‘लोग अपनी जिंदगी पुस्तकालयों में खत्म कर सकते हैं। उन्हें सावधान करने की जरूरत है।’ ऐसी रोचक टिप्पणी विश्वसाहित्य में सॉल बैलो के सिवा और कौन कर सकता है। बेहद मामूली और सामान्य से दिखने वाले इंसानों के भीतर कितनी किस्मों के चरित्र हो सकते हैं, यह जानना हो तो सॉल बैलो को पढ़िये, जहां हंसते, खिलखिलाते, धीर-गंभीर, आवारा, हताश, उन्मुक्त, मस्त, पस्त और ना जाने कितने चरित्र अपने पूरे वजूद के साथ सिनेमा की तरह चलते-फिरते नजर आते हैं। इन चरित्रों के सर्जक सॉल बैलो के यहूदी माता-पिता 1913 में रूस से कनाडा पहुंचे। यहीं 10 जून, 1915 को सॉल बैलो का जन्म हुआ। एक पराए देश में संघर्षपूर्ण तरीके से जीवनयापन करते माता-पिता के साथ सॉल बैलो का बचपन गुजरा, जिसमें मां के वो पुराने किस्से शामिल थे, जब मां सुनाया करती थी कि रूस में वो कैसे नौकर-चाकरों से भरे घर में रहती थी। अलग-अलग राष्ट्रीयताओं वाले अपने हमशहरी लोगों के बीच नौ बरस की उम्र तक सॉल बैलो कनाडा के मांट्रियल शहर में रहे। यहां पिता अब्राहम शराब का गैरकानूनी कारोबार करते थे। एक बार पिता को पीटा गया। इसके बाद परिवार अमेरिका के शिकागो शहर चला आया। यहां पिता ने नया आयात व्यापार शुरु किया। यहीं सॉल बैलो की शिक्षा हुई। धार्मिक विचारों वाली मां चाहती थी कि सॉल बैलो संगीत के क्षेत्र में जाए, लेकिन सॉल बैलो को यह पसंद नहीं था। किशोरावस्था में एच. बी. स्टो का विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘अंकल टॉम’स कैबिन’ पढ़कर सॉल बैलो ने तय कर लिया कि लेखक बनना है।
सत्रह साल की उम्र में मां की मृत्यु से सॉल बैलो बेहद विचलित हो गए। स्कूली शिक्षा के बाद सॉल बैलो साहित्य में ही उच्च शिक्षा लेना चाहते थे, लेकिन उन दिनों यहूदियों के खिलाफ हर तरफ बेहद नफरत का माहौल था और विश्वविद्यालयों के मानविकी विभागों में तो बहुत ही खराब वातावरण था। लिहाजा सॉल बैलो ने साहित्य के बजाय नृतत्वशास्त्र और समाजविज्ञान में पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई के दौरान साहित्य के एक प्रोफेसर ने उनसे कह दिया कि कोई यहूदी ऐसी अंग्रेजी नहीं सीख सकता, जिससे लेखक बना जाए। बात चुभने वाली थी, लेकिन सॉल बैलो ने तो बचपन में ही लेखक बनने की ठान ली थी। वे लिखते रहे, लेकिन प्रकाशन नहीं हुआ। उन्होंने अध्यापक की नौकरी की और एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के संपादन विभाग में भी कुछ समय काम किया। दो साल वे अमेरिकन मर्चेंट मैरीन में रहे। इस बीच उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा, ‘डैंजलिंग मैन’। 1944 में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ, जिसमें एक निराश बेरोजगार युवक की संघर्षगाथा, डायरी शैली में कही गई है। तीन साल बाद दूसरा उपन्यास आया ‘द विक्टिम’, जो एक अधेड़ यहूदी व्यक्ति की कथा है, जिसे भय है कि किसी बदकिस्मती के चलते उसके साथ सब कुछ बुरा हो रहा है। ये दोनों उपन्यास साहित्य की दुनिया में सॉल बैलो के सामान्य उपन्यास माने जाते हैं, खुद सॉल बैलो पहले उपन्यास को ‘एम.ए.’ और दूसरे को ‘पी.एच.डी.’ मानते थे।
1953 में जब उनका तीसरा उपन्यास ‘द एडवेंचर्स ऑफ ऑगी मार्च’ आया तो सॉल बैलो की धूम मच गई। आधुनिक आम अमेरिकी व्यक्ति के बचपन से लेकर बड़े होने तक की रोमांचक, हास्य और व्यंग्य से भरपूर गाथा सॉल बैलो ने ऐसी खूबसूरत किस्सागो शैली में प्रस्तुत की कि आलोचकों ने कहा कि अमेरिकी साहित्य का डॉन क्विक्जोट अब पैदा हुआ है। बेहद गरीबी का मारा ऑगी शहरी जीवन की विद्रूपताओं, झूठ, छल, प्रपंच और अजीब मानसिकताओं से भरे चरित्रों के बीच आम अमेरिकी की उस मानसिकता को उजागर करता है जिसमें जनता किसी भी तरह जल्दी अमीर बनने और आरामतलब जिंदगी जीने का स्वप्न देख कर जीती है। इस उपन्यास में सॉल बैलो भावातिरेक से बचते हुए विशुद्ध यथार्थ के साथ एक ऐसी कथा रचते हैं, जिसमें आगे आने वाली घटनाओं का कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। बेचारा नायक अचानक धनवान बनने के बाद तुरंत ही कंगाल हो जाता है और हर हाल में मस्त रहता है। इस उपन्यास की लोकप्रियता से विचलित हुए बिना सॉल बैलो ने अपने अगले उपन्यास में पूरी शैली बदल डाली और ‘सीज द डे’ में एक असफल अभिनेता की मार्मिक कथा लिखी, जो अपनी विफलता के चलते पत्नी, बच्चे और पिता सबसे अलग-थलग पड़ जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी समाज में उपजे हालात और पारस्परिक संबंधों में आए व्यापक बदलाव को इस उपन्यास ने जितना बेहतरीन ढंग से रूपायित किया उतना किसी ने नहीं। इसीलिए इसे बीसवीं सदी का श्रेष्ठतम अमेरिकी उपन्यास कहा जाता है। अपने पांचवें उपन्यास ‘हैंडरसन द रेन किंग’ में सॉल बैलो एक ऐसे धनी अधेड़ व्यक्ति की कथा कहते हैं जो कोई अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। इस अतृप्त प्यास को लेकर वह अफ्रीका के गांवों में पहुंच जाता है और कई रोमांचक घटनाओं के बीच नए अनुभव हासिल करता है। उसे महसूस होता है कि आत्मा, शरीर और बाहरी दुनिया के बीच कोई शत्रुता नहीं है और सौहार्द्रपूर्ण जीवन जिया जा सकता है।
सॉल बैलो की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे पुराकथाओं जैसा गल्प रचते हुए अपने समय और समाज को अनेक आयामों में देखते हैं, जहां तमाम भागमभाग और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मनुष्य को एक सहज, संतोषी और सौहार्द्रपूर्ण जीवन की ओर ले जाने का मार्ग दिखाई देता है। सॉल बैलो का अत्यंत महत्वपूर्ण उपन्यास ‘हरजोग’ एक ऐसे अधेड़ यहूदी की कथा है जो पत्नी द्वरा त्याग दिया गया है और जिस स्त्री के साथ रहता है, वह उससे विवाह नहीं करना चाहती। गहरी अनास्था और हताशा के बीच वह अपने दोस्तों, परिजनों, महान विद्वानों, दार्शनिकों और भगवान के नाम पत्र लिखता रहता है, लेकिन इन पत्रों को किसी को नहीं भेजता। इन पत्रों के माध्यम से ही उसकी मानसिकता और उलझन भरी कहानी पता चलती है। इसी तरह मि. सैमलर’स प्लेनेट में एक ऐसे विद्वान प्रोफेसर की कहानी है जो खुद एक प्रलय से बच कर आया है, लेकिन अजीब पागलपन का शिकार होने की वजह से लोगों को भविष्य के विचित्र वायदे करता रहता है। उसका मानना है कि अधिकाधिक सुविधाभोगी जीवन से ही मनुष्य की तकलीफें बढ़ रही हैं।
अमेरिका के नेशनल बुक अवार्ड के लिए छह बार नामांकित होने और तीन बार पुरस्कृत होने वाले सॉल बैलो एकमात्र रचनाकार हैं। लेखन के लिए उन्हें पुलित्जर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जब 1976 में उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया तो उन्हें इसका वाजिब हकदार माना गया। जन्म से कनाडाई होने के कारण, कनाडा के इतिहास में सिर्फ उन्हीं को साहित्य के लिए यह सम्मान मिला। सॉल बैलो के लेखन को लेकर बहुत से लोगों का मानना है कि उनके अधिकांश उपन्यासों में उनकी अपनी निजी जिंदगी से जुड़ी हुई चीजें हैं, जैसे उनका यहूदी होना, साहित्य के साथ समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र पढ़ाना, एक के बाद एक पांच-पांच शादियां करना और घूम-घूम कर नई जगहें देखना। खुद सॉल बैलो भी मानते थे कि एक लेखक की रचनाओं में ऐसा होना सहज है। साहित्य की दुनिया में कहा जाता है कि सॉल बैलो बीसवीं शताब्दी के ऐसे महान रचनाकार थे, जिन्होंने रूसी, यूरोपीय, अंग्रेजी और अमेरिकी क्लासिक उपन्यास परंपरा को नया जीवन दिया और सरवांतीस, दोस्तोयेव्स्की, डिकेंस और टॉलस्टोय जैसे सर्वकालिक महान रचनाकारों की शैली को आत्मसात करते हुए आधुनिक उपन्यास को नई बुलंदियों पर पहुंचाया। 5 अप्रेल, 2005 को 90 वर्ष की उम्र में सॉल बैलो का ब्रुकलिन में निधन हुआ।
यह आलेख राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में 'विश्व के साहित्यकार' स्तंभ में 27 जून, 2010 को प्रकाशित हुआ।
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