(आज बेटियों का दिन है यानी डॉटर्स डे, आज के दिन बेटियों को समर्पित है यह कविता। यह कविता मुझे बहुत प्रिय है, इसलिए इसे मैंने अपने संग्रह में सबसे पहली कविता के रूप में शामिल किया था। जब बरसों पहले यह कविता लिखी थी, तो लिखने के बाद कई दिनों तक बहुत रोया था और आज भी यह कविता मुझे रुला देती है।)
उस गुवाड़़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफॉर्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में।
बेहद मर्मस्पर्शी कविता है यह.
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (27/9/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
aanand aa gayaa. bhaiya. bahut maarmik aur asaliyatbhri
ReplyDeleteजिन्होने नहीं देखी दादियाँ
ReplyDeleteउनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल मे ।
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आपकी कविता दो पीढ़ियों को फलांग कर संवाद कर रही है..... अद्भुत है यह !!! स्त्री -विरोधी इस समय मे बेटियों से बनती आपकी इस दुनियाँ मे विकल मार्मिकता तो है ही साथ ही साथ एक विमर्श भी है कि समूची दुनिया को बेटियों की जरूरत है.....सहभागिता ही इस संसार को अराजक होने से बचा पाएगी । हार्दिक बधाई ।
बेहद मार्मिक...
ReplyDeleteदिल को छू गयी आपकी कविता। आभार।
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति......दिल को छू लिया....आभार..
ReplyDeleteदादी , आज हम भी बेटियों की शक्ल में ही देखते हैं दादी को.
ReplyDeleteबहुत खूब.
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
ReplyDeleteउनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में।
भाई साब
नमस्कार !
दिल को चुने वाली है कविता ,पूरी कविता बेहद सुंदर है , मेरी पसंद कि पंकतिया आप को सादर प्रस्तुत कि है ,
साधुवाद
सादर !
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