अगर जन्म के आधार पर नागरिकता मानी जाए तो मुंबई में जन्मे रूडयार्ड किपलिंग पहले भारतीय थे, जिन्हें 1907 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। किपलिंग अंग्रेजी भाषा के पहले लेखक थे, जिन्हें अब तक रिकार्ड सबसे कम उम्र यानी 42 वर्ष की आयु में नोबल पुरस्कार मिला। 30 दिसंबर, 1865 को जन्मे किपलिंग के पिता जे.जे. स्कूल आफ आर्ट्स के प्रारंभिक शिक्षकों में थे। पांच साल की उम्र में किपलिंग को तीन वर्षीय बहन एलिस के साथ पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। छह बरस तक दोनों भाई-बहनों को एक परिवार के बेहद कठोर अनुशासन में रहना पड़ा। इसके बाद किपलिंग को स्कूल में दाखिल करा दिया गया, जहां की आजाद और खुली हवा में एक रचनाकार के तौर पर किपलिंग में साहित्य के अंकुर फूटे। यहां के अनुभव कई बरस बाद ‘स्टॉकी एंड कंपनी’ कहानी संग्रह के रूप में प्रकाश में आए। स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए किपलिंग को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना था, लेकिन आर्थिक हालात इजाजत नहीं देते थे। इसलिए पिता ने किपलिंग के लेखन कौशल को देखते हुए हिंदुस्तान में उसके लिए एक नौकरी ढूंढ़ ली। इस बीच पिता लाहौर चले गए थे, जहां वे मेयो कालेज आफ आर्ट के प्रिंसिपल और लाहौर म्यूजियम के क्यूरेटर थे। युवा किपलिंग को उन्होंने एक साप्ताहिक अखबार में सहायक संपादक की नौकरी दिला दी।
सत्रह साल से भी कम उम्र में अखबार में काम शुरु करने वाले किपलिंग की 21 साल की आयु में कविताओं की पहली किताब प्रकाशित हुई ‘डिपार्टमेंटल डिट्टीज़’। इसी वर्ष नए संपादक ने किपलिंग को अखबार के लिए कहानियां लिखने के लिए कहा तो युवा किपलिंग की लेखनी चल पड़ी। अगले साल से गर्मियों की छुट्टियों में शिमला जाने का सिलसिला शुरु हुआ तो किपलिंग ने शिमला के जनजीवन और प्रकृति को अपनी कहानियों में बेहद खूबसूरती से चित्रित किया। इस बीच 1887 में उन्हें ‘पायोनियर’ अखबार में तबादला कर इलाहाबाद भेज दिया गया। 1888 में पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ ‘प्लेन टेल्स फ्राम द हिल्स’। इसके बाद एक बरस में किपलिंग के छह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। विशेष संवाददाता के रूप में किपलिंग को राजपूताना भेजा गया, जहां बूंदी में उन्हें एक उपन्यास का विचार सूझा। इस यात्रा के अनुभव अखबार में तो छपे ही पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुए। अगले साल किसी विवाद के कारण किपलिंग को अखबार से छुट्टी दे दी गई। वहां से छह महीने का वेतन अग्रिम मिला और अपनी सात किताबों के अधिकार बेचकर किपलिंग ने एक लेखक के तौर पर जीवनयापन करने का निश्चय किया और लंदन के लिए रवाना हो गए।
लंदन में उन्होंने एक कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह लिखा, जिनमें भारतीय जनजीवन और ब्रिटिश सैनिकों के अनुभवों का सजीव चित्रण किया गया है। 