Sunday, 7 February 2010

रचना आज : पांच कवियों पर केंद्रित किताब


कवि लीलाधर मंडलोई ने हिंदी के पांच कवियों पर एकाग्र पुस्‍तक 'रचना आज' संपादित की है। विश्‍व पुस्‍तक मेले में प्रकाशक अनुभव प्रकाशन के स्‍टाल पर कल शाम वरिष्‍ठ आलोचक डॉ. विश्‍वनाथ त्रिपाठी और वरिष्‍ठ कथाकार डॉ. हेतु भारद्वाज ने इसका लोकार्पण किया। इन पांच कवियों में कुमार वीरेंद्र, नरेश चंद्रकर, शिरीश कुमार मौर्य और मनोहर बाथम के साथ इस खाकसार को भी शामिल किया गया है। इस पुस्‍तक की खास बात यह है कि इसमें संपादक लीलाधर मंडलोई ने तो संपादकीय लिखा ही है, इसके साथ ही प्रत्‍येक कवि पर एक वरिष्‍ठ कवि की टिप्‍पणी भी दी है और हर कवि का वक्‍तव्‍य भी दिया है। कवियों की 11-11 कविताएं भी साथ में हैं। कुमार वीरेंद्र पर कवि आलोचक विजय कुमार, नरेश चंद्रकर पर राजेश जोशी, शिरीश कुमार मौर्य पर पंकज चतुर्वेदी, मनोहर बाथम पर लीलाधर मंडलोई और खाकसार पर कात्‍यायनी ने लिखा है। लोकार्पण के अवसर पर प्रसिद्ध कवि मदन कश्‍यप और कृष्‍ण कल्पित ने पुस्‍तक की तारीफ करते हुए इस काम को महत्‍वपूर्ण बताया। इस अवसर पर उपन्‍यासकार भगवान दास मोरवाल, कथाकार अजय नावरिया, कवि ओम भारती, श्‍याम निर्मम और व्‍यंग्‍यकार फारूक आफरीदी आदि अनेक महत्‍वपूर्ण रचनाकार-साहित्‍यकार मौजूद थे।
कवि मित्रों के लिए आज मैं अपना टूटा-फूटा आत्‍म-वक्‍तव्‍य यहां प्रकाशित कर रहा हूं।

अपनी कविता के बारे में क्या कहें

मेरे भीतर कविता कैसे जनमी, यह शायद बचपन की स्मृतियों को खंगालने से ही समझा जा सकता है। मेरा जन्म ननिहाल में हुआ और बचपन का एक लंबा हिस्सा ननिहाल में ही या उसके इर्द-गिर्द गुजरा। दादा-दादी तो पिता को बचपन में ही छोड़ गए थे, इसलिए ननिहाल ही हमारा सब कुछ था। मेरी नानी दुनिया की तमाम नानियों की तरह कहानियां सुनाया करती थी। एक ही कहानी को बार-बार सुनना एक अद्भुत अनुभव हुआ करता था। नानी को पता नहीं कितनी कहानियां याद थीं। लेकिन कहानियों की तरह उन्हें पारंपरिक शादी-ब्याह, जन्म-मरण जैसे अवसरों के असंख्य गीत भी कंठस्थ थे। नानी की संतान के रूप में मां के अलावा एक बेटा यानी मामा थे, जो मुझसे कोई पंद्रह बरस ही बड़े थे। मुझे नानी की स्मृति पर आश्‍चर्य होता था और मैं कौतुक भाव से नानी की कहानियों की तरह उनके गीत भी सुनता था। उन गीतों की लय आज भी मेरे भीतर कहीं बहती रहती है, हालांकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे अब याद कर आश्‍चर्य होता है कि कैसे नानी औरतों के जुटते ही गाना शुरु कर देती थीं और कैसे एक गीत से दूसरे गीत पर चली जाती थी? मेरे लिए कविता का यह पहला संसार था, जिसमें मुझे हमेशा आनंद आता था और आज भी घर-परिवार में कई अवसरों पर गीतों को सुनने का मुझे आत्मीय आनंद मिलता है, क्योंकि मेरी मां को भी नानी की तरह बहुत से गीत याद हैं। गीतों के लालच में मैं अक्सर महिलाओं के आसपास ही भटकता रहता था, इसलिए कई बार मजाक का शिकार भी होता था। मुझे भी बचपन में बहुत से गीत याद हो गए थे और मुझे उन्हें याद कर गुनगुनाना अच्छा लगता था। अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मैं कभी खुलकर नहीं गा पाया और शायद यही वजह थी कि मैं गाना नहीं सीख पाया। क्योंकि घरेलू गीत गायन के आयोजनों में हमारे यहां ढोलक जैसा कोई ताल वाद्य नहीं होता था, इसलिए मुझे सुर की तो समझ आ गई, लेकिन ताल की नहीं आ सकी। आज भी मुझे ताल की कोई समझ नहीं है, सुर की थोड़ी बहुत है।

