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Sunday, 29 January 2012

कार्टूनिस्‍ट-कलाकार अभिनेता-अभय... खा गया समय...


अभी-अभी उस अभय वाजपेयी को आखिरी सलाम कहकर आया हूं, जो हरदिल अजीज था। राजस्‍थान पत्रिका के पॉकेट कार्टून झरोखा  के विख्‍यात त्रिशंकु, जिसे लाखों पाठकों की बेपनाह मोहब्‍बत हासिल थी... जिसने अपने मुंह से कभी नहीं कहा कि मैं ही त्रिशंकु हूं और मैं ही कलाकार, रंगकर्मी, निर्देशक अभय वाजपेयी। अजीब मस्‍तमौला और बिंदास आदमी था। किसी के बारे में था कहना-लिखना कितना मुश्किल होता है... जिंदादिल लोग आपको बहुतेरे मिल जायेंगे, लेकिन अभय वाजपेयी जैसे शख्‍स बहुत दुर्लभ होते हैं...हर फिक्र को धुंए में उड़ाते चला गया... ऐसी बेफिक्री कि बावजूद डॉक्‍टरों और मित्रों की चेतावनियों के, बीपी की दवा ही नहीं ली... उनका शाम के वक्‍त तकियाकलाम होता था, शाम के वक्‍त चाय पीने से मुंह से बदबू आती है.. लोग क्‍या कहेंगे...अभय वाजपेयी के इतने बुरे दिन आ गये हैं कि शाम 6 बजे बाद चाय पीता है... सरकार ने नौकरी से निकाल दिया है या कि राजस्‍थान पत्रिका ने कार्टून के पैसे देना बंद कर दिया है...यार दोस्‍तों की मंडली को अपनी लाजवाब चुटकियों और किस्‍सों की कभी ना खत्‍म होने वाली पोटली से गुलजार करने वाला वो अप्रतिम कलाकार...
मैं उनसे इस बात के लिये बहुत झगड़ता था कि अपने कार्टूनों की एक पुस्‍तक प्रकाशित की जानी चाहिए... वे इस पर तैयार भी हो गये थे... लेकिन अपनी मस्‍ती में भूल ही जाते थे... उन्‍होंने कभी अपने कार्टून प्रकाशित होने के बाद प्रेस से शायद ही वापस मांगे हों... अखबार के दफ्तर की रद्दी में ना जाने कहां गुम हो गये हजारों कार्टून... बाद के दिनों में उन्‍होंने शायद उन्‍हें सहेजना शुरु कर दिया था... मैंने उन्‍हें चुनिंदा कार्टून्‍स की प्रदर्शनी लगाने की भी सलाह दी थी... लेकिन उनके पास ऐसे फालतू कामों के लिए शायद वक्‍त ही नहीं था... जिस जमाने में लोग अपनी मार्केटिंग खुद ही करते रहते हैं, उन्‍होंने खुद के लिए कोई वक्‍त नहीं रखा... इसीलिए 2002 की शुरुआत में उन पर जबर्दस्‍त अटैक हुआ और वे लंबे समय तक कोमा में रहने के बाद जब ठीक हुए तो जुबान चली गई. और साथ ही चला गया हाथों का कौशल...  फिर भी अपनी जिंदादिली से उन्‍होंने दो-तीन साल में बहुत कुछ अर्जित कर लिया था. कुछ बोलने लगे थे और उन पर कार्टून का जुनून सवार था... मैं बनाउंगा, फिर से कार्टून... इतना अदम्‍य विश्‍वास था उन्‍हें... और साबित कर दिया कि वे बेजोड़ हैं। कुछ दिन दैनिक नवज्‍योति में उनके कार्टून छपे थे, जिनमें से एक की याद आज पत्रिका के अभिषेक तिवारी जी ने याद दिलाई। वर्तमान अशोक गहलोत सरकार की नई-नई ताजपोशी हुई थी और मीडिया में सब कह रहे थे कि कर्मचारियों ने इस बार अशोक गहलोत की वापसी में बड़ा काम किया है..लेकिन कुछ ही दिनों में कर्मचारियों के किसी आंदोलन के संबंध में सरकार ने सख्‍ती की थी, उस पर उनके कार्टून का कैप्‍शन था दिल दिया, दर्द लिया। वे एक लाइन में इतनी बड़ी बात कह देते थे, जो कई पेज के लेख में नहीं कही जा सकती। उनके पास फिल्‍मी गीतों की एकाध पंक्ति पर कार्टून बना देने की अद्भुत कला थी। अपनी मौज में खूब पैरोडियां बनाते थे और अपनी अभिनय कला से उसका ऐसा वाचन करते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जायें। धीरे-धीरे प्‍यार को बढना है गीत में वे मुखड़े के तुरंत बाद दो सिंधी शब्‍द डालकर और हद को बंगाली में हौद करके वे अपने अंदाज में गाते थे, धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे वरी हद से गुजर जाना है.. धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे सांई हौद से गुजर जाना है. इसी तरह उन्‍होंने कुछ कुछ होता है की पैरोडी बनाई थी। तुम पास आये, हम हिनहिनाए, यूं मुस्‍कुराये, तुमने ना जाने क्‍या सपने दिखाये, अब तो मेरा दिल जागे ना सोता है, क्‍या करूं हाय, कुछ नहीं होता है...
वे रंगमंच के मंजे हुए कलाकार थे और कई धारावाहिकों और फिल्‍मों में भी उन्‍होंने अभिनय किया। उनके पास गजब का विट और ह्यूमर था, जिसे उन्‍होंन खुद के बनाये अजब गजब जैसे दूरदर्शन धारावाहिकों में बखूबी इस्‍तेमाल किया. अपने साथी कलाकारों में वे बेहद लोकप्रिय थे और सभी उन्‍हें बेहद सम्‍मान से देखते थे। बहुत से फिल्‍म कलाकार उनके जिगरी दोस्‍त हैं, जिनमें रघुवीर यादव की बात मुझे इसलिए याद है कि एक शाम मैंने भी दोनों के साथ गुजारी थी।
उनके कार्टून आज भी लोगों की स्‍मृति में जिंदा हैं। मुझे कर्मचारी हड़ताल के दौरान बनाया एक कार्टून याद आता है, जिसमें घर पर खाना खाने के बाद कर्मचारी पत्‍नी से कहता है कि अब लंच हो गया, तुम मेज कुर्सी लगा दो, मैं सोने जा रहा हूं। एक बार आर.एस.एस. का कोई कार्यक्रम था, जिसमें स्‍वयंसेवकों के पास गणवेश ना होने की खबर छपी थी। कार्यक्रम से ऐन पहले उनका कार्टून था, जिसमें पति टांड पर सामान के बीच गणवेश खोज रहा है और पत्‍नी से कह रहा है, कहीं तुमने बर्तनों के बदले में तो नहीं बेच दिया... उनका आम आदमी राजस्‍थानी पगड़ी वाला साधारण किसान-मजदूर था, जिससे दूर-दराज का पाठक भी अपना संबंध बना लेता था। मुझे एक बार किसी मित्र ने बताया था कि उनके निरक्षर दादाजी अखबार से खबरें सुनने के साथ कार्टून भी सुना करते थे।

