Tuesday, 1 February 2011

गुलाबी नगरी में लेखकों का मेला

जयपुर में साहित्य का महाकुंभ इस बार छठे वर्ष में प्रवेश कर भारतीय ही नहीं वैश्विक क्षितिज पर एक नई पहचान छोड़ गया, जिसमें साल दर साल पर्यटन नगरी जयपुर की पहचान साहित्य और संस्कृति के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में बनती दिखाई देती है। 21 जनवरी, 2011 की सुबह पारंपरिक वाद्य यंत्रों के तुमुल नाद के साथ आरंभ हुए लिटरेचर फेस्टिवल का आगाज मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत, विद्वान राजनेता डा. कर्ण सिंह और संस्कृत के अमेरिकी विद्वान पद्मश्री डा. शेल्डेन पोलक ने किया। इसके बाद नोबेल पुरस्कार से सम्मानित तुर्की के विश्वप्रसिद्ध उपन्यासकार ओरहान पामुक से खुले सत्र में संवाद हुआ। युवा लेखक चंद्रहास चौधुरी के साथ संवाद में ओरहान पामुक ने कहा कि पूरी दुनिया में लोगों के दिल एक जैसे हैं, मन एक जैसे हैं, बस सांस्कृतिक भिन्नता और रहन-सहन की परिस्थितियां अलग हैं। इसलिए दुनिया की किसी भी भाषा में लिखा जाने वाला साहित्य लोगों के मन को छूता है क्योंकि उन्हें अपने आसपास जैसी एक दूसरी दुनिया देखने को मिलती है। पामुक ने कहा कि भारत की पारंपरिक चिंतन प्रणाली में बहुत कुछ ऐसा है जो लोगों को अपने समय की सचाइयों को नए ढंग से देखकर लिखने के लिए प्रेरित कर सकता है। पामुक ने ‘आर्ट आफ नावल’ पर बात करते हुए कहा कि लेखक की अपनी राजनैतिक समझ होती है जो उसकी रचना प्रक्रिया में पक कर एक नए रूप में सामने आती है।

पांच दिन चले साहित्य के इस महाकुंभ में इस बार भारत सहित दुनिया के बीस से अधिक देशों के 220 से अधिक लेखकों ने भागीदारी की। दो बार के बुकर विजेता जे.एम. कोएट्जी के साथ अमेरिका से रिचर्ड फोर्ड और जेय मैकिरनरी जैसे अंग्रेजी के विख्यात लेखकों के साथ विक्रम सेठ, इरविन वेल्श और मोहसिन हामिद भी इस महामेले में शामिल हुए। इस सूची में वो लेखक, संपादक, लिटरेरी एजेंट और प्रकाशक शामिल नहीं हैं जो इस विशाल साहित्यिक मेले का लुत्फ उठाने दुनिया के कई कोनों से यहां पहुंचे। पिछले दो-तीन वर्षों से इस साहित्योत्सव में दक्षिण एशिया पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की गई है, जिसकी वजह से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और भूटान जैसे पड़ौसी मुल्कों के लेखक भी इसमें शिरकत कर रहे हैं। इन प्रयासों से इस उपमहाद्वीप के देशों में सांस्कृतिक संबंध बेहतर बनाने में खासी सफलता मिल सकती है। पहली बार अफगानिस्तान के मशहूर लेखक अतीक रहीमी की इस उत्सव में भागीदारी हुई तो नेपाल से नाराण वागले और मंजुश्री थापा की आमद हुई।

हिंदी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की इस उत्सव में भागीदारी साल दर साल बढती जा रही है। इस बार हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर कुछ नए विषयों पर कवि, लेखक और पत्रकारों के बीच रोचक और सार्थक संवाद हुए। जन्मशताब्दी वर्ष में अज्ञेय, नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह पर ओम थानवी, महेंद्र सुधांश और सुधीश पचौरी के बीच अविनाश के साथ संवाद हुआ। ‘‘ऐसी हिंदी कैसी हिंदी’’ पर मृणाल पांडे, रवीश कुमार, सुधीश पचौरी और प्रसून जोशी के बीच सत्‍यानंद निरूपम के संयोजन में रोमांचक बातचीत हुई। इसी तरह ‘नई भाषा नए तेवर’’ में गिरिराज किराडू, मोहल्ला लाइव के अविनाश और मनीषा पांडेय के बीच रवीश कुमार के साथ उत्तेजक चर्चा हुई। उर्दू जुबान को लेकर गीतकार जावेद अख्तर ने बहुत तल्खी के साथ कहा कि जुबानों का ताल्लुक मजहब से नहीं होता, इलाकों से होता है, लेकिन यह तकलीफ देने वाली बात है कि जहां उर्दू पढ़ने-लिखने वाले लोगों की कमी हो रही है, वहीं उर्दू सुनने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है। तेजी से लोकप्रिय हो रहे भोजपुरी सिनेमा पर भी एक सत्र में अविजीत घोष और कुमार शांता का अमिताव कुमार के साथ संवाद हुआ।