तो बचपन के इस माहौल में मेरे भीतर कविता के शैशव संस्कार पैदा हुए। मेरे पिता रात में सोते वक्त हमें किस्से-कहानियां सुनाते और कुछ गीत भी। पिता प्रायः भजन सुनाते थे और उनमें महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’ अवश्‍य होता था। इसके अलावा ‘रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलजुग आएगा’ भी प्रायः सुनाते थे। पिता मिल में काम करते थे, फिटर थे और सीटू के मेंबर थे। हमारे घर में ‘लोकलहर’ और ‘मुक्तिसंघर्ष’ पिता लेकर आते थे। एक दैनिक और साप्ताहिक अखबार भी आता था। मां बेहद धार्मिक स्वभाव की हैं, पिता इसके विपरीत सुविधाजनक रास्ता चुनने वाले। धार्मिक पाखण्ड के विरोधी और सहज जीवन दर्शन को मानने वाले। इस तरह मेरी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। पिता हमें पढ़कर आगे बढ़ते देखना चाहते थे, लेकिन पाठ्यक्रम के अलावा उन्हें सिर्फ अखबार-पत्रिका ही पसंद थे। उनकी डायरी में मैंने चिकित्सा के नुस्खे पढ़े हैं। वे संपादक को पत्र लिखने वाले पाठक हैं। बहरहाल वे इस पर नाराज रहते थे कि मैं स्कूल के अलावा भी किताबें चोरी से पढता हूं, खास तौर पर वे उपन्यासों से चिढ़ते थे। मैं बचपन में तीन-चार घण्टों में एक मोटा उपन्यास समाप्त कर देने वाला पाठक इसलिए था, कि पिता के आने से पहले किसी कोने में बैठकर पढ़ डालता था। ये लोकप्रिय किस्म के उपन्यास होते थे, जो चवन्नी में एक दिन के लिए किराए पर मिलते थे। मैं बचपन में पढ़ी जिस चीज को आज तक पढ़ता हूं वो है भगत सिंह का लेख, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’। इस लेख ने ही मेरे भीतर नास्तिकता ऐसी पैबस्त की कि तमाम व्रत रखने वाला बालक कठोर नास्तिक हो गया।

फिल्मी गीत, लोक गीत और पारंपरिक गीतों ने मुझे हमेशा लुभाए रखा। लेकिन मैं तब भी कविता नहीं लिखता था। मेरे पिता ने मुझे सरकारी स्कूल से निकालकर एक निजी स्कूल में भर्ती करा दिया, क्योंकि मैं पढ़ाई में टोळ था। यहां का अनुशासन बहुत कठोर था। छठी कक्षा में आने पर एक नए अध्यापक आए, गणेश राम गोठवाल। छह फुट लंबे गणेश जी आशु कवि थे। स्कूल में होने वाले समारोहों के लिए विशेष गीत वे तुरंत लिख देते थे। वे हमारी ही जाति के थे और मेरे पड़ौस में ही कमरा किराए पर लेकर रहते थे। एक बार कक्षा में उन्होंने सबसे दो पीरियड की अवधि में कुछ भी लिखने की छूट दी तो मैंने एक काल्पनिक यात्रा का लंबा संस्मरण लिख डाला। इससे गुरुजी पहली बार मुझसे प्रभावित हुए थे और मुझे शाम के वक्त अपने यहां आकर पढ़ने के लिए बुला लिया। घर वालों को कोई एतराज नहीं था। मैं उन्हें गुरू कहने लगा। वे साहित्य में कोविद की उपाधि प्राप्त कर चुके थे और अब जयपुर में अंग्रेजी में बी.ए. कर रहे थे। उनके यहां पाठ्यक्रम के अलावा मैंने दूसरी चीजें भी पढ़ना शुरु कर दिया था। वे हमें हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। मैं उनकी किताबों में से रोज कुछ पढ़ने लगा। शायद उनके पाठ्यक्रमों की किताबें थीं। उनमें अंग्रेजी साहित्यकारों को हिंदी माध्यम से पढ़ा, यानी टेक्स्ट को हिंदी में पढ़ा। कीट्स, शैली, बायरन, मिल्टन, शेक्सपीयर आदि कई रचनाकारों को मैंने पढ़ डाला था। मुझे गद्य लिखने में अब और मजा आने लगा था। हिंदी के सवालों के रचनात्मक ढंग से जवाब देने लगा था, शायद गुरुजी को प्रभावित करने के लिए और उनका कृपापात्र बने रहने के लिए। कैशोर्य के उन दिनों में कक्षा में सब कविताएं लिखते थे और मैं गद्य। मुझे तुक मिलाने में कोफ्त होती थी, लेकिन काव्याभ्यास के लिए या गुरुजी की प्रेरणा से कभी-कभार कुछ कवितानुमा लिख लेता था। गुरुजी ने कहा अतुकांत ही लिख लिया करो। तो एक नया रास्ता मिल गया। प्राइवेट स्कूल आठवीं तक ही था, इसलिए फिर सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा। गुरुजी वहीं रहते थे। उनके पास जाना बंद नहीं हुआ।