अभी इतना ही... अगर आपको उनके कार्टून याद आयें तो जरूर बतायें...


Wednesday, 13 October 2010

जाना एक कॉमरेड कवि का

पिछले कुछ सालों से एक-एक कर हमारे अत्यंत प्रिय और महत्वपूर्ण संघर्षशील रचनाकार साथी विदा हो रहे हैं और यह बेहद दुखद है। इस अक्टूबर महीने की शुरुआत ही राजस्थान के लोकप्रिय, क्रांतिकारी और अजातशत्रु कॉमरेड कवि शिवराम के आकस्मिक निधन से हुई। उनका यूं अचानक चले जाना हमारे समय का ऐसा हादसा है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। शिवराम हाड़ौती अंचल की सबसे बुलंद आवाज थे। एक ऐसा इलाका, जो दक्षिणपंथियों का गढ़ है, जहां उद्योगपतियों का वर्चस्व है, वहां पिछले करीब चार दशक से शिवराम अकेले सिंह की तरह तमाम मोर्चों पर दहाड़ रहे थे और लोगों को एकजुट कर रहे थे। हाड़ोती के मजदूर, किसान, युवा, दलित, अल्पसंख्यक, वंचित, साहित्यकार, कलाकार और आम आदमी के  निर्द्वंद्व नेता शिवराम 01 अक्टूबर, 2010 को मौन हो गए। 
उनके निधन की सूचना से पूरे देश में शोक की लहर फैल गई। किसी के लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि शिवराम यूं अचानक भी जा सकते हैं। अभी तो उनके वास्तविक जननेता का काल शुरु हुआ था, जिसमें वे गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर अपने ओजस्वी भाषणों, गहरे व्यंग्य और मर्मस्पर्शी कविताओं तथा चेतना से ओतप्रोत नाटकों के जरिए जन-जागरण का निरंतर काम कर रहे थे। तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद वे सभी समान विचारधाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने में जुटे हुए थे। राजस्थान में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा के वे संयोजक थे और दिन-रात कई मोर्चों पर सक्रिय रहते थे। पता नहीं यह अति सक्रियता ही तो कहीं उन्हें हमसे दूर नहीं ले गई। 
23 दिसंबर, 1949 को करौली के गांव गढ़ी बांदुवा में जन्मे शिवराम का परिवार जातिगत पेशे से स्वर्णकार था। जिस परिवार में बात ही हमेशा सोना-चांदी की होती रही हो, वहां से संघर्षों की आंच में तप कर जो व्यक्तित्व निकला उसने मेहनत और पसीने की बूंदों को शब्द और संघर्ष की माला में पिरोकर जनता के सौंदर्य के गहने बनाने का बीड़ा उठाया। अजमेर से आई.टी.आई. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दूरसंचार विभाग में तकनीशियन के रूप में सेवाएं देने लगे। विवेकानंद से प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की तरफ आए और फिर अपने पूरे परिवार और समाज को ही इस धारा में शामिल करते चले गए। ऐसे मार्क्सवादी बहुत कम होते हैं, जो अपने परिवार को भी विचारधारा से जोड़कर जनता के संघर्षों के लिए दीक्षित करते हैं। पर शिवराम ऐसे ही थे। उनके साथ जो भी जुड़ता वो उनके सहज, आत्मीय, निर्मल और प्रेमिल व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके विचारों का अनुषंगी हो जाता। हाड़ौती अंचल में शिवराम ने हजारों की संख्या मे लोगों को मार्क्सवाद की बुनियादी तालीम दी। सैंकड़ों कवि-लेखकों को प्रगतिशील-जनवादी सरोकारों से लैस होकर लिखने का पाठ पढ़ाया। 
मुझे याद नहीं कि उनसे मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी, लेकिन उनके विचारों से, उनकी आयोजन क्षमता से, उनके मजदूर नेता वाले रूप से, उनके सृजनशील मन से, उनकी आत्मीयता से, उनकी सहज-सरल और मृदुल मुस्कान से मैं हमेशा प्रभावित हुआ। हमारे बीच कुछ बुनियादी वैचारिक सवालों पर मतभेद रहे, उन पर हम खुलकर चर्चा भी करते रहे, लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि मतभेद को उन्होंने कभी मनभेद नहीं बनने दिया। एक बार अजमेर में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा की बैठक के बाद हम दोनों ने जयपुर तक की यात्रा में अपने संघर्षों के दौर के अनुभव आपस में बांटे। मुझे यह जानकर सुखद आश्‍चर्य हुआ कि स्वर्णकार परिवार में जन्म के बावजूद शिवराम जी ने बेहद संघर्ष किया और इसकी वजह यह थी कि वे बहुत स्वाभिमानी थे और पारिवारिक पेशे से अलग हटकर कुछ मन का काम करना चाहते थे, इसीलिए आई.टी.आई. में चले गए। उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने तमाम किस्म का ज्ञान अर्जित किया। हिंदी में मार्क्सवाद की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से उन्होंने अपना वैचारिक आधार तैयार किया, जो कुछ पढ़ते उसे साथियों के साथ सरल दैनंदिन उदाहरणों से समझाते और उनकी चेतना को नया रूप देते। लोगों के बीच अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने नाटक को खास तौर पर नुक्कड़ नाटक को अपनाया। हिंदी में जब मंच के लिए ही अच्छे नाटक नहीं हैं तो नुक्कड़ नाटकों का तो वैसे ही अकाल है। इस कमी को पूरा करने के लिए शिवराम ने खुद नाटक लिखना शुरु किया और कलाकारों की कमी के चलते खुद अभिनेता और निर्देशक भी हो गए। जनता की समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक लिखने की प्रक्रिया में शिवराम सिद्धहस्त हो गए थे। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है ‘जनता पागल हो गई है’, हिंदी में यह अब तक का सर्वाधिक मंचित नाटक है। नाटकों की उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हैं। मेरे खयाल से हिंदी में शिवराम जनचेतना वाले नाटक लिखने वाले सबसे बड़े नाटककार हैं, शायद ही किसी अन्य नाटककार ने उनसे अधिक जन-नाटक लिखे हों। 
मूलतः कविर्मना शिवराम की कविताओं के तीन संग्रह हैं, ‘माटी मुळकेगी एक दिन’, ‘कुछ तो हाथ गहो’ और खुद साधो पतवार।’ कविताओं में वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं और जगाने की बात करते हैं। उनकी कविताएं इसी जीवन और धरती पर रचे-बसे लोगों के सुख-दुख और निराशा से आशा की ओर ले जाने वाली कविताएं हैं। शिवराम मार्क्सवाद और अनवरत संघर्ष को ही जीवन का ध्येय मानने वाले सृजनशील, विचारक, जननायक थे। वे मानते थे कि जनसंघर्षों की सफलता मार्क्सवाद में ही संभव है, इसलिए अपनी एक कविता में वे कहते हैं, ‘उत्तर इधर है राहगीर, उत्तर इधर है।’ उनकी संघर्षषील और सृजनधर्मी स्मृति को नमन। 

