यूरोप के छोटे-से देश ऑस्ट्रिया के साहित्य की तरफ दुनिया का ध्यान पहली बार तब आकर्षित हुआ जब नोबल पुरस्कार के 110 साल के इतिहास में पहली बार 2004 में, यहां की चर्चित नाटककार और उपन्यासकार ऐलफ्रीडे जेलेनीक को दुनिया के सबसे बड़े साहित्य सम्मान से नवाजा गया। इस पर खासा विवाद भी हुआ, क्योंकि यूरोप के स्वतंत्र समाज में भी जेलीनेक के लेखन को कई लोग अश्लीलता की श्रेणी में मानते हैं, लेकिन ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि जेलीनेक अपनी विवादास्पद लेखन शैली में कितनी चिंता और गहराई के साथ सामाजिक विद्रूपताओं को बेनकाब कर रही हैं। उनकी लेखनशैली और विवादित विषयों पर लिखने के मूल में जाएं तो कारण आसानी से समझ में आता है।
जेलीनेक का जन्म 20 अक्टूबर, 1946 को स्तीरिया प्रांत में हुआ। पिता चेक-यहूदी मूल के थे और मां विएना के प्रतिष्ठित परिवार से थीं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पैतृक परिवार के बहुत से लोग नाजियों की बर्बरता के चलते मारे गए और जेलीनेक के पिता जिंदा बचने वालों में से एक थे। जेलीनेक की मां की इच्छा थी कि जेलीनेक कम उम्र में ही संगीत की दुनिया में नाम कमाए और यही सोचकर वे बेटी को लेकर विएना चली आईं जहां एक छोटे-से घर में मां-बेटी रहने लगे। मां के कठोर अनुशासन और जिद के आगे चार साल की उम्र में ही जेलीनेक को संगीत का कड़ा अभ्यास शुरु करना पड़ा। सामान्य शिक्षा के साथ संगीत का गहन अभ्यास करते हुए जेलीनेक ने 14 साल की उम्र में पियानो के लिए विशेष शिक्षा के लिए एक मशहूर संस्था में प्रवेश लिया। 4 साल बाद हाई स्कूल पास कर उन्होंने विएना विश्वविद्यालय में रंगमंच, कला और इतिहास विषयों के अध्ययन के लिए दाखिला लिया। इस बीच जेलीनेक कविताएं लिखने लगीं थीं और सत्रह साल की उम्र में पहली कविता प्रकाशित हुई। विश्वविद्यालय की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वो साहित्य की दुनिया में आ गई। पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और गद्य रचनाओं का नियमित प्रकाशन होने लगा और 1967 में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। कविता के साथ जेलीनेक ने महिलाओं की समस्याओं को लेकर नाटक लिखना शुरु किया तो खासी शोहरत मिलने लगी। नारी की यौन प्रश्नाकुलता को जेलीनेक ने बड़ी शिद्दत से उठाया और पुरुष वर्चस्व को चुनौती दी। इस बीच छात्र संगठनों से जुड़ाव के कारण उनके लेखन में नारी समस्याओं के साथ दूसरी सामाजिक समस्याएं भी समाहित होने लगीं। 1970 में उनका एक उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुआ, जिसे हिंदी में ‘हम बच्चे नहीं चारा हैं’ कहा जा सकता है। इस उपन्यास में एक तरफ तो खुद जेलेनीक के बचपन का प्रभाव है और दूसरी तरफ छात्रों के साथ रहने के अनुभवों से उपजी संवेदनशीलता। किस प्रकार मां-बाप बच्चों पर अपने सपने लाद देते हैं और उनके स्वप्न छीन लेते हैं, इसे व्यंग्यात्मक शैली में जेलीनेक ने बहुत खूबसूरती से दर्शाया है। जेलीनेक की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें 1973 में ऑस्ट्रिया की राष्ट्रीय छात्रवृति प्रदान की गई।
1972 में दूसरा उपन्यास आया, जिसमें जेलीनेक ने ऑस्ट्रियाई समाज की आमबोलचाल की भाषा और संस्कृति को लेकर विद्रोही तेवर में कड़ी आलोचना करते हुए बताया कि बेहतर जीवन का दावा बिल्कुल झूठा है और वो समाज में कहीं दिखाई नहीं देता। महिलाओं के लिए वर्जित विषयों पर लिखते हुए जेलीनेक ने सारी परंपराएं तोड़ दीं और देश की चर्चित महिलाओं में शुमार हो गईं। 