Monday, 24 October 2011

रोशनी और अंधेरे की कविताएं

ठीक से याद नहीं आता, लेकिन इन कविताओं को लिखे हुए 15 साल से अधिक हो चुके हैं। उस समय वैचारिक परिपक्‍वता नहीं थी, लेकिन जीवन-जगत को एक कवि की दृष्टि से देखने की कोशिश तो चलती ही रहती थी। उन दिनों ठोस गद्य की कविताएं लिखने का भी एक चलन चला था। अमूर्त विषयों पर भी खूब लिखा जाता था। उसी दौर में अंधरे और रोशनी के बारे में ये दो कविताएं लिखी गई थीं। दीपावली के अवसर पर आप सब मित्रों के लिए ये दो कविताएं प्रस्‍तुत हैं।

रोशनी के बारे में

वह जितनी पलकों के बाहर दिखती है उससे कहीं ज्‍यादा भीतर होती है। भीतर देखने की कोशिश प्रारंभ में एक अंधकार में उतरने की कोशिश होती है और शनै:-शनै: एक इंद्रधनुषी आभा में लिपटी दिखायी देती है रोशनी। प्राय: हम अंधकार से डरकर रोशनी से दूर चले जाते हैं। वस्‍तुत: यह डर अंधकार से अधिक भीतर की रोशनी का होता है।

रोशनी के विषय में बात करने पर अंधकार की चर्चा आ ही जाती है। दरअसल रोशनी नाम ही अंधकार की अनुपस्थिति का है। हालांकि अंधकार प्राय: सब जगह और मौकों पर उपस्थित रहता है यहां तक कि रोशनी की उपस्थिति में भी। यह हमारी ही सीमा है कि हम दोनों की उपस्थिति साथ-साथ देख पाते हैं या नहीं।

रोशनी के रंग भी होते हैं और इन रंगों में अक्‍सर काला रंग भी होता है। काली रोशनी में देखना ध्‍यान की शुरुआत है और उसमें विलीन होना मोक्ष की। मोक्ष भी एक प्रकार की रोशनी ही है।

रोशनी के बारे में इतना ही पता है कि वह अंधकार की बेटी है और पृथ्‍वी ही क्‍या ब्रह्मांड से भी पहले जन्‍म चुकी थी। वह गर्भ में पल रहे शिशु की आंख से लेकर दिग-दिगंत तक व्‍याप्‍त रहती है।

शाम जब हम दिया जलाते हैं और रोशनी को नमन करते हैं तो दरअसल हमारा नमन रोशनी से ज्‍यादा अंधकार के प्रति होता है जो हमें रोशनी की ओर ले जाता है।

अंधेरे के बारे में

रोशनी की अनुपस्थिति में काले रंग का पर्याय वह अपने भीतर समो लेता है कायनात के तमाम रंग। एक मां की तरह वह अपने गर्भ में रखता है अपना शिशु 'प्रकाश'। पूरे ब्रह्मांड में पैदल चलता है वह। जब वह दुलराता है हमें अपने कोमल हाथों से हमारी रगों में दौड़ने लगता है उसका शिशु।

काल के तीनों खंडों में व्‍याप्‍त रहता वह हमें मां के गर्भ से लेकर कब्र तक साथ देता है। उसके प्रति हमारी कृतज्ञता सूरज को शीश नवाने से प्रकट होती है।

व्‍यर्थ ही उससे भयभीत रहते हैं हम। दरअसल वह पैदा नहीं करता भय हमारे भीतर पहले से मौजूद रहता है भय।

अमावस और पूर्णिमा दोनों उसी के पर्व हैं। एक दिन वह चांद को धरती से पीठ लगाकर बच्‍चे को दूध पिलाती मां की तरह गोदी में खिलाता है तो दूसरे दिन मेले में कंधों पर बच्‍चे को बिठाए पिता की तरह चांद को लिए धरती के बीचों-बीच खड़ा हो जाता है।

तारों को सुलाने और सूरज को जगाने की ड्यूटी निभाता हुआ वह पृथ्‍वी के दोनों गोलार्द्धों में अपनी हाजिरी देता है।

4 comments:

  1. अमावस और पूर्णिमा दोनों उसी के पर्व हैं। एक दिन वह चांद को धरती से पीठ लगाकर बच्‍चे को दूध पिलाती मां की तरह गोदी में खिलाता है तो दूसरे दिन मेले में कंधों पर बच्‍चे को बिठाए पिता की तरह चांद को लिए धरती के बीचों-बीच खड़ा हो जाता है।
    bade manohaari bhaawon se ot proat milii harek pankti . badhaayii.

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  2. बहुत खूब ..
    .. आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!

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  3. अभिभूत करने वाली दोनो ही कविताएँ... अनुभूतियों से सिरजी इन पंक्तियों की लय में अब तक डूब –उतरा रहा हूँ ...शुभकामनाएँ

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  4. कविता मृत्यु और प्रमाण पत्र ने मन झकझोर कर रख दिया । गहरी अन्तर्दृष्टी के साथ असीम संवेदन की वाहक आपकी इस रचना के लिए साधुवाद । आपके लिए मै यही कहूंगा ---

    '' आदिवासी के दर्द से , सिहर उठे अकुलाय ।
    काव्य जगत मे वही तो , हरिराम कहलाय ।।


    -- विजय सिंह मीणा ,(कवि एवम लेखक)
    उप निदेशक (राजभाषा), नई दिल्ली ।
    मोबाईल 09968814674

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