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Monday, 23 June 2008

जयपुर की पत्रकारिता में नया चलन

जयपुर शहर की पत्रकारिता में इन दिनों एक नया चलन देखने में आया है। मुख्य धारा के बड़े अखबारों ने शहर की खबरों से साहित्य कला और संस्कृति की खबरों का स्थान बेहद सीमित कर दिया है। शहर में यह हाल सिर्फ़ हिन्दी साहित्य और गंभीर सांस्कृतिक आयोजनों की रिपोर्टिंग में देखा जा सकता है। अंग्रेज़ी वालों के लिए, मुम्बैया, सेलेब्रिटी, कारपोरेट पूँजी से पोषित आयोजनों में इन अखबारों की पत्रकारिता यूँ लगाती है जैसे साहित्य-संस्कृति का सच्चा हाल इन दो कौडी के आयोजनों की तफसीली रिपोर्टिंग से ही सामने आएगा। कितना बुरा लगता है यह देखकर कि अपने ही साथी भाई बन्धु कलमकार कि मौत तक को छापने में इन अखबारों को तकलीफ होती है। आप हिन्दी साहित्य का राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय आयोजन करके देख लें उसकी रिपोर्टिंग ऐसे होगी जैसे गली-मुहल्ले के किसी मन्दिर में होने वाले पौष बड़ों के कार्यक्रम से भी उसका स्तर बहुत छोटा हो। जयपुर के सांस्कृतिक संवाददाता अपने आप को किसी सिद्ध ज्ञानी-कलामनीशी से कम नही समझते हैं। खैर वो बेचारे तो कम वेतन वाले पार्ट टाइम नौसिखिये पत्रकार हैं उन्हें क्यों दोष दें।
असल दोष तो उन लोगों का है जो ऊंचे ओहदों पे बैठे यह तय करते हैं कि अखबार में किस ख़बर को क्या महत्व मिलना चाहिए? शायद उन लोगों की नज़र में धार्मिक आयोजन ही सांस्कृतिक पत्रकारिता का पर्याय है, तभी तो जयपुर के अखबारों में आप धार्मिक खबरों से लिथडा हुआ, एक किस्म की साम्प्रदायिक बदबू से बजबजाता हुआ, अज्ञात कुलशील-अज्ञानी-महिला विरोधी-ढोंगी और प्रपंची साधू संतों के चूतिया किस्म के प्रवचनों से आच्छादित कूडेदान लायक पूरे का पूरा पेज रोजाना पढ़ सकते हैं। एक भेद की बात यह भी है कि अनेक मंदिरों के महंत सांस्कृतिक संवाददाताओं को प्रसाद के नाम पर खबरें छपवाने के लिए मोटे लिफाफे देते हैं, शायद इसलिए भी शहर की सांस्कृतिक पत्रकारिता में यह नया चलन आम हो रहा है। एक शानदार सांस्कृतिक परम्परा की विरासत वाला खूबसूरत शहर अखबारों में संस्कृति के नाम पर अवैज्ञानिक साम्प्रदायिकता की हद तक धार्मिक खबरों से लहूलुहान हो रहा है।
एक वक्त था जब साहित्यकार को पत्रकार का बड़ा भाई कहा जाता था, वो इसलिए कि लेखक भाषा का नवाचार सिखाता है, लेकिन जयपुर शहर के अखबारों ने उन दो भाइयों को हिन्दी सिनेमा के डाइरेक्टर प्रोड्यूसर कि तर्ज़ पर बचपन में ही बिछुड़ा दिया है। पता नहीं इस पटकथा में इन दो भाइयों का मिलन लिखा भी है कि नहीं, कोई नहीं जानता। शहर के कलाकार-कलमकार पत्रकारिता में आए इस नए चलन से दुखी हैं लेकिन क्या किया जाए?
जिस शहर में अख़बार के दफ्तर में सम्पादक अपने पत्रकार को अवज्ञा के कारण मुर्गा बना दे उस शहर की पत्रकारिता में संस्कृति की हालत सहज ही समझी जा सकती है। जिस शहर में अख़बार ख़ुद ही हॉबी क्लासेस चलायें और उसे ही सांस्कृतिक विकास का पैमाना मानें, उस शहर में सांस्कृतिक पत्रकारिता का यह हश्र तो होना ही था। और क्या कहें सिवाय इसके कि "बक रहा हूँ जुनून में क्या-क्या, कुछ न समझे खुदा करे कोई"।