2005 में अपनी पहली पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची देखने का अवसर मिला। शहर कराची को लेकर कुछ कविताएं लिखी थीं। उनमें से एक कविता यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। सब दोस्तों को ईद की दिली मुबारकबाद के साथ सबकी सलामती की कामनाओं के साथ।
न जाने कितनी दूर तक चली गई है
यह बल्लियों की बैरीकैडिंग
जैसे किसी वीवीआईपी के आने पर
सड़कें बांध दी जाती हैं हद में
आधी रात के बाद
जब पहली बार इधर से गुज़रे तो लगा
बकरे मिमिया रहे हैं
यहां इस विशाल अंधेरे मैदान में
और बकरीद आने ही वाली है
इस मण्डी से कुछ फर्लांग के फासले पर
हाईवे से गुज़रते हुए
कभी नहीं दिखा कोई बकरा
न सुनाई दी उसकी हलाल होती चीख़
एक ख़ामोशी ही बजती थी हवा में
कसाई के छुरे की तरह
एक सुबह मण्डी के पास से गुजरते हुए मालूम हुआ
बकरा मण्डी सिर्फ बकरों की नहीं
यहां भेड़, गाय, भैंस, ऊंट सब बिकते हैं
बुज़ुर्ग मेज़बान ने
बड़े दुख के साथ कहा,
'चारा नहीं है
मवेशी जिबह किये जा रहे हैं और
चाय के लिए पाउडर दूध इस्तेमाल होता है.
मसला यह नहीं कि मवेशी कम हो रहे हैं
मसला यह कि शहर कराची
इंसान और जानवर दोनों की मण्डी है।'
बकरीद का मक़सद है अल्लाह की इबादत और उसके प्रति वफादार और जवाबदेह होना है, न कि सिर्फ 'कुर्बानी ' करके फर्ज़ अदायगी करना । कुरान शरीफ में ईद-उल-अज़हा के उद्देश्य के बारे में कहा गया है ---'अल्लाह के पास कुर्बानी की गई चीज नहीं,कुर्बानी करने वाले इंसान के सच्चे त्याग की भावना ही पहुँचती है । ...और यही इस त्योहार का मूल मक़सद है । क़ुरबान होंने का जज़्बा या तसव्वुर यदि हमारे दिल में पैदा नहीं होता तो समझ लीजिए कि सिर्फ रस्म अदायगी ही हुई है ।..और रस्म अदायगी कभी मक़सद के उसूल की जमानत नहीं होती..!...आपकी यह कविता कुछ गंभीर सवालों को उठा रही है !--- " एक खामोशी ही बजती ,कसाई के छुरे सी " ... ओह !!बेहद मार्मिक और बहुसंदर्भी रचना !!!
ReplyDeleteअपने अन्दर के जानवर की कुर्बानी सच्ची इबादत होगी!
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