यह स्‍मरणांजलि डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 10 अक्‍टूबर, 2010 को प्रकाशित हुई।

Sunday, 21 March 2010

विंदा हुए विदा...

भारतीय भाषाओं में ऐसे कवि कम ही हुए हैं, जिन्हे अखिल भारतीय स्तर पर साहित्य और आम जनता के बीच खासी लोकप्रियता हासिल हो। विंदा करंदीकर ऐसे ही विरल रचनाकार थे, जिन्हें मराठी के अलावा हिंदी, अंग्रेजी और समस्त भारतीय भाषाओं में बेहद सम्मान मिला। विंदा के इस आदर की वजह है उनकी अद्भुत पठनीयता। आधुनिक भारतीय कविता में जितने प्रयोग विंदा करंदीकर ने किए, शायद ही किसी अन्य कवि ने किए हों। शब्द, शिल्प, शैली, बिंब, रूपविधान आदि तमाम चीजों को लेकर विंदा करंदीकर अत्यंत प्रयोगधर्मी होते हुए भी पाठक के लिए कभी दुर्बोध नहीं हुए, यह उनकी अद्भुत काव्यमेधा का ही कमाल है। और संभवतः इसके पीछे उनकी रचनाशीलता का वह दुर्लभ पक्ष छिपा है, जिसमें विंदा बाल कविताओं के महान रचनाकार के तौर पर सामने आते हैं। बच्चों के लिए लिखना बेहद मुश्किल होता है और विंदा इस विधा के उस्ताद थे। मानवीय संवेदनाओं से सराबोर विंदा की कविता आधुनिक भारतीय कविता की इसलिए भी अमूल्य धरोहर है कि उनकी कविता में भारतीय समाज, प्रकृति, मिथक, लोक जीवन और प्राणी जगत भी अपनी पूरी अर्थवत्ता और सौंदर्य के साथ नमूदार होता है। मात्रात्मक रूप से कम लेकिन उत्कृष्ट लेखन करने वाले विंदा करंदीकर ने कविता के अलावा आलोचना भी लिखी। उन्होंने अरस्तू के काव्यशास्त्र का मराठी में अनुवाद भी किया। विंदा करंदीकर ने मराठी के अलावा अंग्रेजी में भी कविताएं लिखीं। विंदा के विराट रचनाकार स्वरूप को ज्ञानपीठ, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कबीर सम्मान, साहित्य अकादमी फेलोशिप, केशवसुत पुरस्कार आदि कई विशिष्ट सम्मानों से नवाजा गया। उनका निधन आधुनिक भारतीय कविता के लिए एक युग का समाप्त होना है। हिंदी में चंद्रकांत बांदिवडेकर ने उनकी अधिकांश कविताओं का अनुवाद किया है। मुझे उनकी कविता ‘झपताल’ बेहद पसंद है।

