Monday, 31 January 2011

राजद्रोह और महात्‍मा गांधी का बयान

23 मार्च, 1922 को अदालत में महात्मा गांधी ने यह बयान दिया।

आज मानवाधिकार कार्यकर्ता और चिकित्‍सक डॉ. बिनायक सेन को राजद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया गया है। अंग्रेज सरकार ने महात्‍मा गांधी और हजारों देशभक्‍तों को उसी धारा 124-ए में जेल में डाल दिया था। 23 मार्च, 1922 को महात्‍मा गांधी ने अदालत में राजद्रोह के मामले में जो बयान दिया था, वह यहां प्रस्‍तुत है। इस बयान को आज के संदर्भ में पढ़ना एक नया अनुभव है। कल 30 जनवरी, 2011 को यह बयान मैंने बिनायक सेन के समर्थन में गांधी सर्किल पर आयोजित सभा में सुनाया था। आप भी पढ़ें और विचार करें।

''मैं स्वीकार करता हूं कि संभवतः भारत और इंग्लैंड की जनता को शांत करने के लिए ही मुख्य तौर पर यह मुकदमा चलाया गया है और इसमें मुझे यह विस्तार से बताना चाहिए कि कैसे और क्यों मैं एक निष्ठावान, वफादार और सहयोगी से एक हठी असंतुष्ट और असहयोगी के रूप में तब्दील हो गया हूं। मुझे अदालत को यह भी बताना ही चाहिए कि क्यों मैं भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति लगातार असंतोष पैदा करने का अपराधी सिद्ध किए जाने की मांग करता हूं।

मेरे सार्वजनिक जीवन का आरंभ 1893 में दक्षिण अफ्रीका के खराब वातावरण में हुआ। उस देश में ब्रिटिश सरकार के साथ पहला संपर्क बहुत अच्छा नहीं रहा। मुझे लगा कि एक मनुष्य और एक भारतीय होने के कारण मेरे कोई अधिकार नहीं हैं। सही बात तो यह कि मुझे यह अच्छी तरह पता चल गया कि एक मनुष्य के रूप में मेरे कोई अधिकार इसलिए नहीं हैं कि मैं एक भारतीय हूं।

लेकिन इससे मुझे कोई असमंजस नहीं हुआ। मैंने सोचा कि भारतीयों के साथ यह बर्ताव उस व्यवस्था के फोड़े हैं और उसके मूल में ही यह खामी है। मैंने सरकार का स्वेच्छा से और दिल से सहयोग किया। जब भी मुझे लगा कि इस व्यवस्था में खामी है मैंने खुले तौर पर इसकी आलोचना भी की, लेकिन कभी नहीं चाहा कि इसका पतन हो।

