सितंबर का महीना मेरे लिए दो कारणों से महत्वपूर्ण है, जिसमें पहला कारण है इसे हिंदी माह के रूप में मनाना। कॉलेज की पढ़ाई तक कभी हिंदी माह के बारे में नहीं सुना था, क्योंकि एक तो मैं कॉमर्स का विद्यार्थी रहा और दूसरी तरफ साहित्य पढ़ने में ज्यादा मजा आता था, लिखना कम होता था और ऐसी कोई संगत नहीं थी जिसमें हिंदी माह के बारे में बातचीत या चर्चा हो। बैंक में नौकरी लगने के बाद इसकी जानकारी मिली। पूरे महीने ही नगर भर में हिंदी प्रतियोगिताओं की धूम मची रहती थी और हर जगह मुझे ही भेज दिया जाता था। पॉकेटबुक उपन्यासों से पीछा छूटने के बाद मैं कभी विमुख नहीं हुआ और ईमानदारी से कहता हूं कि शिवानी तक को मैं कभी नहीं पढ़ पाया। इसलिए गंभीर साहित्य की ओर ही मेरा झुकाव बना रहा। शुरुआत में इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने का जो किंचित उत्साह था वह निर्णायकों ने धूमिल कर दिया। दरअसल निर्णायकों के नाम पर हिंदी के खराब अध्यापक या छिटपुट मंचीय किस्म के कवि और विभागों के हिंदी अधिकारी आते थे, जिनकी साहित्य की समझ पर मुझे बाद में शक होने लगा था। मैं जबर्दस्ती भेजा जाता था, लेकिन जब कविमित्र ही निर्णायक के रूप में आने लगे तो मैंने प्रतियोगिताओं में भाग लेना बंद कर दिया। बहरहाल, उस दौर में मैं सोचता था कि जिस भाषा के हम लोग हैं, वे अगर कुछ करें तो लोगों को हिंदी में काम करने की ओर प्रवृत किया जा सकता है। इस बारे में कुछ समय तो मैंने बड़े उत्साह से काम किया, लेकिन जब देखा कि लोगों की रूचि ही नहीं है तो यह भी छोड़ दिया।
लेकिन मुझे लगता है कि बैंक हो या अन्य कोई संस्थान, लगभग सब जगह यही स्थिति है। और इसके पीछे लोगों की मानसिकता से कहीं अधिक व्यवस्था की मूलभूत खामियां हैं। दरअसल, हमने जो व्यवस्था का तंत्र अंग्रेजों से विरासत में पाया है, वह बना ही अंग्रेजी मानसिकता और संस्कृति से है, जिसमें हिंदी और भारतीय भाषाएं कहीं फिट नहीं होतीं। भाषा के साथ उसकी संस्कृति और परंपराएं जुड़ी होती हैं, और वे अविच्छिन्न होती हैं। भाषा और संस्कृति मनुष्य की मानसिकता का निर्माण करती हैं। हम लोग घरों में अपने माता-पिता से अगर अपनी आंचलिक बोली-बानी में बात करते हैं तो वह हमारी सांस्कृतिक परंपरा है। हमारे माता-पिता को भले ही हिंदी या अंग्रेजी आती हो, हम उनसे बात अपनी प्रिय बोली में ही करते हैं, क्योंकि उसकी जो अपनी मिठास है वह दूसरी भाषा में नहीं। (रामचंद्र गुहा ने इसे द्विभाषी मानसिकता कहा है। कुछ महीनों पहले ई.पी.डब्लू. में उनका भाषाचिंतन पर शानदार लेख पढ़ा था, उसे हर लेखक को पढना चाहिए।) खैर, आजादी के बाद जो व्यवस्था चली आ रही है, उसमें ले देकर अंग्रेजियत वाली श्रेष्ठताबोध की मानसिकता ही हावी है। यह मानसिकता हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों को ही नहीं उपेक्षित समुदायों और स्त्रियों को भी प्रताडि़त करती है और उन्हें उनका वाजिब हक मिलने देने से रोकती है। इसे भारतीय शासकीय मानसिकता कहा जा सकता है।
