पिछले कुछ सालों से एक-एक कर हमारे अत्यंत प्रिय और महत्वपूर्ण संघर्षशील रचनाकार साथी विदा हो रहे हैं और यह बेहद दुखद है। इस अक्टूबर महीने की शुरुआत ही राजस्थान के लोकप्रिय, क्रांतिकारी और अजातशत्रु कॉमरेड कवि शिवराम के आकस्मिक निधन से हुई। उनका यूं अचानक चले जाना हमारे समय का ऐसा हादसा है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। शिवराम हाड़ौती अंचल की सबसे बुलंद आवाज थे। एक ऐसा इलाका, जो दक्षिणपंथियों का गढ़ है, जहां उद्योगपतियों का वर्चस्व है, वहां पिछले करीब चार दशक से शिवराम अकेले सिंह की तरह तमाम मोर्चों पर दहाड़ रहे थे और लोगों को एकजुट कर रहे थे। हाड़ोती के मजदूर, किसान, युवा, दलित, अल्पसंख्यक, वंचित, साहित्यकार, कलाकार और आम आदमी के निर्द्वंद्व नेता शिवराम 01 अक्टूबर, 2010 को मौन हो गए।
उनके निधन की सूचना से पूरे देश में शोक की लहर फैल गई। किसी के लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि शिवराम यूं अचानक भी जा सकते हैं। अभी तो उनके वास्तविक जननेता का काल शुरु हुआ था, जिसमें वे गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर अपने ओजस्वी भाषणों, गहरे व्यंग्य और मर्मस्पर्शी कविताओं तथा चेतना से ओतप्रोत नाटकों के जरिए जन-जागरण का निरंतर काम कर रहे थे। तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद वे सभी समान विचारधाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने में जुटे हुए थे। राजस्थान में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा के वे संयोजक थे और दिन-रात कई मोर्चों पर सक्रिय रहते थे। पता नहीं यह अति सक्रियता ही तो कहीं उन्हें हमसे दूर नहीं ले गई।
23 दिसंबर, 1949 को करौली के गांव गढ़ी बांदुवा में जन्मे शिवराम का परिवार जातिगत पेशे से स्वर्णकार था। जिस परिवार में बात ही हमेशा सोना-चांदी की होती रही हो, वहां से संघर्षों की आंच में तप कर जो व्यक्तित्व निकला उसने मेहनत और पसीने की बूंदों को शब्द और संघर्ष की माला में पिरोकर जनता के सौंदर्य के गहने बनाने का बीड़ा उठाया। अजमेर से आई.टी.आई. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दूरसंचार विभाग में तकनीशियन के रूप में सेवाएं देने लगे। विवेकानंद से प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की तरफ आए और फिर अपने पूरे परिवार और समाज को ही इस धारा में शामिल करते चले गए। ऐसे मार्क्सवादी बहुत कम होते हैं, जो अपने परिवार को भी विचारधारा से जोड़कर जनता के संघर्षों के लिए दीक्षित करते हैं। पर शिवराम ऐसे ही थे। उनके साथ जो भी जुड़ता वो उनके सहज, आत्मीय, निर्मल और प्रेमिल व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके विचारों का अनुषंगी हो जाता। हाड़ौती अंचल में शिवराम ने हजारों की संख्या मे लोगों को मार्क्सवाद की बुनियादी तालीम दी। सैंकड़ों कवि-लेखकों को प्रगतिशील-जनवादी सरोकारों से लैस होकर लिखने का पाठ पढ़ाया।
मुझे याद नहीं कि उनसे मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी, लेकिन उनके विचारों से, उनकी आयोजन क्षमता से, उनके मजदूर नेता वाले रूप से, उनके सृजनशील मन से, उनकी आत्मीयता से, उनकी सहज-सरल और मृदुल मुस्कान से मैं हमेशा प्रभावित हुआ। हमारे बीच कुछ बुनियादी वैचारिक सवालों पर मतभेद रहे, उन पर हम खुलकर चर्चा भी करते रहे, लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि मतभेद को उन्होंने कभी मनभेद नहीं बनने दिया। एक बार अजमेर में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा की बैठक के बाद हम दोनों ने जयपुर तक की यात्रा में अपने संघर्षों के दौर के अनुभव आपस में बांटे। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि स्वर्णकार परिवार में जन्म के बावजूद शिवराम जी ने बेहद संघर्ष किया और इसकी वजह यह थी कि वे बहुत स्वाभिमानी थे और पारिवारिक पेशे से अलग हटकर कुछ मन का काम करना चाहते थे, इसीलिए आई.टी.आई. में चले गए। उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने तमाम किस्म का ज्ञान अर्जित किया। हिंदी में मार्क्सवाद की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से उन्होंने अपना वैचारिक आधार तैयार किया, जो कुछ पढ़ते उसे साथियों के साथ सरल दैनंदिन उदाहरणों से समझाते और उनकी चेतना को नया रूप देते। लोगों के बीच अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने नाटक को खास तौर पर नुक्कड़ नाटक को अपनाया। हिंदी में जब मंच के लिए ही अच्छे नाटक नहीं हैं तो नुक्कड़ नाटकों का तो वैसे ही अकाल है। इस कमी को पूरा करने के लिए शिवराम ने खुद नाटक लिखना शुरु किया और कलाकारों की कमी के चलते खुद अभिनेता और निर्देशक भी हो गए। जनता की समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक लिखने की प्रक्रिया में शिवराम सिद्धहस्त हो गए थे। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है ‘जनता पागल हो गई है’, हिंदी में यह अब तक का सर्वाधिक मंचित नाटक है। नाटकों की उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हैं। मेरे खयाल से हिंदी में शिवराम जनचेतना वाले नाटक लिखने वाले सबसे बड़े नाटककार हैं, शायद ही किसी अन्य नाटककार ने उनसे अधिक जन-नाटक लिखे हों।
मूलतः कविर्मना शिवराम की कविताओं के तीन संग्रह हैं, ‘माटी मुळकेगी एक दिन’, ‘कुछ तो हाथ गहो’ और खुद साधो पतवार।’ कविताओं में वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं और जगाने की बात करते हैं। उनकी कविताएं इसी जीवन और धरती पर रचे-बसे लोगों के सुख-दुख और निराशा से आशा की ओर ले जाने वाली कविताएं हैं। शिवराम मार्क्सवाद और अनवरत संघर्ष को ही जीवन का ध्येय मानने वाले सृजनशील, विचारक, जननायक थे। वे मानते थे कि जनसंघर्षों की सफलता मार्क्सवाद में ही संभव है, इसलिए अपनी एक कविता में वे कहते हैं, ‘उत्तर इधर है राहगीर, उत्तर इधर है।’ उनकी संघर्षषील और सृजनधर्मी स्मृति को नमन।
यह स्मरणांजलि डेली न्यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्ट 'हम लोग' में 10 अक्टूबर, 2010 को प्रकाशित हुई।
शिवरामजी के जीवन और रचनाओं बाबत इतना कुछ जानकर अच्छा लगा.... बहुत ही मर्मस्पर्शी स्मरण.... उन्हें मेरा भी नमन
ReplyDeleteAABHAAR JAANKARI KAA.
ReplyDeleteprem bhai saab
ReplyDeletepranam !
shiv raam jee ko shat shat naman .
saadar
भाई जी,
ReplyDeleteइस आत्मीय स्मरण के लिए आभार...
आपने बहुत ही बिरादराना तरीके से उन्हें सलाम पेश किया है...
एक तथ्यात्मक त्रुटि है...
उन्होंने अजमेर पॉलिटेक्निक कॉलेज से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था...और दूरसंचार विभाग में एक सुपरवाइजरी सी पोस्ट होती थी आर.एस.ए...वह उनकी पहली पोस्टिंग थी...
औपचारिक शिक्षा को भी बाद में समृद्ध करते रहे...बी.ए. कर लिया था...फिर अपनी ट्रेड़ यूनियन गतिविधियों के चलते एल.एल.बी. करने लगे...बीच में छोड़ दी...एम.ए. किया...अभी हाल में पी.एच.ड़ी करने जा रहे थे...कवि विजेन्द्र के सौन्दर्य शास्त्र और काव्यालोचना पर...एनरोल हो गये थे...और प्राथमिक प्रारूप सबमिट कर चुके थे....