Tuesday, 14 April 2009

दया पवार के 'अछूत' की याद


कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो अपने लेखन से साहित्य की पूरी परंपरा ही बदल डालते हैं। मराठी के महान रचनाकार दगडू मारुति पवार उर्फ दया पवार ऐसे ही लेखक थे। दया पवार की जिंदगी का संघर्ष विश्वसाहित्य के उन महान लेखकों की याद दिलाता है, जिन्होंने विपरीत हालात में भी विचलित हुए बिना ही लेखन और जीवन दोनों स्तर पर निरंतर संघर्ष करते हुए अपना मुकाम बनाया। उनका विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘अछूत’ उनके जीवन और संघर्ष का अनूठा दस्तावेज है, जिसे पढ़ते हुए आपके रोंगटे खड़े हो जायें, क्योंकि एक दलित होने की यातना और उस यातना से गुजरते हुए कदम-कदम पर अदम्य जिजीविषा के साथ आगे बढ़ते जाने की ललक आपको भारतीय क्या विश्वसाहित्य में भी इस रूप में बहुत कम पढ़ने-देखने को मिलेगी। वजह यह भी कि भारतीय जाति व्यवस्था जैसी अमानवीय व्यवस्था, जिसमें मनुष्य को सिर्फ एक जाति में जन्म लेने के कारण अपमान और यंत्रणा जिंदगी भर भोगनी पड़ती है।

‘अछूत’ एक ऐसा आत्मकथात्मक उपन्यास है, जिसमें दया पवार और दगडू मारुति पवार का आपसी संवाद है और इस संवाद में चालीस बरस का लेखा-जोखा है। इन चालीस बरसों के विवरण में आपको महाराष्ट्र के एक गांव से लेकर ठेठ मुंबई तक यानी दया पवार के बचपन से लेकर प्रौढावस्था तक जिये गए त्रासद जीवन की दिल दहला देने वाली कथा पढ़ने को मिलती है। मां और नानी के साथ गांव में बिताए दिनों में सवर्णों की जूठन खाने से लेकर पग-पग पर अपमानित होने की अनंत यातना से गुजरना और आजादी के उस संघर्षषील दौर में डा. अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों का संगठित होना, अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करना और पढ़-लिख कर आगे बढना, अर्थात कुल जमा हर मुष्किल में सामाजिक बदलाव को जारी रखना। एक यंत्रणापूर्ण जीवन में डा. अंबेडकर के विचार और उनका प्रेरक व्यक्तित्व कैसे एक सामान्य लड़के को, जो पढ़ाई में बेहद कमजोर है, बमुष्किल पास हो पाता है, पहले एक सरकारी अधिकारी की नौकरी दिलाते हैं और फिर एक क्रांतिकारी लेखक बनाते हैं। जब बाबासाहेब जिन्हें लेखक ने दादासहेब कहा है, निधन होता है तो उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए दया पवार छुट्टी के लिए आवेदन करते हैं। अर्जी में कारण लिखते हैं, डा. अंबेडकर का निधन। अफसर कहता है कोई निजी कारण लिख दो। दया पवार कहते हैं, ‘साहब, वे हमारे घर के एक सदस्य ही थे। कितनी अंधेरी गुफाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?’ इस जगह आकर किसी भी पाठक की आंखों से आंसू आए बिना नहीं रह सकते, क्योंकि दया पवार की जिस जिंदगी को इससे पहले के पृष्ठों में जिसने पढ़ लिया, वो इसी बिंदु पर आकर दर्द और संवेदना से परिपूरित होता है।

यह उपन्यास पहले मराठी में ‘बलूत’ नाम से छपा, फिर हिंदी में और इसके बाद विष्व की कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। मराठी में भास्कर चंदावरकर ने इस उपन्यास पर ‘अत्याचार’ नाम से फिल्म बनाई, जिसे कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराहा गया। 1978 में इस उपन्यास के प्रकाषन के बाद सवर्णों की ओर से इसकी खूब आलोचना भी की गई, लेकिन इतिहास ने सिद्ध कर दिया कि एक किताब कैसे पूरी परंपरा को बदल डालती है। इस उपन्यास के बाद ही मराठी में आत्मकथात्मक लेखन की शुरूआत हुई और हिंदी साहित्य में कमलेष्वर ने ‘सारिका’ का मराठी दलित लेखन विषेषांक निकालकर हिंदी क्षेत्र में दलित साहित्य का रास्ता खोला। आज के समूचे दलित लेखन की नींव कमोबेष दया पवार के इस उपन्यास पर ही टिकी है। भाषा के स्तर पर देखें तो यह उपन्यास ही आज के समकालीन दलित लेखन की भाषा, भंगिमा और सौंदर्यषास्त्र का मार्गदर्षक रहा है। अमानवीय परिस्थितियों में रहने वालों की भाषा-बानी पहली बार भारतीय साहित्य में दया पवार ही सामने लेकर आए। इस बाबत दया पवार इस साफगोई का श्रेय अपनी मां को देते हैं, जिसने उन्हें यह सीख दी कि अपने जीवन की हर सही गलत बात किसी एक व्यक्ति को जरूर बताकर रखो। दया पवार ने इस उपन्यास को इसी रूप में लिखा है यानी दगडू मारुति को अपनी जीवन कथा बताते हुए। उपन्यास के अंत में दया पवार एक कविता के रूप में अपने जीवन को बयान करते हैं। ‘नस-नस से फूटना चाहती है यातना, ज्यों कोढ़ी की अंगुलयों से पत्ते झरते हों’।

पद्मश्री से सम्मानित दया पवार का जन्म 15 सितंबर, 1935 को हुआ और 20 दिसंबर, 1996 को निधन हुआ। वे एक समर्थ कवि भी थे और उनकी पहली काव्यकृति ‘कोंडवाडा’ खासी चर्चित रही। उन्होंने आलोचनात्मक लेखन भी किया और फिल्में भी लिखीं। जब्बार पटेल निर्देषित फिल्म ‘बाबासाहेब’ उनकी महत्वपूर्ण फिल्म है, जिसमें मराठी के एक और महत्वपूर्ण उपन्यासकार अरुण साधु उनके सहयोगी लेखक थे।

3 comments:

  1. महान रचनाकार दगडू मारुति पवार उर्फ दया पवार से परिचय करवाने का बहुत बहुत धन्‍यवाद।

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  2. is rachnakar ka parichay mere liye naya tha bahut bahut dhanyvad

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  3. दया पवार को पढ़ा है, सचाई के लेखक हैं।

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