इस बीच पिता की मिल में तालाबंदी हो गई और हम भयानक आर्थिक संकट में आ गए। गुरुजी ने कमरा छोड़ दिया और हमारे घर रहने लगे। किराए-खाने के बदले कुछ देने लगे। मैं कॉलेज पहुंचने तक किताबी कीड़ा हो चुका था। जो भी मिलता पढ़ डालता था। दूर दराज के गांवों में अपने मित्र और रिश्‍तेदारों को लंबी चिट्ठियां लिखने लगा था। इस तरह मेरा लिखना चलता रहा। एक बार गर्मियों की छुट्टियों में एक जासूसी उपन्यास के तीन सौ पेज लिख डाले थे। फिर कथानक इतना गड़बड़ा गया कि उसे अधूरा छोड़ना पड़ा। कुछ कहानियां लिखीं। इंदिरा गांधी की हत्या से मैं बेहद विचलित हुआ और एक कविता के रूप में कुछ लिखा, जो गुरुजी ने इतना दुरुस्त कर दिया कि वह कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो मुझे सिर्फ नाम छपने की खुशी हुई। लगा कि इसमें मेरा खुद का तो कुछ ही नहीं। अगले साल कॉलेज की पत्रिका में जब कहानी प्रकाशित हुई तो बेहद खुशी हुई, क्‍योंकि यह मेरी अपनी रचना थी। फिर अपनी रचनाएं अखबारों को भेजने लगा, लेकिन अखबारों में मेरी कहानियों की कोई पूछ नहीं थी। मुझे लगा कि कहानी पर इतनी मेहनत करनी पड़ती है और कोई प्रकाशित ही नहीं करता। फिर मुझे साहित्यिक पत्रिकाओं का पता चला और मैंने जब ये पत्रिकाएं पढ़ना प्रारंभ किया तब पता चला कि इस वक्त किस तरह का लेखन चल रहा है। मैंने अपनी कहानियों को बहुत संक्षिप्त करते हुए उन्हें नई कविता में लिखने की कोशिश की। पत्रिकाएं पढ़ने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे मेरा झुकाव कहानी से कविता की ओर बढ़ गया। प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में जाने लगा। लेखकों से संपर्क बढ़ने लगा और इसी बीच प्रेम के अंकुर फूटने लगे। प्रेम सभी को कवि बना देता है। मैंने पहले प्रगतिशील विचारों को आधार बनाकर अपने निजी अनुभव संसार को कविता में उतारा और फिर प्रेम कविताओं की ओर बढ़ा। प्रगतिशील चेतना अब तक मुझे इतने संस्कार दे चुकी थी कि प्रेम कविताओं में भी मैं संसार के दुख, दर्दों को नहीं भूल सका।

