Sunday 16 May, 2010

बेचैन आत्‍मा का कवि : इयुजीनियो मोन्‍ताले

समकालीन भारतीय कविता, विशेष रूप से हिंदी कविता को विश्‍व के जिन कवियों ने बेहद प्रभावित किया है, उनमें इतालवी कवि इयुजीनियो मोंताले का नाम प्रमुख है। आधुनिक इतिहास, दर्शन, प्रेम और मानवीय अस्तित्व की विविध दुविधाओं और बेचैनियों को गीतात्मक सौंदर्य और अबूझ रहस्यों के साथ प्रस्तुत करने वाले मोंताले को 1975 में नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया था। 12 अक्टूबर, 1896 को व्यापारी परिवार में जन्मे मोंताले छह भाई-बहिनों में सबसे छोटे थे। खराब सेहत के चलते बचपन में पढ़ाई आधी-अधूरी रही। संगीत का शौक था और गायक बनने का सपना लिए मोंताले संगीत सीखने लगे। लेकिन अपने गुरु की असामयिक मृत्यु से विचलित हो मोंताले ने संगीत शिक्षा छोड दी और साहित्य की तरफ चले आए। उनकी रूचि इतालवी और यूरोपीय साहित्य के साथ दर्शनशास्त्र में थी। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण उन्हें अपने मन से कुछ भी करने की स्वतंत्रता थी। इसलिए कुछ दिन उन्होंने एकाउंटेंट की नौकरी भी की और प्रथम विश्‍वयुद्ध में सैन्य अधिकारी के रूप में देश की सेवा भी की। लेकिन किताबों के प्रति अपने अगाध प्रेम की वजह से वे पूरी तरह साहित्य की दुनिया में लौट आए। पुस्तकालयों में घंटों बैठकर पढते और लिखते। कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हुए उन्होंने कुछ समय एक प्रकाशन संस्थान में भी काम किया। 1928 में वे एक अनुसंधान पुस्तकालय के निदेशक नियुक्त किए गए, जहां से उनकी आलोचना यात्रा आरंभ होकर नए आयामों तक पहुंची।

मोंताले राजनैतिक तौर पर फासीवाद के विरोधियों के साथ थे, इसलिए उनका पहला कविता संग्रह 'बोन्स ऑफ द कटलफिश' 1925 में फासीवाद विरोधी प्रकाशक पिएरो गोबेती ने प्रकाशित किया। मोंताले परिवार गर्मियों के दिन  एक छोटे से गांव लिगूरिया में बिताया करता था। मोंताले ने अपने पहले संग्रह की कविताओं में उसी गांव के श्रमशील लोगों की जिंदगी, उस वातावरण में अपने एकांतिक अस्तित्व और उसमें छाई हुई हताशा और नैराश्‍य के बीच वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत किया। प्रथम विश्‍वयुद्ध की निरर्थकता ने समूचे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया और मोंताले भी इससे अछूते नहीं रहे। मोंताले के पहले संग्रह में एक प्रसिद्ध कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-

आज हमारे पास आपसे कहने के लिए इतना भर है कि
हम वो नहीं हैं कि जो हम होना नहीं चाहते

1933 में मोंताले की मुलाकात यहूदी-अमेरिकी शोधकर्ता इरमा ब्रेंडिस से हुई और जल्द ही उनकी मित्रता मशहूर हो गई। दांते पर शोधरत इरमा को लोग दांते की प्रेमिका बिएत्रिस की तरह मोंताले की बिएत्रिस कहने लगे। 1938 में फासीवादी सरकार ने आते ही मोंताले को निदेशक के पद से हटा दिया। अगले साल उनका सबसे महत्वपूर्ण संग्रह 'द ऑकेजंस' प्रकाशित हुआ। इसे इतालवी साहित्य में प्रथम विश्‍वयुद्ध के बाद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है। इस संग्रह में एक तरफ तो फासीवाद के विरोध में स्वर उठाती कविताएं हैं तो दूसरी तरफ इरमा को क्लीजिया के रूप में संबोधित कर लिखी गई प्रेम कविताएं हैं। मानव मन की अनंत गहराइयों का उत्खनन करते हुए मोंताले अपने निजी संसार को भी कविता में अपनी दुरूह शैली में सार्वजनिक बना देते हैं। बेहद निजी और अबूझ संसार को अपनी कविता में रचते हुए मोंताले व्यक्तिगत रूप से भी गैर सांसारिक हो जाते हैं। संगीत की दुनिया में उन्हें सुकून मिलता है और वे इटली के सबसे बड़े अखबार कूरियर डेला सेरा के लिए अपने नियमित स्तंभ में संगीत की चर्चा करते रहते हैं। अपनी कविता की एकांतिक दुनिया और दुरुहता के बारे एक बार उन्होंने कहा था, 'एक कवि कभी नहीं जानता और अक्सर जान ही नहीं पाता कि वह किस पाठक को संबोधित कर लिख रहा है।'
 
लंबे समय तक मोंताले कविता की दुनिया से दूर रहे और विश्‍व के महान साहित्यकारों की रचनाओं का इतालवी में अनुवाद करते रहे। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद वे मिलान चले गए। यहां वे अपनी आत्मकथा लिखने लगे जो कई सालों में कई बार प्रकाशित होते अंततः दो खण्डों में पूरी हुई। 1956 में उनका महत्वपूर्ण संग्रह 'द स्टोर्म एण्ड अदर पोएम्स' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद उपजी स्थितियों का काव्यात्मक और आलोचनात्मक आख्‍यान है। इसमें हिटलर, मुसोलिनी और क्लीजिया के साथ स्वयं कवि अपने समय की निर्मम आलोचना करता हुआ जंग की खिलाफत करता है और मानवता की बात करता है। चौथा संग्रह 'सेतूरा' 1962 में प्रकाशित हुआ। इसमें मोंताले बेहद व्यंग्यात्मक लहजे में दुनिया की विद्रूपताओं का वर्णन करते हैं। 'धुंधली-सी रोशनी हुई/जब इंसान ने सोचा/कि वह छछूंदरों और झींगुरों से बहुत बड़ा है।'

1967 में उन्हें इटली की सीनेट का आजीवन सदस्य बनाया गया। उन्हें मिलान, केंब्रिज और रोम विद्गवविद्यालयों ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। 1975 में उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। 12 सितंबर 1981 को उनका निधन हुआ। मोंताले की मृत्यु के बाद 1996 में प्रकाशित उनकी डायरी कवियों, काव्यप्रेमियों और आलोचकों के बीच बहुत लोकप्रिय है।

2 comments:

  1. @ एक कवि कभी नहीं जानता है ...किसे संबोधित करके लिख रहा है ....
    किसी की कविताओं का तुम कौन ...मुश्किल खुद कवि का बताना भी ....बहुत सही ...!!

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  2. hello... hapi blogging... have a nice day! just visiting here....

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