मराठी थिएटर, कश्मीर, रामायण और बुल्ले शाह पर भी कई सत्रों में खुलकर चर्चा हुई। बुल्ले शाह को भारत-पाक के बीच सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत आधार बताते हुए पत्रकार गायक मदनगोपाल ने कई नई जानकारियां देते हुए उनके कलाम को बेहद खूबसूरती से पेश किया। राजस्थान की राजधानी में आयोजित इस उत्सव में प्रदेश के हिंदी व राजस्थानी लेखकों की भी शिरकत रही। लेखकों में आपसी संवाद से पता चला कि इस बार राजस्थान से लेखकों का चयन अगर और बेहतर होता तो राजस्थान की समकालीन रचनाशीलता का एक बेहतर स्वरूप सामने लाया जा सकता था। स्थानीय लेखकों में इस बात को लेकर भी किंचित क्षोभ था कि इस बार आयोजन में उनकी भागीदारी के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।

दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए शुरु हुआ डीएससी पुरस्कार पहली बार अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार एच.एम. नकवी को हार्परकॉलिंस से प्रकाशित उपनके उपन्यास ‘होम बॉय’ के लिए प्रदान किया गया। दक्षिण एशिया के इस सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार में नकवी को पचास हजार अमेरिकी डॉलर और प्रतीक चिन्ह प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के निर्णय से बहुत से लोगों को आश्‍चर्य भी हुआ, क्योंकि सब यही मान कर चल रहे थे कि यह पुरस्कार अमित चौधुरी को ‘द इम्मोर्टल्स’ पर दिया जाएगा। पुरस्कार के लिए चयनित अंतिम पांच लेखकों में अमित सबकी पहली पसंद थे।

पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए आयोजकों ने इस बार कार्यक्रम स्थल डिग्गी पैलेस का काफी विस्तार किया लेकिन आमजन और विद्यार्थियों की जबर्दस्त भागीदारी ने सिद्ध कर दिया कि इस साहित्योत्सव को लेकर उनमें बेहद उत्साह है और इसीलिए बावजूद तमाम इंतजामों के हर जगह लोगों की भीड़ छाई रही और लोगों को बैठने के लिए ही नहीं चलने के लिए भी जगह कम पड़ गई। अगली बार संभवतः आयोजकों को नई जगह तलाश करनी होगी, क्योंकि इसमें सिनेमा की मशहूर हस्तियों की उपस्थिति के वक्त तो बेकाबू भीड़ जमा हो जाती है, जो निश्चित रूप से आने वाले सालों में बढती जाएगी। साहित्य के इस विशाल मेले में प्रायोजकों की संख्या भी बढती जा रही है। साहित्य के नाम पर इस बढते हुए बाजारवाद को लेकर विगत तीन साल से जयपुर आ रहे एक अमेरिकी पत्रकार की टिप्पणी थी कि हर साल यह साहित्योत्सव व्यावसायिक अधिक होते जा रहा है जो बेहद चिंताजनक है।

यह रपट संपादित रूप में हिंदी आउटलुक के फरवरी 2011 अंक में प्रकाशित हुई है।



3 comments:

  1. भाई साब
    प्रणाम !
    अच्छी लगी आप कि'' साहित्यक मेले '' कि ये जानकारी , ये हर वर्ष यूही आयोजित हो .
    सादर

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  2. सुंदर संतुलित रिपोर्ट ....आभार
    अच्छा लगा जानकर कि युवा पीढ़ी में भी साहित्य के प्रति रूचि बनी हुई है....

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