मेरे कार्टूनिस्ट दोस्त अभिषेक तिवारी ने आज ऑरकुट पर मुझे कन्नड़ कवि सिद्धालिंगैया की एक शानदार कविता भेजी तो बहुत अच्छा लगा। मुझे महसूस हुआ कि इस कविता को अपने मित्रों और पाठकों के साथ बाँटना चाहिए, इसलिए यह कविता अब आप सब के लिए प्रस्तुत है, सौजन्य से अभिषेक तिवारी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर।
भूख से मरने वाले
पत्थर ढोने वाले
पिटने वाले, पिटते- पिटते गिर पड़ने वाले
हाथ पैर छूने वाले
खेत जोतने वाले
बोने वाले
फसल काटने वाले
पसीना बहाने वाले
घाम में उबलने वाले मेरे लोग
खाली हाथ घर आने वाले उसांस लेकर बैठ जाने वाले
पेट काट कर जीने वाले मेरे लोग
मंजिलों पर मंजिलें खडी करने वाले
बंगले बनाने वाले
नींव के पत्थरों में फंस जाने वाले मेरे लोग
गलियों गलियों फिरने वाले
बिना आवाज वाले
अन्दर ही अन्दर रोने वाले मेरे लोग
हमेशा ब्याज देते रहने वाले
भाषणों की आग में जल कर भस्म हो जाने वाले मेरे लोग
परमात्मा का नाम लेकर पकवान खाने वालों के
जूते-चप्पल सिलने वाले मेरे लोग
सोना निकलने वाले
अनाज देखने को भी नसीब न होने वाले
कपडे बुनने वाले नंगे शरीर घूमने वाले
जैस कहा जाये वैसा ही करने वाले मेरे लोग
हवा पर जीते हैं मेरे लोग
सचमुच बहुत सुंदर रचना है ... प्रेषित करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteबहुत गहरी रचना है, समाज के गहरे अंतर्विरोध को प्रदर्शित करती है।
ReplyDeleteधन्यवाद दोस्त.
ReplyDeleteआज सुबह किताबों की धूल झाड़ते समय
ये किताब से बहार निकल कर मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी.
और मैंने तत्काल इस
कविता को आपका पता दे दिया...
इंदौर में संघर्ष के दिनों में इस कविता से दोस्ती हुई थी.