपाल की व्यवस्था चाहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था में संभव नहीं, इसीलिए संसद ने सर्वसम्मति से लोकपाल गठन के मामले को स्थायी समिति के पास भेज दिया है। अब कानून बनाने की प्रक्रिया रेल का टिकट बनाने जितनी सरल और त्वरित तो है नहीं कि झट से तैयार। इसलिए इसमें जो समय लग रहा है, उसे लेकर इतनी व्यग्रता जो दिखाई जा रही है वह खास राजनीति से प्रेरित है और उसकी दिशा फासीवादी है, लोकतांत्रिक नहीं। इस देश की जनता लोकतंत्र में आस्था रखती है, फासीवाद में नहीं।
(यह आलेख डेली न्यूज, जयपुर में शनिवार 8 अक्टूबर, 2011 को प्रकाशित हुआ।)
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