झपताल

पल्लू बाँध कर भोर जागती है...
तभी से झप. झप विचरती रहती हो
...कुर कुर करने वाले पालने में दो अंखियाँ खिलने लगती हैं 
और फिर नन्ही. नन्ही मोदक मुट्ठी से
तुम्हारे स्तनों पर आता है गलफुल्लापन,
सादा पहन कर विचरती हो 
तुम्हारे पोतने से
बूढ़ा चूल्हा फिर से एक बार लाल हो जाता है 
और उसके बाद उगता सूर्य रस्सी पर लटकाए
तीन गंडतरों को सुखाने लगता है
इसीलिए तुम उसे चाहती हो!

बीच. बीच में तुम्हारे पैरों में
मेरे सपने बिल्ली की भाँति चुलबुलाते रहते हैं 
उनकी गर्दनें चुटकी में पकड़ तुम उन्हें दूर करती हो 
फिर भी चिड़िया . कौए के नाम से खिलाये खाने में
बचा .खुचा एकाध निवाला उन्हे भी मिलता है।

तुम घर भर में चक्कर काटती रहती हो
छोटी बड़ी चीजों में तुम्हारी परछाई रेंगती रहती है
...स्वागत के लिए सुहासिनी होती हो
परोसते समय यक्षिणी 
खिलाते समय पक्षिणी
संचय करते समय संहिता
और भविष्य के लिए स्वप्नसती

गृहस्थी की दस फुटी खोली में
दिन की चौबीस मात्राएँ ठीकठाक बिठानेवाली तुम्हारी कीमिया
मुझे अभी तक समझ में नही आई।

Monday, 8 March 2010

मख्मूर साहब के बिना

उर्दू के मशहूर शाइर मख्‍मूर सईदी साहब का पिछले दिनों यानी 2 मार्च, 2010 को जयपुर में निधन हो गया। 31 दिसंबर, 1934 को टोंक में जन्‍मे मख्मूर साहब ने उर्दू शायरी में राजस्थान का परचम इस बुलंदी के साथ फहराया कि इस रेगिस्तानी सरजमीं की तमाम रंगतें उनकी शायरी में नुमायां हो गईं। टोंक के अदबी घराने से आपका शेरी सफर शुरु हुआ और हिंदुस्तान-पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के तमाम उर्दू जुबां के मुरीद मुल्कों में अपनी सादाबयानी और दिलकश जज्बात की वजह से नई बुलंदियों पे पहुंचा। उनकी शायरी में उर्दू अदब की क्लासिकल, तरक्कीपसंद और जदीदियत तीनों दौर की शायरी के रंग मिलते हैं। मखमूर साहब हर दौर की शायरी से वाबस्ता रहे लेकिन अपने उपर किसी किस्म का ठप्पा नहीं लगने दिया और हर दौर की बेहतरीन चीजों का वे अपनी शायरी में इस्तेमाल करते हुए अपनी बात जुदा ढंग से कहते रहे। वे उस जदीदियत से दूर रहे जिसमें आम-अवाम के रंजो-गम की बात नहीं होती, लेकिन उनकी जदीद शायरी में कुदरत की खूबसूरती और इंसानियत के तमामतर रंगो-बू भी शामिल है। जब उर्दू शायरी में लोगों ने रूबाई कहना लगभग छोड़ दिया, मख्मूर साहब ने एक मरती हुई विधा को बचाने के लिए रूबाई को नई पहचान दी। वे सिर्फ ग़ज़ल के ही शायर नहीं थे, उन्होंने बड़ी तादाद में बेहतरीन नज्में भी कहीं। उर्दू आलोचना में भी उनका बड़ा योगदान है और उर्दू की साहित्यिक पत्रकारिता में भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। यूं उनके हजारों शेरों में से सैंकड़ों शेर ऐसे हैं जो लंबे समय तक लोगों की जुबान पर गूंजते रहेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि भविष्य में उनका यह शेर आज के दौर को देखते हुए हमेशा मौजूं बना रहेगा,

इतनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियां
घर कहीं गुम हो गया, दीवारो दर के दरमियां।

यह बहुत दुखद है कि जब मख्मूर साहब अपनी शायरी के उरूज पे थे, जब हिंदुस्तानी उर्दू अदब ने साहित्य एकेडमी और ग़ालिब अवार्ड से उनकी शायरी का एहतराम किया, कुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया। पेश हैं उनकी नायाब शायरी से चुनिंदा शेर-

खेल समझा न तेरे प्यार को हम ने वरना ,
हम कोई खेल जो खेले हैं तो हारे कम हैं.

सबसे झुक कर मिलना अपनी आदत है,
कद अपना हम सबके बराबर रखते हैं.

सिर्फ एक ख्वाब था मैं अपने ज़माने के लिए,
जिस ने पाया है मुझे उस ने गंवाया है मुझे.