इस मानसिकता का निर्माण आजादी के बाद नहीं बहुत पहले हो चुका था, जब देवभाषा संस्कृत को श्रेष्ठ माना जाता था। संस्कृत का पठन-पाठन एक खास जाति तक यानी स्वयं तक सीमित कर ब्राह्मणों ने जिस व्यवस्था को अपने बुद्धि-चातुर्य से स्थापित किया, उसने बाकी पूरे समाज को श्रेष्ठ भाषा से दूर रखा, कामगार-दस्तकार और दूसरी जातियों के साथ स्त्रियों को भी अपनी देवभाषा से बाहर रखा और उल्लंघन होने पर कानों में पिघलता शीशा डालने जैसी दण्ड व्यवस्था भी बनाई। अपने ईश्वरवादी कर्मकाण्डों के जरिए ब्राह्मणों ने पूरी शासन व्यवस्था को अपने चंगुल में जकड़ रखा था और क्षत्रिय-वैश्य जैसे कुछ समुदायों को कामगार-दस्तकार जातियों से बड़ा सिद्ध कर एक विषमतावादी समाज की रचना कर रखी थी। कर्मप्रधान समुदायों को अपने कामकाज से ही फुर्सत नहीं थी कि वे शासन व्यवस्था के दूसरे पहलुओं पर भी सोच सकें। इस तरह एक ऐसी शासकीय मानसिकता का निर्माण हुआ, जिसमें कुछ श्रेष्ठ जातियां सब पर हावी थीं और सारे अधिकार उन्हीं के पास थे। इसलिए जब अंग्रेज आए तो उनकी जी-हुजूरी में इसी शासकीय मानसिकता से ग्रस्त जातियों के लोग ही पहले गए और सारे ओहदे-मनसब अंग्रेजों की चाकरी में ले लिए। कामगार जातियों को तो शासकीय मानसिकता वालों ने लालच देकर मॉरीशस, सूरीनाम और ब्रिटिश गुयाना जैसे निर्जन द्वीपों पर जहाजों में लदवा कर भिजवा दिया था।
आजादी के बाद शासकीय मानसिकता वाली श्रेष्ठ जातियों के लोग ही प्रभावकारी स्थिति में थे। उन्होंने सबसे पहले हिंदी और भारतीय भाषाओं के मुकाबले में अंग्रेजी को सर्वोच्च स्थान देकर एक तरफ तो अपनी ब्रिटिश राजभक्ति को सिद्ध किया, दूसरी तरफ हिंदी और अन्य भाषाओं के प्रति अपनी हिकारत को सार्वजनिक कर सिद्ध किया कि वे ब्राह्मणों द्वारा पोषित व्यवस्था को ही आगे ले जाएंगे, जिसमें शासन की भाषा या तो अंग्रेजी रहेगी, अन्यथा दूसरी किसी भी भाषा को ऐसा बना दिया जाएगा कि वह आम आदमी से दूर रहे और शासन में आम आदमी के बजाय शासकीय मानसिकता वाले श्रेष्ठिवर्ग का ही बोलबाला रहे। इसलिए हिंदी को राजभाषा बनाने के साथ ही यह षड़यंत्र रचा जाने लगा था कि इसे जनविमुख सरकारी भाषा कैसे बनाया जाए। आजमाया हुआ प्राचीन नुस्खा देवभाषा संस्कृत के रूप में था ही। इसलिए पहले तो जानबूझकर हिंदी से हिंदुस्तानी और तत्सम शब्दों को अस्पृश्य और त्याज्य कह कर वैसे ही निकाला गया, जैसे संस्कृत से कामगार-दस्तकार जातियों और स्त्रियों को वंचित किया गया था। शब्दकोश और शब्दावली बनाने का जिम्मा भी शासकीय मानसिकता वाले श्रेष्ठिवर्ग के पास था, इसलिए उन्होंने देवभाषा से ऐसे-ऐसे शब्दों की सर्जना की कि आम आदमी उस हिंदी से भी दूर भाग जाए और उसके लिए यह हिंदी भी अंग्रेजी की तरह ही अत्यंत जटिल और दुर्बोध हो जाए, जो उसकी अपनी भाषा नहीं है। बोलचाल की हिंदी को अपदस्थ कर किताबी किस्म की हिंदी विकसित करने का श्रेय उसी समुदाय को दिया जा सकता है जो अंग्रेजी और अंग्रेजों की चाटुकारिता में कई पीढि़यों तक लगा रहा।
हमारी व्यवस्था में चूंकि अंग्रेजियत हावी रही इसलिए वहां हिंदी या भारतीय भाषाएं पूरी तरह स्थापित नहीं हो पातीं। जब तक समूची कार्यप्रणाली और कार्यसंस्कृति को भारतीयों के अनुकूल नहीं बनाया जाता, तब तक भारतीय भाषाएं व्यवस्था में आवेदन पत्रों तक ही सीमित रहेगी। इसलिए पूरी व्यवस्था इसी में लगी रहती है कि राजकाज में हिंदी का यथासंभव प्रयोग हो। हमारी व्यवस्था के तमाम दस्तावेज अंग्रेजों द्वारा बनाए गए हैं और उनका घटिया अनुवाद हिंदी और दूसरी भाषाओं में देखने को मिलता है। मौलिकता हमारी व्यवस्था में दुर्गुण माना जाता है, हर जगह अंग्रेजी में लिखे को ही प्रामाणिक माना जाता है। यही भारतीय शासकीय मानसिकता है, जिसका जातिगत श्रेष्ठता से गहरा संबंध उजागर हो चुका है।