1974 में वे कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन गईं और लेखन के साथ राजनीति में भी सक्रिय हो गईं। अगले ही साल उनका उपन्यास ‘वूमन एज लवर्स’ बहुत लोकप्रिय हुआ, इसे जर्मन भाषा पढ़ने वाले तमाम देश में प्रशंसा मिली। जेलीनेक के लेखन की खासियत यह है कि वो जो कथानक बुनती हैं, उसमें परिस्थितियां बहुत उलझी हुईं और जटिल होती हैं। पाठक हतप्रभ रह जाता है कि इस समाज में हिंसा और दमन इतने रूपों में व्याप्त है कि सहसा हमारा ध्यान ही नहीं जाता। दमन के शिकार लोगों को किस प्रकार बेबसी के साथ घुटने टेकने पड़ते हैं? मनोरंजन उद्योग किस तरह लोगों की चेतना को कुंद कर देता है और लोग वर्ग एवं लिंग के आधार पर होने वाले अन्याय के किसी भी प्रकार के प्रतिरोध के काबिल नहीं रह जाते? ऑस्ट्रियाई साहित्य में जेलीनेक जैसा स्वर पहली बार देखा गया है, इससे पहले के साहित्य में समाज की आलोचना तो होती थी, लेकिन बहुत संभ्रांत ढंग से।
जेलीनेक का उपन्यास ‘लस्ट’ दुनिया की कई कई भाषाओं में अनूदित होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है। इस उपन्यास में उन्होंने बुनियादी तौर पर सभ्यता और संस्कृति को लेकर ही कई सवाल उठाए हैं। जेलीनेक का मानना है कि जब तक समाज में महिलाओं पर होने वाली हर स्तर की हिंसा खत्म नहीं होगी, इस कथित सभ्यता पर सवाल उठते रहेंगे। उनकी लेखनी को किसी खास तरह से व्याख्यायित करना संभव नहीं है, क्योंकि उनके लेखन का दायरा बहुत विस्तृत है। गहरी काव्यात्मकता और व्यंग्य के साथ जेलीनेक अपने कथानक के साथ चलने वाली आवाजों को भी पूरा महत्व देते हुए एक अजीब किस्म का रसायन बनाती हैं कि पहले पाठ में सामान्य पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता, लेकिन धीरे-धीरे रहस्य खुलने लगते हैं, साथ होने वाली घटनाएं आवाजों के माध्यम से एक पूरे संसार की रचना करती हैं, जिसमें लेखिका का दर्द पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रकट होता है। हिंदी में एक प्रकाशक ने ‘लस्ट’ को मूल जर्मन से अनुवाद करवा कर छापा तो है, लेकिन अनुवादक ने देशज अनुवाद करने के प्रयास में जो कुछ किया वह भारतीय माहौल में अश्लीलता ही माना जाएगा। इसलिए प्रकाशक ने इसे जारी नहीं किया है।
एलफ्रीडे जेलीनेक बहुत मुखर लेखिका हैं। उन्होंने अपने देश की दक्षिणपंथी पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का खुलकर विरोध किया तो सरकार ने उन पर देशद्रोही होने का आरोप लगा दिया। लेकिन जेलीनेक की मुखरता का कोई अंत नहीं है। उन्हें लेखन के लिए उपन्यास और नाटकों पर कई पुरस्कार और सम्मान मिले। 2004 में जब नोबल पुरस्कार की घोषणा हुई तो वे लेने नहीं गई। उन्होंने कहा कि इतना बड़ा सम्मान मिलना प्रसन्नता की बात है, लेकिन मुझसे कई बड़े रचनाकार हैं, जो इसके हकदार हैं। करीब दो दशकों से वे अपने घर में ही रहती हैं और कहीं आती जाती नहीं। उन्हें सामाजिक जीवन से और प्रशंसकों की भीड़ से बड़ा डर लगता है। कठोर अनुशासन में बीते बचपन का असर ही है यह शायद कि जेलीनेक हवाई जहाज में बैठने से और बाजार जाकर खरीदारी करने से भी डरती हैं। उनके लेखन में व्याप्त भय और हिंसा का वातावरण वैश्विक है, लेकिन कितनी बड़ी विडंबना है कि दुनिया को भय से मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली कलमकार अपने ही डर की वजह से विएना के अपने ही घर में खुद कैद होकर बैठी है।
यह आलेख राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में 6 जून, 2010 को 'विश्व के साहित्यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।
इतने व्यस्त रहे कि आपके ब्लॉग पर काफी दिनों बाद आये इतनी सारगर्भित पोस्ट्स देखकर दंग रह गए !. हर पोस्ट .बहुत ध्यान से पढ़कर जानकारी एकत्रित करनेवाली है .. इत्मीनान से पढेंगे और हर पोस्ट पर टिपण्णी करेंगे क्योंकि हम बिना पढ़े nice नहीं लिखना चाहते !
ReplyDeleteHi,
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एलिफ्रेड जेलीनेक के बारे में पढ़ा .. रोचक लगा .धन्यवाद . अनुवाद अगर ऐसा होता कि सौन्दर्यबोध बना रहता तो अश्लील नहीं होने पाता .. क्या ऐसा नहीं है?
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