अपने ख्वाब पलकों से झटक दो
मुकद्दर खुश्‍क  पत्तों का है शाखों से जुदा होना

अजाब क्या है मखमूर तुम पर यूं रिसे गम है
हवाओं की तो आदत है चरागों से खफा रहना.
हमारे     बाद    की   नस्‍लें    उतारे
सुखन का कर्ज़ जो हम पर रहा है

Monday, 2 November 2009

आलोचना की उपेक्षा परंपरा के शिकार जनकवि


हिंदी आलोचना की परंपराओं में उपेक्षा भी एक परंपरा ही है, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण कवियों को बिल्कुल भुला दिया जाता है और कम महत्वपूर्ण कवियों को खासी तवज्जोह देकर महान सिद्ध कर दिया जाता है। ऐसी उपेक्षा के शिकार कवियों में हिंदी और राजस्थानी के सुप्रसिद्ध जनकवि हरीश भादाणी भी हैं। साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा ने भले ही हरीश भादाणी को ज्यादा महत्व ना दिया हो, लेकिन वे एक ऐसे कवि थे, जिनकी कविता हजारों लाखों कण्ठों से एक साथ फूटती हुई इंकलाब का परचम बन जाती है। गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर, 2009 को ऋषि परंपरा के इस महान कवि ने कैंसर से लड़ते हुए अंतिम सांस ली। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी महायात्रा में बीकानेर और प्रदेश भर से आए हजारों लोगों ने उनके गीत गाते हुए उन्हें अंतिम विदाई दी।



11 जून, 1933 को बीकानेर के एक समृद्ध सामंती परिवार में उनका जन्म हुआ। जन्म के तुरंत बाद ही पिता संन्यासी हो गए और इस शोक को सह नहीं पाने के कारण जल्द ही माता का भी देहावसान हो गया। जब तक पिता रहे, उनके घर में भक्ति संगीत की महफिलें जमती थीं। इसलिए कदाचित उन्हें विरासत में संन्यासी पिता बेवा जी महाराज जैसा सुरीला कण्ठ मिला, जिससे गीत सुनकर लोग उन्मत्त हो जाते थे। संन्यासी पिता की बड़ी प्रतिष्ठा थी। जयपुर में एक घर में उनकी विशाल तस्वीर लगी हुई कुछ लोगों ने देखी है। बहरहाल, बचपन में भादाणी जी की घर में ही हिंदी, महाजनी और संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा हुई। जन्म के साथ ही पिता के संन्यासी बनने और मां की असमय मृत्यु के कारण परिवार द्वारा उन्हें अपशगुनी बालक करार दिया गया, दूसरी तरफ घर का सामंती माहौल। इसलिए उन्हें संभवतः बचपन से ही उस घर से वितृष्णा हो गई थी, ऐसे में उनका प्रतिरोध कविता के सिवा और कहां स्वर पाता? और जब समाजवादियों के गढ़ बीकानेर में रायवादियों और समाजवादियों के संपर्क में आए तो फिर पूरी दुनिया उनका घर हो गई। किसी को तंगहाल देखते तो अपनी चिंता छोड़कर उसकी मदद करने में लग जाते। जो कुछ संपति विरासत में मिली था, उसे परमार्थ में लगाने लगे। सामाजिक आंदोलनों में सक्रियता ऐसी बढ़ी कि एम.ए. अधूरा रह गया और मजदूर-किसानों के साथ संघर्ष करते हुए जेल जाना भी सामान्य बात हो गई। आंदोलनों में सिर्फ भाषणों से काम नहीं चलता इसलिए संघर्ष के जुझारू गीत लिखने लगे। लोकप्रिय रूमानी गीतों का गायक, मंचों पर वाहवाही लूटने वाला गीतकार, जनता का, जनता के संघर्षों का कवि बन गया।

उनका घर जरूरतमंदों का आश्रयस्थल बन गया। दूर-दूर से साहित्यकार, परिचित, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत से लोग आकर उनके विशाल हवेलीनुमा घर में डेरा जमा लेते और फिर आवश्यककता के अनुकूल समय तक, जो कई बार दो साल भी होता, वहीं रहते। 1960 में उन्होंने राजस्थान में अपने ढंग की नई साहित्यिक पत्रिका ‘वातायन’ का प्रकाशन शुरु किया। (हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी की पहली कविता इसी ‘वातायन’ में प्रकाशित हुई थी।) अब भादाणी जी को लोगों के साथ पत्रिका प्रकाशन के लिए भी आर्थिक व्यवस्था करनी थी। एक-एक कर उनकी सारी विरासत परमार्थ और ‘वातायन’ के लिए बिकती चली गई और इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए बंबई और कलकत्ता में कई किस्म की कलमी मजूरी करनी पड़ी। चौदह वर्षों तक उन्होंने ‘वातायन’ को नियमित चलाया। लेकिन अनवरत संघर्ष करने की प्रक्रिया में उनकी आखिरी हवेली भी बिक गई और उसी हवेली के सामने एक छोटा-सा वातायनी घर बनाकर रहने लगे। उनकी दरियादिली में इस सबके बावजूद कोई कमी नहीं आई।



सिर्फ कविता के बल पर जीने वाला कवि आपको हरीश भादाणी जैसा दूसरा शायद ही मिले। मंच के कवि सम्मेलनों से कविता की यात्रा आरंभ करने वाले हरीश जी जनता के संघर्ष की कविता से होकर ऋग्वेद और उपनिषदों की रहस्यमय कविताओं तक गए। ‘सयुजा सखाया’ संग्रह में उनके वो गीत हैं, जिनके बारे में प्रख्यात आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय ने लिखा है कि इन कविताओं में ‘भारत के आध्यात्मिक, दार्शनिक चिंतन को यथार्थ जीवन, कर्म और लौकिक संबंधों से पृथक न कर उनसे गूंथा गया है, कबीर की चदरिया की तरह। इससे जीवन-जगत की सही मानवीय समझ पैदा होती है। यद्यपि चिंतन भीतर से शुरु होता है लेकिन वह सारे सृष्टि-अर्थ खोल देता है ताकि मनुष्य, चराचर की समानता और सह अस्तित्वमय जीवन जीने की ओर बढ़ सके।... कवि ने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि का समायोजन, पारंपरिक भाव, चेतना और अभिव्यक्ति का सही मान रखते हुए किया है, ताकि अलौकिक अर्थ का महत्व भी कम ना हो और वह लौकिक अर्थ में भी ढल सके। यह शैली संतों जैसी है।’  हरीश जी ने अपने निजी जीवनानुभवों से काव्ययात्रा में यह रास्ता चुना था, भारतीय मनीषा का एक प्रगतिशील जनवादी प्रत्याख्यान करने का, जिसे पढ़-सुन कर नए अर्थ ध्वनित होते हैं। बाबा नागार्जुन को भी उनकी ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं।