सितंबर का मेरे लिए एक और तरीके से महत्व है और उसका संबंध भारतीय स्वाधीनता संग्राम की एक ऐसी घटना से है जो मुझे कहीं ना कहीं भाषा के सवाल को जाति से जोड़कर देखने के लिए विवश करती है, क्योंकि उस घटना में भी शासकीय मानसिकता के दर्शन होते हैं। यह घटना है सितंबर, 1932 में पूना पैक्ट की। जब ब्रिटिश सरकार पूरी तरह तय कर चुकी थी कि 'कम्यूनल अवार्ड' के तहत अस्पृश्य जातियों को अल्पसंख्यकों और अन्य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की जाएगी तब महात्मा गांधी ने इसे भारत की एकता को खंडित करने वाला कदम बता कर यरवदा जेल में 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन शुरु कर दिया था। गांधी जी की तबियत इस अनशन से बहुत तेजी से खराब होने लगी थी। डॉ. अंबेडकर जानते थे कि अगर इस अनशन से गांधी जी की मृत्यु हो जाती है तो देश भर के सवर्ण अछूतों का नरसंहार कर देंगे। इसलिए बेहद मानसिक दबाव और तनाव में डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी के साथ 24 सितंबर, 1932 को यरवदा जेल में पूना पैक्ट किया था। इस समझौते के तहत पृथक निर्वाचन के बजाय दलितों के लिए अलग से सीटें आरक्षित करने और नौकरियों में भी आरक्षण का प्रावधान था। इस पैक्ट को लेकर बहुत विवाद हैं, दलितों के एक तबके का मानना है कि डॉ. अंबेडकर को गांधी जी के आगे नहीं झुकना चाहिए था। लेकिन भारतीय समाज के इतिहास में यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है जो दर्शाती है कि बहुसंख्यक समाज को हर दौर में अपने ही हितों की कुर्बानी देनी पड़ती है फिर वो चाहे देश का मामला हो या भाषा का। कल्पना कीजिए कि अगर दलितों के आत्म निर्णय और पृथक निर्वाचन को कानूनी दर्जा मिल जाता तो क्या होता। एक और विभाजित भारत बनता, जिसमें दलितों की अपनी सत्ता होती और यह देश विभाजित सोवियत संघ के छोटे-छोटे देशों की तरह होता। लेकिन, भारतीय शासकीय मानसिकता कभी नहीं चाहती कि कोई उनकी बराबरी करे। इसीलिए गांधीजी चाहते थे कि हरिजन सबके साथ रहें, उसके लिए आरक्षण दिया जा सकता है, लेकिन विशेष दरजा नहीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं को भी राजकाज में आरक्षण तो दे सकते हैं पूरी सत्ता नहीं दी जा सकती। भाषा के साथ भारतीय शासक मानसिकता का यही जातिवादी व्यवहार है। वह हिंदी को भी संस्कृतनिष्ठ बना देगा, लेकिन वंचितों की भाषा से हिंदी को अशुद्ध होने से बचाता रहेगा, बल्कि लगातार कोशिश करेगा कि हिंदी को संस्कृत कैसे बनाया जाए। इसके लिए अंग्रेजी से निसंकोच शब्द ले लेगा, लेकिन कामगारों और दस्तकारों की बोली-बानी को हिंदी के पवित्र सरकारी आंगन में नहीं आने देगा। जिन कामगारों को शासकीय मानसिकता वालों ने गिरमिटिया मजदूर बनाकर देश निकाला दे दिया था, उनकी हिंदी भी हिंदी है, लेकिन उसमें हिंदी की बोली-बानियों की मिठास अब भी बची हुई है, जबकि हमारी हिंदी से हमने कुजात बोलियों के शब्द वैसे ही बाहर निकाल दिए हैं जैसे सदियों से अछूतों को गांव के बाहर बसाते आए हैं।
Bilkul nai baat, lekin hai satya. Congrats. Harish.
ReplyDelete