इस पृष्ठभूमि में मेरी काव्य यात्रा की शुरुआत हुई। मैं कभी भी तय करके कविता नहीं लिखता कि इस विषय पर कविता लिखनी है। प्रारंभ में जरूर इस तरह की कोशिश की, अब तो कविता ही मुझ तक आती है। कहानियों से कविता की ओर आने के कारण मेरी कविताओं में चरित्रों की प्रधानता रही है। बहुत सी कविताएं ऐसी हैं, जिन पर मैं कहानी लिख सकता था, लेकिन मुझे लगा कि कविता में उस चरित्र को ज्यादा अच्छे ढंग से लिख सकता हूं, सो कविता में ही पूरा चरित्र उतार दिया। लोगों से मिलना और उनसे बतियाते हुए उनके चरित्र के किसी खास पहलू को कविता में मैं किसी ना किसी रूप में ले आता हूं। कहानियां लिखने के दौर में मैंने चरित्रों का अध्ययन करना जो शुरु किया था, वो शगल आज भी जारी है। मैं बस में, राह चलते, व्यर्थ घूमते हुए लोगों का, उनके व्यवहार को बहुत बारीकी से देखता और नोट करता हूं। समसामयिक घटनाओं को निरंतर कई कोणों से विश्‍लेषित करना मेरे एकांत का प्रिय शगल है, इससे मैं अपने आपको एक तर्कशील मनुष्य बनाए रखता हूं। यह संभवतः मार्क्‍सवाद के अध्ययन का नतीजा है। मैं जब इस क्षेत्र में सक्रिय हुआ था तो सब लोग द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की बात किया करते थे। मैंने हिंदी और अंग्रेजी में इस विषय पर कई किताबें पढ़ीं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कहीं से मुझे स्टालिन की एक छोटी पुस्तिका मिली, जिससे मैं पहली बार में ही समझ गया कि द्वंद्वात्मकता आखिर है क्या? बाद में मैंने इस पुस्तिका को कोई बीसियों बार पढ़ा और अपने भीतर इसे गहरे पैबस्त कर लिया। आज मुझे उस पुस्तिका का एक वाक्य भी याद नहीं है लेकिन वो चेतना में इस कदर पैठी है कि किसी भी घटना का विश्‍लेषण करने में मेरी मदद करती रहती है। मेरा मानना है कि एक कवि को कविता में तार्किक होना चाहिए। हिंदी कविता में इतना कुछ अतार्किक लिखा जा रहा है कि कई बार गुस्सा आता है, जब प्रयोग या चमत्कारिक प्रभाव के नाम पर अवैज्ञानिक बातें कह दी जाती हैं और सराही भी जाती हैं।

मैं कई बार महीनों तक कविता नहीं लिखता और कई बार ऐसा भी हुआ है कि एक ही रात में बीस-पच्चीस कविताएं लिखी गईं। सायास तो मुझे गद्य ही लिखना पड़ता है, कविता स्वतः चली आती है। चिंतन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और जब कोई विचार पूरी तरह पक जाता है तो वह कविता में व्यक्त हो जाता है। मेरी कवि मानसिकता को मैं एक रूमानी भावभूमि के रूप में देखता हूं, जिसमें किसी भी चीज को बेहद आत्मीयता के साथ आत्मसात करते हुए मैं उसे निजी और सार्वजनिक दोनों एक साथ बना देता हूं। इसमें कई बार सफल होता हूं और कई बार असफल भी। चीजों का मानवीकरण करना मेरी प्रिय रूचि है और यह परंपरा से निसृत बोध है, जो ऋग्वेद की ऋचाओं से चलकर कई कवियों की कविताओं से पढ़कर मैंने अर्जित किया है। मिथक और इतिहास मुझे प्रिय है, लेकिन वो कविता में एक समकालीन उपस्थिति के रूप में आते हैं। जब मैं आधुनिक जल प्रबंधन को देखता हूं तो मुझे इतिहास में नष्ट हुई नदी-घाटी सभ्यताएं हाल की घटनाएं लगती हैं, और हरसूद भी मोहंजोदड़ो के काल का लगता है। मैं घनघोर नास्तिक आदमी हूं, इसलिए मेरी कविताओं में उम्मीद सिर्फ मनुष्य के कर्म या प्राकृतिक शक्तियों से ही मिलती है। जयपुर के मूर्तिकारों के मोहल्ले को बरसों देखने के बाद मैंने ‘मूर्तिकार’ काव्य-त्रयी लिखी। उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है-

