
बेचारे चार्ल्स डार्विन को आज तक गालियाँ पड़ रही हैं की उसने इंसान को बंदरों की औलाद कहा था। आज न्यूयॉर्क या मुंबई, लाहौर में जो कुछ हो रहा है, वो काम कम से कम बन्दर तो नहीं कर सकते, लेकिन इंसानी दुनिया को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बदलने का जो काम डार्विन ने डेढ़ सौ सालों पहले किया उसे याद करने की आज भी ज़रूरत है। मैंने 'डेली न्यूज़' के अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'पोथीखाना' में इस बार डार्विन की किताब का ज़िक्र किया है। पाठक मित्रों के लिया हाज़िर है वही आलेख।
उन्नीसवीं शताब्दी में जिन किताबों ने दुनिया को देखने का नजरिया हमेशा के लिए बदल डाला उनमें चार्ल्स डार्विन की ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीसीज बाइ मीन्स ऑफ़ नेचुरल सलेक्षन, ऑर द प्रिज़र्वेशन ऑफ़ द फेवर्ड रेसेज इन द स्ट्रगल फॉर लाइफ’ के प्रकाशन के डेढ़ सौ वर्ष इसी साल पूरे हो रहे हैं। आज के दिन यानी 5 अप्रेल, 1859 को डार्विन ने इस क्रांतिकारी किताब के पहले तीन अध्याय प्रकाषक को सौंपे थे। इस वर्ष डार्विन के जन्म के भी दो सौ साल पूरे हो रहे हैं। डार्विन की इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि विज्ञान की किताब होते हुए भी यह आम आदमी के लिए आसानी से समझ में आ जाने वाली किताब है। संभवतः यह दुनिया में इस किस्म की एकमात्र किताब है, जिसका विश्व की लगभग समस्त भाषाओं में अनुवाद हुआ और अरबों पाठकों ने पढ़ा। अपने डॉक्टर पिता की छह में से पांचवीं संतान डार्विन को बचपन से ही वनस्पति शास्त्र और जीव विज्ञान में गहरी रूचि थी। डार्विन के आरम्भिक अध्यापकों ने उसकी कोई मदद नहीं कि उल्टे उसे हतोत्साहित ही किया। केंब्रिज विश्वविद्यालय पहुंचने पर ही डार्विन को अच्छे गुरु और सहयोगी मिले। अपनी धुन के पक्के डार्विन ने जब पेले की किताब ‘नेचुरल थियोलोजी’ पढी, तो उसे संदेह हुआ, क्योंकि उस किताब में यह बताया गया था कि जीवों में परिवर्तन ईश्वरीय इच्छा के कारण प्राकृतिक रूप से होता है। इसके बाद डार्विन ने जॉन हर्षेल और अलेक्जेंडर वोन हंबोल्ट को पढ़ा तो उन्हें लगा कि प्रकृति में कुछ रहस्य ऐसे हैं, जिन पर शोध करने से इस बात पर से पर्दा उठ सकता है कि कैसे एक ही प्रकार के प्राणी अलग अलग जगहों पर एक दूसरे से भिन्न दिखाई देते हैं। डार्विन ने इस बाबत स्थानीय और व्यक्तिगत स्तर पर कुछ शोध किये और लेख लिखे। इन लेखों से डार्विन की ख्याति एक युवा शोधकर्ता के रूप में फैलने लगी।

इसके फलस्वरूप एचएमएस बीगल जहाज की दूसरी यात्रा के लिए डार्विन को एक युवा सहयोगी और शोधकर्ता के रूप में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला। पिता इस बात के लिए राजी नहीं थे कि डार्विन इस कठिन समुद्री यात्रा पर वक्त बर्बाद करने के लिए जाए। एक रिश्तेदार ने पिता को मनाया और डार्विन एक ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा में डार्विन ने मुख्य रूप से समुद्री जंतुओं का अध्ययन किया। जब जहाज रुक जाता तो डार्विन उस इलाके के जीव-जंतुओं को अध्ययन करते, उन्हें पकड़ते और अपने साथ जहाज पर ले लेते। किसी स्थान से वे किसी माध्यम से अपने नोट्स और जीव-जंतुओं को केंब्रिज भेज देते। जहाज की यात्रा लगभग पांच साल की थी। इन पांच वर्षों के अध्ययन को डार्विन ने वापस लौटकर लिपिबद्ध किया। 2 अक्टूबर, 1836 को बीगल से लौटने पर डार्विन की शोहरत एक जीवविज्ञानी के रूप में हर तरफ फैल चुकी थी। डार्विन ने अपनी यात्रा को लिपिबद्ध करने का जो क्रम शुरु किया तो हजारों लेख लिख डाले। इन लेखों के कारण विज्ञान और समाज में निरंतर विवाद खड़े होने लगे। चर्च को डार्विन की खोजों के कारण आपत्ति होने लगी। अखबारों में डार्विन को गलत सिद्ध करने के लिए लगातार हमले होने लगे। क्योंकि डार्विन उस बनी बनाई धार्मिक अवधारणा को चुनौती दे रहे थे, जो यह मानकर चलती है कि संसार में परिवर्तन सिर्फ ईश्वरीय इच्छा के कारण होते हैं।लगभग पच्चीस सालों के निरंतर अनुसंधान और लेखन के बाद 1859 में ‘द ओरिजिन ऑफ़ स्पीसीज’ पूर्ण हुई। छपते ही किताब तुरंत बिक गई और हंगामा मच गया। इस किताब का पहले खासा लंबा नाम था, जो 1872 के सातवें संस्करण में संक्षिप्त किया गया। प्रकाशन के तुरंत बाद केंब्रिज विश्वविद्यालय में कुछ धर्मगुरुओं, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और विद्यार्थियों की एक सभा हुई, जिसमें डार्विन पर खूब हमले किये गये और सवालों की बौछार की गई। डार्विन ने अविचलित रहते हुए सबको गौर से सुना और अंत में संक्षिप्त में अपनी बात रखी। डार्विन ने कहा कि कुदरती तौर पर प्रत्येक जीव स्वयं को बचाने और अपना वंश बढ़ाने के प्रयास करता है। काल और परिस्थिति के मुताबिक वह स्वयं को बदलता है, यह बदलाव ही प्राकृतिक चयन का सिद्धांत है, जिससे नए प्राणियों की उत्पत्ति होती है और प्राणिजगत का विकास होता है। डार्विन ने कहा कि आज आप भले ही मेरी बात से सहमत न हों, इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता, लेकिन जो सच है मैं उससे इन्कार नहीं कर सकता, समय के साथ आपको ही नहीं दुनिया को मानना पड़ेगा, क्योंकि इस दुनिया को इसी सिद्धांत के चलते अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा। डार्विन की इस किताब ने ही आगे चलकर विज्ञान में कई नई शाखाओं की शुरुआत की। आधुनिक वनस्पतिशास्त्र, कोशिकीय जीवविज्ञान और जीन विज्ञान जैसे विषय डार्विन की पुस्तक के कारण ही जनमे और आधुनिक विज्ञान का नया स्वरूप विकसित हुआ।