Sunday, 17 January 2010

आधी दुनिया को आधी पंचायत

गांव की राजनीति में बड़े बदलावों की आहट है, वही गांव जिसे हिंदुस्तान का चेहरा कहा जाता है। पहली बार पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण के साथ राजस्थान में पहले चुनाव हो रहे हैं, एक तिहाई के आरक्षण से जब तस्वीर बदली है तो इससे क्या होगा, अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह बदलाव की प्रक्रिया इतनी व्यापक है िक राजनीति ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक बदलाव भी होने तय हैं, महिलाओं यानी आधी दुनिया को आधी पंचायत के मुद्दे की एक गहरी खोज-पड़ताल...

इस बार राजस्थान में पंचायत चुनावों की छटा ही अलग है। स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत आरक्षण ने पहले नगर पालिका और नगर निगम चुनावों में महिलाओं को जबर्दस्त राजनैतिक शक्ति प्रदान की और अब ग्राम पंचायतों के माध्यम से महिलाएं प्रदेश की राजनीति में जमीनी स्तर पर पूरी क्षमता से प्रवेश कर व्यापक बदलाव लाने की तैयारी कर रही हैं। भारतीय लोकतंत्र के साठ साल के जश्‍न में यह ऐतिहासिक अवसर है, जब एक प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं को राजनीति में सीधे भागीदारी करने का मौका मिला है। जानकार लोगों का मानना है कि इस भागीदारी से राजनैतिक परिदृश्‍य में ही नहीं, बल्कि राजनीति के आधारभूत मुद्दों में भी अनपेक्षित परिवर्तन दिखाई देंगे। सही मायने में लोकतंत्र का एक साफ-सुथरा चेहरा दिखाई देगा, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र की उन महिलाओं को भी आगे आने का अवसर मिलेगा, जिन्होंने खुद कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे निरक्षर गृहिणी होने के बावजूद किसी दिन समाज में एक राजनैतिक ताकत के तौर पर प्रतिष्ठित होंगी। कहने के लिए आरक्षण पचास प्रतिशत है, लेकिन अनारक्षित सीटों पर भी महिलाएं चुनाव लड़ सकती हैं और अपनी आवाज बुलंद कर सकती हैं। इसीलिए महिलाओं का नारा है कि आधी नहीं अब सारी सीटें हमारी हैं। शिक्षा और राजनैतिक चेतना ने गांवों में अब महिलाओं को अपने पुरुष रिश्‍तेदारों के इशारों पर चलने वाली आज्ञाकारी नेत्री की परिधि से बाहर ला खड़ा किया है, जहां वह एक स्वतंत्रचेता जनप्रतिनिधि के रूप में अपने दायित्वों को पूरी जिम्मेदारी से पूरा करने की तैयारी कर रही है।


चाकसू तहसील की ग्राम पंचायत निमोड़िया की वार्ड पंच सराजन बानू के पास नाम मात्र की जमीन है, लेकिन वह प्रदेश की चुनिंदा अल्पसंख्यक महिला जनप्रतिनिधियों हैं। अशिक्षित और अल्पसंख्यक होने के बावजूद सराजन बानू ने गांव में बालिका विद्यालय को क्रमोन्नत कराने, सड़क बनवाने और पट्टे दिलाने जैसे कई काम करवाकर गांव के लोगों का दिल जीत लिया।



बदल गया चुनावी एजेण्डा

कई दशकों से गांवों में पंचायत चुनावों का एजेण्डा वहां की जातिवादी राजनीति रही, लेकिन महिलाओं और दलित-वंचितों के आरक्षण के बाद गांवों में विकास कार्यक्रम चुनावी एजेण्डे में शामिल हुए तो बुनियादी मुद्दे सामने आए। पानी, बिजली, सड़क, स्कूल, चिकित्सा, सफाई, जलावन की लकड़ी, चरागाह, शौचालय और गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराने जैसे आधारभूत मुद्दों को लेकर ग्रामीण समाज में चेतना जागृत हुई और गांवों की राजनीति का समूचा परिदृश्‍य बदल गया। विकास कार्यक्रमों को लेकर एक महत्वपूर्ण बात विगत कुछ वर्षों में यह देखी गई कि जहां पुरुषों की प्राथमिकता गांवों में स्कूल-चिकित्सालय आदि के निर्माण की होती हैं वहीं महिलाओं की रूचि गांवों में सुविधाएं उपलब्ध कराने में ज्यादा रहती है। वजह साफ है, चूंकि महिलाएं सदियों से गांवों में बुनियादी सुविधाएं ना होने के कारण परेशानियों का सामना करती आई हैं, इसलिए उनकी प्राथमिकता सुविधाओं को लेकर होती हैं और निर्माण कार्यों में ठेकेदारी व्यवस्था के चलते भ्रष्टाचार की गुंजाइश ज्यादा रहती है तो पुरुष उनको प्राथमिकता देते हैं। महिलाएं गांवों में बालिका शिक्षा और चिकित्सालय के लिए सबसे ज्यादा चिंतित रहती हैं।