ध्यान से सुनो
छैनी हथौड़े का यह संगीत
खो जाओ
मेहनत और कारीगरी की इस सिम्फनी में

एक आदमी
तराश रहा है विधाता को

मेरा बचपन जिन इलाकों में बीता वहां मुस्लिम आबादी बहुत थी। मेरे बहुत-से दोस्त मुस्लिम हैं और मेरे पिताजी के भी। हमारा उन परिवारों से घरेलू रिश्‍ता है। बहुत से ऐसे घरों में पहले शादी के मौके पर तवायफें आती थीं और गजल, कव्वाली की महफिलें हुआ करती थीं। मेरी काव्य मानसिकता पर उस वक्त की कव्वालियों का गहरा असर है। सूफियाना कलाम आज भी संगीत में मेरी पहली पसंद है। मुझ जैसे नास्तिक को इसीलिए कविता में चीजों का मानवीकरण करना अच्छा लगता है। मेरे अवचेतन में बारहवीं कक्षा में पढ़े गए मीर और ग़ालिब के दीवान गहरे बसे हुए हैं, जब मैंने ग़जलनुमा कई कविताएं लिखकर एक पूरी कॉपी भर दी थी। मेरी याददाश्‍त बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन मैं उसकी कमी इस तरह पूरी करता हूं कि बचपन से ही किसी भी चीज को गहराई से अपने मस्तिष्क में गहरे से उतार लेता हूं, जो समय आने पर किसी ना किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है। बहुत संभव है मेरी कविताओं में ऐसे कवियों की काव्य पंक्तियों का प्रभाव आ गया हो। ग़ालिब और मीर के अध्ययन का एक प्रभाव मेरी चेतना पर यह पड़ा कि मेरी कविताएं सहज बनी रहीं। भाषाई दुराग्रहों से दूर, एक किस्म की हिंदुस्तानी भाषा में रची बसी। मैंने कभी सायास कोशिश नहीं की कि कविता में शब्द किस भाषा से आ रहे हैं, हिंदी, उर्दू और राजस्थानी तीनों मेरे लिए सहज हैं। मेरी कविताओं में अगर कोई भौगोलिकता की जांच करे तो उसमें रेतीले रेगिस्तान की व्यापक छवियां दिखाई देंगी, क्योंकि मरुस्थल मेरी चेतना में गहरे बसा हुआ है। हमारा पुराना घर रेत के एक टीले के साये में था और दूर-दूर तक रेत ही रेत थी, जिसमें खेलते हुए मेरा बचपन बीता।

लिखने के बाद मैं अपनी कविताओं को लंबे समय के लिए भूल जाता हूं। जब कभी वक्त मिलता है पलटकर देखता हूं और उन पर कई दृष्टिकोणों से विचार करता रहता हूं। जब अपने लिखे शब्दों से मोह नहीं रह जाता, मैं उनका संपादन करने लगता हूं और यह प्रक्रिया खासी लंबी चलती है। कई बार कोई कविता मुझे दस बरस बाद पूर्ण लगती है। मेरी प्रकाशित कविताओं से कहीं अधिक अप्रकाशित कविताएं हैं, क्योंकि मैं कविताओं के प्रकाशन को लेकर बहुत ही सशंकित रहता हूं। मुझे जब तक नहीं लगता कि कोई कविता पूरी तरह पाठकों के लिए उस रूप में तैयार नहीं हुई है, मैं प्रकाशन तो दूर उसका पाठ भी नहीं करता। स्वभाव से मैं आज भी बहुत संकोची हूं और कविताओं के मामले में तो इस कदर कि अपनी कविता की डायरी कई बार जानबूझकर भूल जाता हूं। मुझे कविता सुनाना तभी आनंददायक लगता है जब अपनी कविताओं को लेकर बहुत गहरी आश्‍वस्ति हो कि इन कविताओं को सुनाने से मेरी कवि छवि पर कोई गलत असर नहीं पड़ेगा और लोगों को ये पसंद आएंगी। और सुनाते वक्त मैं इस बात का खयाल रखता हूं कि पाठ अच्छा हो। मेरा पाठ सुधारने में रंगमंच के साहचर्य का भी योगदान है। राजेश जोशी और कृष्‍ण कल्पित जैसे कवियों का पाठ सुनकर भी खुद को बहुत सुधारा है मैंने, फिर भी लगता है कि मैं अपनी कविताओं का कोई बहुत अच्छा पाठ नहीं करता।