मैं अनचाहे ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ब्रिटिश संबंध के कारण भारत आर्थिक और राजनैतिक रूप से इस कदर असहाय हो गया है जितना इतिहास में कभी नहीं था। किसी भी आक्रमणकारी के खिलाफ एक निशस्त्र भारत के पास विरोध की कोई ताकत ही नहीं है, अगर उसे अपने सशस्त्र दुश्मन से मुकाबला करना हो। हालात ये हैं कि हमारे सबसे अच्छे लोग भी यह सोचते हैं कि भारत की कई पीढियों को स्वतंत्र गणराज्य बनने से पहले ही चुक जाएंगी। भारत इस कदर गरीब हो चुका है कि उसमें अकाल तक से लड़ने की ताकत नहीं रही। ब्रिटिश आगमन से पूर्व यहां लाखों कुटीर धंधों में कताई-बुनाई होती थी, जो इस देश के मामूली कृषि संसाधनों का पूरक और जरूरत भर होता था। वो कुटीर उद्योग जो भारत के अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था आज हृदयहीन और अमानवीय प्रक्रिया के तहत ब्रिटिश आगमन के बाद नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया है। छोटे कस्बों के बाशिंदे भी इतना जानते हैं कि भारत की भूखी जनता किस तरह जीवनहीन हो गई है। वे यह भी जानते हैं कि उनको मिलने वाला आराम उस दलाली को दर्शाता है जो उन्हें उस काम के बदले मिलती है जो वे विदेशी शोषक के लिए करते हैं और यह भी कि जनता को मिलने वाला मुनाफा और दलाली खत्म हो गया है। वे यह भी समझ गए है कि ब्रिटिश भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार जनता के निरंतर शोषण पर ही चलती है और इसी के लिए चलती है। यह कोई कुतर्क नहीं है और आंकड़ों की बाजीगरी से आप इस प्रमाण को झूठा सिद्ध नहीं कर सकते जो हजारों गांवों में नंगी आंखों से कंकालों के रूप में दिखाई देते हैं। मुझे कोई संदेह नहीं है, अगर कहीं ईश्वर है तो मानवता के विरुद्ध इतिहास के सबसे बड़े अपराध के लिए इंग्लैंड और भारत के शहरी नागरिकों को जवाब देना ही पड़ेगा। इस देश में तो कानून भी विदेशी शोषक की सेवा के लिए बनाए गए हैं। पंजाब मार्शल लॉ के अंतर्गत दर्ज किए गए मामलों में मेरा निष्पक्ष परीक्षण बताता है कि 95 प्रतिशत मामले पूरी तरह गलत थे। भारत में राजनैतिक मामलों में मेरा अनुभव इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि दस में से नौ मामलों में निर्दोष लोगों को फंसाया जाता है। उनका अपराध इतना ही है कि वो अपने वतन से प्रेम करते हैं। भारत की अदालतों में 100 में से 99 मामलों में यूरोपियनों के मुकाबले इंसाफ नहीं मिलता। यह कोई मनगढंत तस्वीर नहीं है। यह लगभग प्रत्येक भारतीय का अनुभव है अगर वह ऐसे किसी मामले में पड़ा हो। मेरे विचार से यह कानून के प्रशासन का शोषक के हित में वेश्यावृति करने जैसा है।

सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि देश के प्रशासन में लगे अंग्रेज और उनके भारतीय सहयोगी यह जानते ही नहीं कि वे उस अपराध में लगे हुए हैं जिसे मैंने बताने की कोशिश की है। मैं संतुष्ट हूं कि अंग्रेज और भारतीय अधिकारी पूरी ईमानदारी से यह विश्वास करते हैं कि वे दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्थाओं में से एक का संचालन कर रहे हैं और भारत धीमे ही सही आगे बढ़ रहा है। वे नहीं जानते कि एक तरफ तो आतंकवाद की सूक्ष्म और प्रभावी व्यवस्था और शक्ति का संगठित प्रदर्शन है और दूसरी तरफ तमाम किस्म की शक्तियों और आत्मरक्षा से वंचित आम जनता है, इस सबसे लोगों का पुंसत्व समाप्त हो गया है और उनमें एक निठल्लापन भर गया है। इस दर्दनाक प्रवृति ने प्रशासकों तक को अपने कब्जे में ले लिया है जिससे लोग प्रशासन को कुछ समझते ही नहीं और प्रशासक आत्मछल के शिकार हो रहे हैं। धारा-124-ए जिसके तहत मुझे खुशी है कि आरोपी बनाया गया है, यह भारतीय दण्ड संहिता की शानदार धारा है, जिसे भारतीय नागरिकों के दमन के लिए बनाया गया है। कानून ना तो प्रेम की रचना कर सकता है और ना ही उसे संचालित कर सकता है। अगर कोई किसी व्यक्ति या व्यवस्था से प्रेम करता है तो उसे अपना अप्रेम या असंतोष भी व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए, जब तक कि वह किसी प्रकार से हिंसा की ओर ना जाए। लेकिन जिस धारा में मि. बैंकर (असहयोग आंदोलन में गांधी जी के सहयोगी) और मुझे दोषी करार दिया गया है उसके अंतर्गत जरा-सा असंतोष पैदा करना भी अपराध है। इस धारा के अंतर्गत दर्ज किए गए कुछ मामलों का अध्ययन किया है और मैं जानता हूं कि देश के सर्वश्रेष्ठ देशभक्तों को इस धारा के अंतर्गत आरोपी बनाया गया है। मैं इसे एक विशेषाधिकार मानता हूं और इसीलिए इस धारा के अंतर्गत आरोपी बनाए जाने की मांग करता हूं। मैंने अपने असंतोष के कारणों का संक्षेप में विवरण देने की कोशिश की है। किसी भी प्रशासक के प्रति मेरे मन और आत्मा में कोई व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं है, क्या मैं सम्राट के प्रतिनिधि के प्रति थोड़ा भी असंतोष नहीं दिखा सकता। लेकिन मैं एक ऐसी सरकार के प्रति असंतोष रखना अपना नैतिक दायित्व मानता हूं, जिसने पुरानी किसी भी व्यवस्था से अधिक भारत का नुकसान किया है। भारत का पुरुषार्थ इतिहास में इतना कमतर कभी नहीं हुआ, जितना ब्रिटिश शासन में हुआ है। ऐसा विश्वास रखते हुए मैं मानता हूं कि इस व्यवस्था के प्रति प्रेम रखना एक अपराध है। मेरे लिए यह विशेषाधिकार की बात है कि मेरे विरुद्ध मेरे लिखे उन लेखों को सबूत के तौर पर पेश किया गया है जो मैं लिख सका।