राजसमंद जिले की खमनोर पंचायत समिति के ग्राम सेवल की सरपंच नाथी बाई आदिवासी और अशिक्षित है। पहली बार में चुनाव जीतने वाली नाथी बाई ने अपने क्षेत्र में विकास के सैंकड़ों कार्य करवाकर गांव की शक्ल ही बदल डाली।


राजनैतिक माहौल में परिवर्तन



आरक्षण के बाद गांवों का राजनैतिक माहौल बिल्कुल बदल गया है। राजनैतिक दुश्‍मनियां बहुत तीव्र हो गई हैं। बड़े नगरों और हाईवे से लगते गांवों में जमीनों के दाम बढ़ने से जमीनें बेचकर अचानक अमीर हुए ग्रामीणों की राजनैतिक आकांक्षाओं को पंख लग गए हैं। पहले की जातिवादी राजनीति का स्थान अब पैसे की राजनीति ने ले लिया है। एक सामान्य पंच या सरपंच के चुनाव में एक लाख का खर्च मामूली बात है। लेकिन, गांवों के लोग इस मायने में बहुत समझदार हैं, वे पैसे के बल पर राजनीति करने वालों को अपने वोट की ताकत का तुरंत अहसास भी करा देते हैं। महिला आरक्षण के बाद महिलाओं में आई राजनैतिक चेतना ने उम्मीदवार देखकर वोट देने की प्राथमिकता को बढ़ावा दिया है, जिससे तमाम चुनावी समीकरण गड़बड़ा जाते हैं। यह आरक्षण की ही बदौलत संभव हुआ है कि गांव वालों ने पैसे के दम पर चुनाव जीतने की आकांक्षा रखने वाले रसूखदारों के डमी उम्मीदवार के मुकाबले भेड़-बकरी चराने वाली सामान्य निरक्षर महिलाओं को पंच-सरपंच चुना।





भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ती महिला जनप्रतिनिधि


भारत में भ्रष्ट व्यवस्था की मार सबसे ज्यादा गांवों को सहन करनी पड़ती है। वहां हर स्तर पर भयानक भ्रष्टाचार है। राजस्थान में अरूणा राय के मजदूर किसान शक्ति संगठन की ओर से किए गए विभिन्न सामाजिक अंकेक्षणों में यह साबित हुआ है कि गांवों में विकास के लिए आए हुए पैसे का जमकर दुरुपयोग होता है। पच्चीस बरस पहले कहा गया राजीव गांधी का जुमला आज भी गांवों में सत्य सिद्ध हो रहा है, एक रुपये में पंद्रह पैसे ही गांवों तक पहुंचते हैं। इसमें महिला जनप्रतिनिधियों की स्थिति इसलिए विकट है कि वे सरकारी तंत्र की कारगुजारियों से परिचित ना होने के कारण पिछड़ जाती हैं। कई सरकारी कार्यालयों के आए दिन चक्कर लगाना, अधिकारी और कर्मचारियों से बात करना और अपना पक्ष रखना, विकास कार्यों को क्रियान्वित करवाना जैसे काम एक महिला जनप्रतिनिधि के लिए आसान नहीं है। लेकिन पिछले एक दशक में यह बात साबित हुई है कि अधिकारी महिला जनप्रतिनिधियों की बात सुनने लगे हैं और धीरे ही सही उनके काम भी करने लगे हैं। दूसरी तरफ महिला पंच-सरपंच भी यह बात सीखने में सफल हुई हैं कि उनकी राजनैतिक ताकत अधिकारियों को काम करने के लिए विवश कर सकती है। ग्राम सेवकों का गांवों की व्यवस्था में वर्चस्व होता है, वह महिला जनप्रतिनिधियों को अपनी कठपुतली बनाकर रखता है। लेकिन महिला पंच-सरपंचों को यह बात समझ में आ गई है कि किसी परिजन की मदद से ग्राम सेवक की कारगुजारियों से कैसे बचा जा सकता है और सही काम कैसे कराया जा सकता है।

सहायता के लिए आगे आते स्वयंसेवी संगठन

कई सालों से गांवों के विकास में स्वयंसेवी संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन गैर सरकारी संगठनों ने पंचायत चुनाव में आरक्षण व्यवस्था के बाद महिला नेतृत्व को उभारने में जबर्दस्त भूमिका निभाई है। यूनाइटेड नेशन डेमोक्रेसी फण्ड ने विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से ग्रामीण लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अंशदान किया है। ये संगठन चुनावपूर्व मतदाता जागरूकता अभियान चलाकर पंचायत चुनावों के बोर में ग्रामीणों को बुनियादी मसलों पर सोचने के लिए तैयार करते हैं। महिलाओं को सामूहिक प्रशिक्षण के माध्यम से तैयार करते हैं और गांवों में विकास की प्राथमिकताएं क्या हों और कैसे चुनाव लड़ा जाता है आदि को लेकर महिलाओं और ग्रामीण समुदाय को समझाते हैं। पिछले साल जयपुर में महिला जनप्रतिनिधियों के एक सम्मेलन कई महिलाओं ने इस बात पर पूर्ण सहमति जताई कि गैर सरकारी संगठनों से मिले प्रशिक्षण ने उनके भीतर आत्मविश्‍वास बढ़ाया है और उनके भीतर नेतृत्वकारी भावना के साथ कई सकारात्मक चीजों का विकास किया है, जिससे वे अपनी भूमिका को बेहतर समझने लगी हैं। यह सकारात्मकता ही भविष्य की बेहतरीन महिला जनप्रतिनिधियों को तैयार करने में सहायक होगी।