मैं जब कविता नहीं लिख रहा होता तो गद्य लिखता हूं। आजकल तो मांग पर भी लिखना पड़ता है, इसलिए कई बार गद्य में ही काव्य का प्रभाव पैदा करने का प्रयत्न करता हूं। अखबारी लेखन ने एक चीज सिखाई कि सहज और सरस लेखन ही पाठक को प्रभावित करता है, इसलिए मेरी कविता में भी यह चीजें आईं। मैं अखबारी लेखन इसलिए भी करता हूं कि एक बड़े समुदाय तक अगर आपको पहुंचना है, आपके विचारों को ले जाना है तो उन माध्यमों का प्रयोग करना ही चाहिए, क्योंकि आखिरी मकसद तो यही है ना कि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाएं। एक सच्चे वामपंथी रचनाकार का काम पहले जनता को शिक्षित करना और फिर अपनी रचना पहुंचाना होता है।

लड़कियां, स्त्रियां, बच्चे, मजदूर, कामगार, दलित, वंचित, अल्पसंख्यक और प्रकृति मेरे लिए कविता में पहली प्राथमिकता पर हैं। मैं भव्यता पर नहीं अभावों पर कविता लिखता हूं, क्योंकि मेरा जीवन बेहद अभावों में बीता है। मैं बचपन में जिस निजी स्कूल में पढ़ता था, उसका मालिक-हैडमास्टर मेरे जैसे दलित विद्यार्थियों को बहुत पीटता था और यह भविष्यवाणी करता था कि तुम जिंदगी में होटल में कप-प्लेट धोने से बड़ा काम नहीं कर सकते, क्यों वक्त बर्बाद कर रहे हो पढ़ाई में? मुझे लगता है कि मैं उसकी भविष्यवाणी को दूसरी तरह सही सिद्ध कर रहा हूं। समाज में कितनी गंदगी भरी पड़ी है चारों तरफ, उसकी सफाई कौन करेगा? अगर मेरी कविता इस गंदगी का एक अंश भी साफ कर सके तो इसी में मेरी कविता की सार्थकता होगी। मुझे लोगों से बहुत प्यार है फिर वो चाहे भारत के हों या बाहर के, मैं अपनी कविताओं में उन सबके दुख दर्द, सुख दुख की बातें करना चाहता हूं।

9 comments:

  1. आपको मेरी बधाई और शुभकामनाएं |

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  2. आपका आत्मकथ्य आपकी कविताओं के बारे में भी काफी कुछ कह रहा है ....वैसे भी कहा गया ही है कि विश्व का सर्वाधिक उत्कृष्ट लेखन अभाव के बीच पले बढे लोगों द्वारा किया गया है ...आपकी कविताओं में दबे छिपे गुस्से को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है जिसका जिक्र मैंने आपकी कवितायेँ पढने के तुरंत बाद पहले भी किया था ...और शायद यह गुस्सा कई बार आपको पूर्वाग्रह से ग्रसित भी करता है ...माफ़ कीजियेगा यदि छोटा मुंह बड़ी बात लगे ....क्योंकि आपकी साहित्यिक प्रतिभा के आगे मेरा ज्ञान न्यूनतम है ....

    आजकल मैं भी The Golden Treasury (Oscar Williams ) पढ़ रही हूँ हालाँकि साहित्यिक अंग्रेजी की समझ मेरी बहुत कम है ...इसमें शेक्स्पीअर , हॉकिन्स , कीट्स , थोमस मूरे , बेन जोन्सन आदि कवियों की बेहतरीन रचनाएँ हैं ...

    आपकी जीवनगाथा बहुत लोगों को प्रेरणा देगी ...बहुत शुभकामनायें ....!!

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  3. हमारे बीच का यह ख़ाकसार अपने आपको समृद्ध कर रहा है.... नये पड़ावों को छू रहा है....

    वक्तव्य में कई चीज़े उम्दा लगीं....

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  4. अरे वाह !!!!!!!!! आपके बारे में कात्यायनी जी ने लिखा ? मेरी प्रिय कवियत्री . बहुत सुखद है यह समाचार .हार्दिक बधाई

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  5. आज साहित्यकार प्रेम चन्द गान्धी को नये सिरे से जाना.

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  6. सबसे पहले तो इस पुस्तक के लिए बधाई। इस आत्मकथ्य में आपके बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिला, जिसके बारे में जानने की उत्कंठा हमेशा बनी रहती थी, लेकिन ज्ञात-अज्ञात कारणों से पूछ नहीं पाता था। किसी लेख में प्रेमचंद और गांधी के सम्मिलन के बारे में भी बताएं तो अच्छा लगेगा।

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