हरीश जी की कविताओं के हिंदी और राजस्थानी में बीस से अधिक संकलन हैं, इसके अलावा जनगीतों और साक्षरता के लिए लिखी दो दर्जन से अधिक पुस्तिकाएं प्रकाशित हुईं। कविता के लिए उन्हें मीरा प्रियदर्शिनी सम्मान, राहुल सम्मान और बिहारी सम्मान सहित अनेक सम्मान-पुरस्कारों से नवाजा गया। बंबई में कलम मजूरी करते हुए उन्होंने फिल्मी दुनिया के लिए भी काम किया। इनमें से बहुत-सी चीजें दूसरों के नाम चली गईं, उनके नाम बचा सिर्फ ‘आरंभ’ फिल्म का गीत, ‘सभी सुख दूर से गजरें, गुजरते ही चले जाएं’। मुकेश के गाए इस गीत को सुनकर अंदाज होता है कि सिनेमा के लिए ऐसी कविता भी लिखी जा सकती है।

वे कई मायनों में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे। अपनी बेटियों को उन्होंने खुद आगे बढ़कर सामाजिक आंदोलनों में अग्रणी बनाया। उनकी सबसे बड़ी बेटी सरला माहेश्वरी पं. बंगाल से दो बार सांसद रह चुकी हैं। बीकानेर में पुष्पा और कविता निरंतर आंदोलनों में सक्रिय रहती है। उन्होंने बीकानेर की प्रसिद्ध होली को अश्लीलता से मुक्त कर उसमें जनजागरण के गीतों की शुरुआत की। सोरठा छंद में उन्होंने जो ‘हूणिए’ लिखे, वो जनसंघर्षों के दौरान क्रांति का उद्घोष गीत बन गए। उनके जनगीतों में ‘रोटी नाम सत है और ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ वो गीत हैं, जिन्हें हजारों लोगों द्वारा दिल्ली के इंडिया गेट से लेकर गांव-कस्बों के जनांदलनों में गाया जाता है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि बीकानेर में उनका पता किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी, कोई तांगे वाला आपको बिना पैसे लिए उनके घर छोड़ देता था। हर गांव, कस्बे और शहर में उनके अपने जैसे कई घर थे, जहां वे अपनी सुविधा से रहते थे। जीवन भर लोगों के काम आने वाले इस महान जनकवि ने मृत्यु के बाद अपनी देह बीकानेर मेडिकल कालेज को दान कर अपनी अंतिम इच्छा पूरी की। शत शत नमन।

पार्टी झण्‍डे में लिपटी जनकवि की देह

(बीकानेर मेडिकल कॉलेज को देहदान करते मित्र, परिजन और प्रशंसक, 'हरीश भादानी अमर रहे' का नारा लगाती श्रीमती जमुना भादानी, हरीश जी की जीवनसंगिनी)

हरीश भादानी जी को पुष्‍पांजलि अर्पित करते मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत
( यह आलेख हिंदी मासिक 'आउटलुक' के नवंबर, 2009 अंक में प्रकाशित)

Sunday, 4 October 2009

हरीश भादाणी – एक फकीरी जीवन



वो मेरे दादाजी की उम्र के थे, लेकिन मैं उन्हें बाकी दोस्तों की तरह हमेशा भाई साहब ही कहता था। वो भी भाई ही मानते थे, बात-बात में कुछ याद आने पर कहते थे, ‘प्रेमचंद तुम्हारी भाभी कहती है..’ और वे इस तरह पीढियों का अंतराल सिरे से खत्म कर देते थे। मैंने जीवन में ऐसा एक भी वरिष्ठ साहित्यकार नहीं देखा, जो इस कदर अपने से कमउम्र लोगों के बीच सहजता से घुलमिल जाता हो। हम श्रद्धा से पांव छूते तो मना कर देते, किताब भेंट करते तो हमेशा ‘सहधर्मी शब्दकर्मी समानधर्मा मित्र’ संबोधन ही लिखते, और भावुक होने पर बच्चों की तरह रो देते। वो सदा खिलखिलाता मुस्कुराते रहने वाला शख्स पहाड़ सी जिंदगी के कितने भयानक दौरों से गुजरकर आया था, यह जानकर मन श्रद्धा से भर जाता था और एकदम आत्मीयता का कभी ना थमने वाला दौर शुरू हो जाता था।