बाड़मेर की रामसर पंचायत समिति की अशिक्षित वार्ड पंच खातू देवी ने घर वालों के विरोध और गांव वालों के समर्थन के बीच चुनाव जीता। वार्ड पंच बनने से पहले वह मजदूरी करती थी, आज वह नरेगा में लोगों को मजदूरी दिलवाती हैं और गांव वालों की तमाम समस्याओं को हल करने की कोशिश करती हैं।


सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन अनिवार्य

ग्रामसभा और वार्ड सभा ग्राम पंचायतों की आधारभूमि हैं जो गांवों के विकास की कार्ययोजना बनाती हैं। दुर्भाग्य से ये सभाएं बहुत कमजोर हैं और खुद गांव वाले ही इनमें रूचि नहीं लेते हैं, जिसके चलते प्रशासनिक शिथिलताओं को और बल मिलता है। विभिन्न किस्मों की गुटबाजी ने इन सभाओं को कमजोर किया है, अगर ये सभाएं मजबूत हों और सामूहिक शक्ति का प्रभावी प्रदर्शन करें तो उच्चाधिकारियों को गांवों के सर्वांगीण विकास के लिए मजबूर कर सकती हैं। गैर सरकारी संगठन इस बात को लेकर गांव वालों को समझा रहे हैं कि इन सभाओं के माध्यम से फैसले लेकर यदि सामूहिकता प्रदर्शित की जाए तो आशातीत परिणाम आ सकते हैं। ग्रामीण समाज वैसे भी सामूहिकता में विश्‍वास कर जीता है, इसलिए अगर वे इस बात को समझ लें कि अभी तक वे सामूहिक रूप से सिर्फ जीवनयापन का संघर्ष कर रहे हैं और अब उन्हें बेहतर जीवन के लिए संघर्ष करना है तो परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी।

बारां जिले की बालदा पंचायत समिति की सरपंच संतोष सहरिया ऐसी महिला जनप्रतिनिधि है, जिसने आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरु किया, निर्विरोध सरपंच चुनी गई। ग्रामीण क्षेत्र में उनके द्वारा कराए गए विकास कार्यों के आधार पर पिछले विधान सभा चुनावों में उनका नाम एक बड़े राजनैतिक दल के पैनल में रहा।


महिला नेतृत्व : आदर्श नेतृत्व


महिलाओं को पुरुषों की तुलना में आदर्श नेत्री मानने वालों में आउटलुक मासिक के संपादक नीलाभ मिश्र कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम भ्रष्ट होती हैं, इसलिए विकास कार्यक्रमों के माध्यम से वे गांवों का ज्यादा विकास कर सकती हैं। आरक्षण के बाद मतदान में महिलाओं का प्रतिशत भी बढ़ा है। ग्रामीण समाज अब लिंग भेद को लेकर सजग हो रहा है। खुद महिलाओं की आत्म छवि बदल रही है। अब गांवों में पढ़ी-लिखी महिलाओं को चुनाव में प्रमुखता दी जाने लगी है और जब ऐसी महिलाएं राजनीति में आएंगी तो निश्चित रूप से ग्रामीण भारत का परिदृश्‍य पूरी तरह बदल जाएगा। जिस तरह घर में एक महिला सबका बराबर ध्यान रखती है, उसी तरह ग्राम समाज में वह जनप्रतिनिधि के तौर पर तमाम किस्म के भेदभावों से उपर उठकर समग्र और समरूप विकास के बारे में सोच सकती है। नीलाभ कहते हैं, चूंकि एक बार महिलाओं के राजनीति में आने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है इसलिए अब पीछे जाना संभव नहीं है। आगे का भविष्य अब पूरी तरह महिला जन प्रतिनिधियों के हाथ में होगा। सरपंच पति या प्रॉक्सी सरपंच जैसे जुमले ग्रामीण राजनीति से धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं और एक-दो चुनावों के बाद ये इतिहास में समा जाएंगे।

यह आलेख डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 17 जनवरी, 2010 को प्रकाशित हुआ।

2 comments:

  1. लोक प्रशासन में शिक्षित महिलाओं (सिर्फ डिग्रीधारी नहीं ) की भागीदारी का बढ़ना शुभ संकेत है

    नीलाभ मिश्र जी का वक्तव्य गौर करने योग्य है ..." जिस तरह महिलाएं घर में सभी का बिना भेद भाव किये ध्यान रखती हैं , समाज में विकास में भी निष्पक्ष हो कर अपनी भागीदारी निभाएंगी ...

    ऐसा ही हो ....आमीन ...!!

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