सच में मैं विश्वासपूर्वक कहता हूं कि जिस अप्राकृतिक स्थिति में ये दो देश रह रहे हैं वहां मैंने असहयोग के माध्यम से भारत और इंग्लैंड दोनों की सेवा की है। मेरी विनम्र राय है कि बुराई के साथ असहयोग करना भी उतना ही बड़ा कर्तव्य है जितना अच्छाई के साथ सहयोग करना। लेकिन अतीत में बुरा करने वाले के साथ असहयोग जानबूझकर हिंसा के रूप में ही व्यक्त किया गया। मैं अपने देशवासियों को यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हिंसक असहयोग बुराई को और बढ़ाएगा और यह भी कि हिंसा से बुराई को बल ही मिलेगा। बुराई का खात्मा तभी होगा जब हम हिंसा से पूरी तरह मुक्त हो जाएं। अहिंसा में यह भी निहित है कि हम बुराई के साथ असहयोग करने के लिए दंडित होने के लिए खुद को प्रस्तुत कर दें। इसलिए मैं यहां स्वयं को प्रसन्नता के साथ प्रस्तुत करता हूं कि कानून के तहत जो जानबूझकर किया गया अपराध है, और मेरे लिए यह एक नागरिक का सबसे बड़ा कर्तव्य है, उसके लिए मुझे बड़े से बड़ा दंड दिया जाए। न्यायाधीश महोदय, आपके पास अब एक ही सूरत बची रह गई है कि अगर आप समझते हैं कि आप जिस कानून को चला रहे हैं और वो गलत है, बुराई का साथ देने वाला है और मैं निर्दोष हूं तो आप अपने पद से इस्तीफा दें और इस तरह बुराई से अपने आपको दूर कर लें। अगर आप समझते हैं और मानते हैं कि यह व्यवस्था और आपके कानून का शासन इस देश की जनता के लिए अच्छा है और इसलिए मेरी गतिविधियां सार्वजनिक जीवन के लिए हानिकारक हैं तो मुझे गंभीर से गंभीर सजा दें।''

1 comment:

  1. भाई साब प्रणाम !
    आप द्वारा हमे ' गाँधी जी '' के संधर्भ में और जानकारी प्राप्त हुई , जो आप ने गांधी सर्किल पे अपने उद्भोधन में कही , प्रासंगिक है ,आज के समय में .
    बेहद अच्छा लगा ,
    सादर

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