उनके साथ बिताए ना जाने कितने यादगार पल हैं जिनकी स्मृतियां भाव विह्वल कर देती हैं। लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के पीछे छिपी उनकी अनथक साहित्य् साधना को याद करता हूं तो लगता है ऐसा जीवन जीने के लिए एक जीवन कम पड़ जाए। कभी उनके जीवन के उतार चढाव भरे कंटकाकीर्ण पथ को याद करता हूं तो लगता है जैसे किसी विश्वस्तरीय लेखक की जीवन कथा पढ़ रहा हूं। बचपन में पिता संन्यासी होकर इकलौते पुत्र को अकेले छोड़कर चले गए। और एक सामंती किस्म के परिवार में कई हवेलियों के बीच हरीश भादाणी जी ने अपना बचपन गुजारा। ना जाने कितनी पीड़ाएं झेली होंगी इस बालक ने जो सामंती शोषण और अत्याचार बचपन में अपनी आंखों से देखा होगा। तभी तो वो ‘रोटी नाम सत है’ जैसा शाश्वत गीत लिख सके। हिंदी में क्या आपको विश्वसाहित्य में ऐसी कविता नहीं मिलेगी, जो एक शोकसंतप्तत स्‍वर को इस प्रकार एक आंदोलनकारी जनगीत में बदल दे। ‘राम नाम सत है’ की जगह 'रोटी नाम सत है कहना', कितने बड़े कवि के कण्ठ से निकला है, इसे इस गीत को पढने, गाने और सुनने से अहसास होता है। यहां वे अपनी संपूर्ण चेतना के साथ उपस्थित हैं, जिसमें वंचितों का क्रोध, अधिकारों के लिए संघर्ष और व्यवस्था के प्रति आमजन का गहरा आक्रोश एक साथ देखा जा सकता है। इस गीत की कुछ पंक्तियां हैं, "रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, ऐरावत पर इंदर बैठे बांट रहे टोपियां, झोलियां फैलाए लोग, भूल रहे सोटियां, वायदों की चूसनी से छाले पड़ जीभ पर, रसोई में लाव लाव भैरवी बजत है, बोले खाली पेट की करोड़ों करोड़ कूंडियां, तिरछी टोपी वाले भोपे भरे हैं बंदूकियां, भूख के धरमराज यही तेरा व्रत है, रोटी नाम सत है कि खाए से मुगत है।" मुक्ति राम के जाप से नहीं रोटी से मिलेगी। ऐसा स्वर आपको विश्वसाहित्य में इस चेतना के साथ आपको शायद ही कहीं मिलेगा।

हरीश जी एम.एन. राय और समाजवादी विचारों से चलकर मार्क्सवाद तक आए थे। लेकिन उनके भीतर की भारतीय मनीषा उन्हें बारंबार ऋग्वेद और उपनिषदों की ओर ले जाती थी, जिससे वे मार्क्सवाद और भारतीय मनीषा का प्रत्याख्यान करते थे। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं और उपनिषदों के अनेक सूक्तों की उन्होंने एक समाजशास्त्रीय ढंग से पुनर्रचना की है। और ऐसी रचनाओं का जब वे सस्वर पाठ करते थे तो जनमानस में ऐसा समां बंधता था कि पूछिए मत। उनके गाए गीतों पर हजारों लोग झूमते थे और उनकी अनुपस्थिति में भी हर जनांदोलन में उनके गीत गूंजते रहते हैं। उनके गीतों और कविताओं की पंक्तियां संघर्ष का नारा गईं। ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ जैसी पंक्ति हरीश भादाणी ही लिख सकते थे।

क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों से जो शोषण और अत्याचार देखा था, उसके प्रति उनकी घृणा इतनी जबर्दस्त थी कि जिस सामंती परिवार में पैदा हुए, उसकी एक एक ईंट तक उन्होंने आम आदमी की भूख मिटाने और साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘वातायन’ को चलाने में बेच डाली। ऐसा जीवट वाला साहित्यकार आपको किसी भी भाषा में शायद ही मिलेगा, जिसने एक नहीं तेरह हवेलियां बेचने के बाद एक छोटे से घर में रहना मंजूर किया हो। और इसके बाद खुद जनपथ पर आ गए और ‘सड़कवासी राम’ लिखने लग गए। इस नई राह पर हरीश जी ने पता नहीं कितने पापड़ बेले। बंबई और कलकत्ता के ना जाने कितने सेठों के नाम से किताबें लिखीं, बड़े बड़े फिल्मी गीतकारों के नाम से गीत लिखे। सिनेजगत में उनके नाम से बस ‘आरंभ’ फिल्म का गीत ही बचा है, ‘सभी सुख दूर से गुजरें, गुजरते ही चले जाएं’। लगता है उनका जीवन भी ऐसा ही रहा, जिसमें सारे सुख दूर से गुजरे और उनके हिस्से आई सिर्फ रचनात्मकता, जिसके माध्यम से वो जनता की आवाज यानी जनकवि बन गए।
(नई दुनिया के राजस्‍थान संस्‍करण में 4 अक्‍टूबर, 2009 को प्रकाशित)



Friday, 2 October 2009

जनकवि हरीश भादाणी नहीं रहे



हिंदी और राजस्‍थानी के सुप्रसिद्ध जनकवि हरीश भादाणी जी का आज तड़के बीकानेर में निधन हो गया। 11 जून, 1933 को जन्‍मे हरीश भादाणी जी की लोकप्रियता इतनी जबर्दस्‍त थी कि हजारों लोगों को उनके गीत कंठस्‍थ हैं और विभिन्‍न जनांदलनों में बरसों से गाये जा रहे हैं। 'बोल मजूरा हल्‍ला बोल' और 'रोटी नाम सत है' जैसे कई गीत जगप्रसिद्ध हैं। उनकी कविता की बीस से अधिक पुस्‍तकें हिंदी और राजस्‍थानी में प्रकाशित हुईं। उनके परिवार में एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। उनकी बड़ी बेटी सरला माहेश्‍वरी दो बार पश्चिम बंगाल से राज्‍यसभा की सांसद रह चुकी हैं।
भादाणी जी पिछले कई महीनों से अस्‍वस्‍थ चल रहे थे। वे कैंसर से पीडि़त थे। दो दिन पूर्व ही वे कोलकाता में अपनी दोहित्री के विवाह समारोह से लौटे थे। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि बीकानेर शहर में आप किसी रिक्‍शा या तांगे वाले से उनका पता पूछकर उनके घर जा सकते हैं।