1894 में किपलिंग ने अपनी विश्वविख्यात कृति ‘जंगल बुक’ की रचना की, जिसे आज भी बाल साहित्य की श्रेणी में अप्रतिम माना जाता है। भेड़ियों द्वारा उठाकर जंगल में ले जाए गए बच्चे मोगली की कहानियां इस कदर लोकप्रिय हुईं कि इस पर कई फिल्में और धारावाहिक विश्व भर में बने। आज भी यह बच्चों की लोकप्रिय पुस्तक है। स्काउट आंदोलन के प्रणेता बैडन पावेल ने ‘जंगल बुक’ से प्रेरणा लेकर स्काउटिंग के कई कार्यक्रमों की संरचना की। किपलिंग ने इसकी सफलता से उत्साहित होकर इसका दूसरा भाग भी लिखा। इसके बाद वे फिर से कहानियां लिखने लगे और 1899 तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। बूंदी में बैठकर उन्होंने जिस उपन्यास की कल्पना की थी वह 1901 में ‘किम’ के रूप में सामने आया। अनाथ आइरिश किशोर किम और बौद्ध भिक्षु तेशू लामा की रोमांचक हिमालय यात्रा और दोनों की अपने-अपने स्तर पर आत्म और अस्मिता की खोजयात्रा बेहद रोचक है। यूं तो इस उपन्यास के दीवाने पूरी दुनिया में हैं, लेकिन यह पंडित नेहरू की भी प्रिय पुस्तकों में रही है।
किपलिंग ने अपने जीवन में यात्राएं बहुत कीं, इसलिए उनके पास दुनिया के कई देशों के अनुभव थे, बहुत से लोगों के जीवन में झांकने का उन्हें मौका मिला, और सबसे बड़ी बात यह कि किपलिंग बेहद कल्पनाशील रचनाकार थे। इसलिए यथार्थ और कल्पना के अद्भुत सम्मिश्रण से वे जबर्दस्त कहानियां, उपन्यास और यात्रा संस्मरण लिख सके। उनकी कल्पनाशीलता इसी से पहचानी जा सकती है कि मोगली जैसे पात्र की रचना उन्होंने अखबार में पढ़ी एक खबर के आधार पर की और उसके इर्द-गिर्द महान बालसाहित्य का सृजन किया। उनके लेखन में ब्रिटिश सैनिकों की पीड़ा, सैनिक होने का गर्व, पराए देश में परिजनों से दूर रहने का दुख, आम भारतीय इंसान का सहज जीवन और यहां का विविधरंगी परिदृश्य बखूबी देखने को मिलता है। अंग्रेजी साहित्य में भारतीय जनजीवन का जीवंत और प्रामाणिक चित्रण संभवतः पहली बार किपलिंग ने ही किया। ‘गंगादीन’ जैसे मामूली चरित्र को किपलिंग ने एक कविता से अमरत्व प्रदान कर दिया, जो सैनिकों के लिए महज पानी लाता था। किपलिंग को भारतीय नामों और चीजों से इस कदर लगाव था कि जब अमेरिका में उन्होंने अपना घर बनाया तो उसका नाम रखा ‘‘नौलखा’’। यह नाम लाहौर किले की नौलखा बारादरी से उन्हें सूझा था। किपलिंग की प्रारंभिक पुस्तकों के कवर पर सौभाग्य और समृद्धि के प्रतीक के रूप में स्वास्तिक और सूंड में कमल पकड़े हाथी के चित्र प्रकाशित होते थे, लेकिन कालांतर में जर्मन नाजियों द्वारा स्वास्तिक अपनाए जाने पर अपनी तमाम किताबों से उन्होंने स्वास्तिक हटवा दिए।
किपलिंग की प्रकाशित पुस्तकों की सूची पचास से अधिक है, लेकिन एक ‘जंगल बुक’ ही उन्हें विश्वसाहित्य में अमर रखने के लिए पर्याप्त है। पाठकों को उनकी वो रोमांटिक कहानियां बेहद अच्छी लगती हैं, जिनमें अंग्रेज सुदूर देशों की साहसिक यात्राएं करते हैं और विजय प्राप्त करते हैं। हालांकि किपलिंग पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद का पोषक और समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं, किंतु उनके प्रशंसकों का कहना है कि उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र उपनिवेशवादी मानसिकता के हैं और उसी रूप में किपलिंग ने उनका चित्रण किया है। खुद किपलिंग एक सच्चे देशप्रेमी होने के नाते ब्रिटिश राज की भले ही जयगाथा गाते रहे हों, लेकिन उन्होंने कई बार ब्रिटिश राज के दरबारी कवि और नाइट की पदवी को ठुकराया। 18 जनवरी, 1936 को पेप्टिक अल्सर से किपलिंग का देहांत हुआ।
यह आलेख राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में 17 जनवरी, 2010 को 'विश्व के साहित्यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।
आलेख से नई जानकारियाँ मिलीं। आभार!
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