इनके पिता संन्‍यासी हो गए थे। उस वक्‍त हरीश जी बहुत छोटे थे। सामंती परिवार में जन्‍मे हरीश जी ने जनता के दुख दर्द को गले लगाया और एक-एक कर सात पुश्‍तैनी हवेलियों को बेचने के बाद एक छोटे से घर में रहने लगे। साहित्‍य और समाज को पूरी तरह समर्पित इस महान कवि के गीत सदियों तक अवाम के दिलोदिमाग में गूंजते रहेंगे। हरीश जी खुद बहुत अच्‍छा गाते थे। उनके गीतों की कई कैसेट और सीडी निकली हैं। उन्‍होंने कुछ वक्‍त मुंबइया फिल्‍मी दुनिया में भी गुजारा। कई मशहूर गीतकारों ने उन्‍हें आशीर्वाद दिया और उनके लिखे गीत अपने नाम से फिल्‍मों में चला दिये। 1976 में आनंद शंकर के संगीत निर्देशन में उनका लिखा और मुकेश की आवाज में गाया गया फिल्‍म 'आरंभ' का गीत 'सभी सुख दूर से गुजरें गुजरते ही चले जाएं' लोकप्रिय हुआ। फिल्‍मी दुनिया में उनके नाम से बस यही गीत बचा है, बाकी गीत बड़े गीतकारों के नाम चले गए। यह गीत मेरे विशेष आग्रह पर भाई युनूस खान ने रेडियोवाणी पर लगाया है। आप इस गीत को यहां सुन सकते हैं। हरीश जी ने कभी उन गीतकारों के नाम नहीं बताए, बस हंसकर टाल जाते थे।
मुझे व्‍यक्तिगत रूप से उनका 'रेत है रेत' बहुत पसंद है।

इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है
ज़िन्दगी पांव-पांव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी
उठी गांवों से ये ख़म खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी
आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नज़र आएगी
सुबह भीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी
कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी

इसके अलावा मुझे उनका 'रेत में नहाया है मन' भी बहुत भाता है।

रेत में नहाया है मन !



आग ऊपर से, आँच नीचे से


वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे


वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे


इन तटों पर कभी धार के बीच में


डूब-डूब तिर आया है मन


रेत में नहाया है मन !


घास सपनों सी, बेल अपनों सी


साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर


भैरवी में कभी, साध केदारा


गूंगी घाटी में, सूने धारों पर


एक आसन बिछाया है मन


रेत में नहाया है मन !




आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में


धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी


होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे


देख हिरनी लजी साथ चलने सजी


इस दूर तक निभाया है मन


रेत में नहाया है मन !




Sunday, 7 June 2009

डायन समाज में निर्भीक लेखन : कमला दास


भारतीय साहित्य में कमला दास उर्फ कमला सुरैया उर्फ माधवी कुटटी जैसी लेखिकाएं न होतीं तो शायद आधुनिक भारतीय महिला लेखन की वह तस्‍वीर भी नहीं दिखाई देती जिस पर आज का समूचा स्‍त्री-विमर्श गर्व करता है। एक साधारण गृहस्‍थ महिला अपनी सच्‍ची भावनाओं को जब अपनी पूरी ताकत और साहस के साथ लेखन में उतारती है तो साहित्‍य की दुनिया में तहलका मच जाता है। कमलादास का लेखन इसकी गवाही है, जिसने अपने दुस्‍साहस के चलते ना जाने कितनी बदनामियों के कलंक झेले, लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुई। साहित्‍य की दुनिया में ऐसी महिलाओं को एक वक्‍त तक बेहद शंकालु दृष्टि से देखा जाता है और साधारण लोग तो इनके नाम से ही मुंह बिचकाते फिरते हैं। उत्‍तर भारत में ऐसा साहसिक लेखन उर्दू में डा. रशीद जहां ने किया था, जब उनकी प्रतिबंधित कहानियां लोग बंद कमरों में चोरी-चोरी पढते थे। कमला दास के नाम से अंगेजी में और माधवी कुटटी के नाम से मलयालम में लिखने वाली कमला सुरैया की अंग्रेजी और मलयालम दोनों भाषाओं में आत्‍मकथा जब छपी तो हंगामा मच गया था। अंग्रेजी में ‘माइ स्टोरी’ और मलयालम में ‘एंटी कथा’ खूब पढी गई और विवादों में भी रही। बाद में अंग्रेजी पुस्‍तक को उन्‍होंने स्‍वयं एक औपन्‍यासिक कृति कह दिया। यहां प्रस्‍तुत है उनकी मलयाली आत्‍मकथा का एक अध्‍याय-
ऐसे बहुत से कारण हैं कि मैं क्‍यों उन नैतिक मापदण्‍डों को अस्‍वीकार कर देती हूं जो समाज में आसानी से मान लिए जाते हैं। यह नैतिक दृष्टि नश्‍वर मानवीय देह से पैदा होती है। मेरा यकीन है कि आदर्श नैतिक दृष्टि, जिसका सम्‍मान किया जाना चाहिए, का निर्माण मनुष्‍य की आंतरिक आत्मा से होना चाहिए, और अगर कोई ऐसा करने में सामर्थ्‍यवान नहीं हो तो उसकी मानसिक चेतना से उसकी नैतिक दृष्टि का निर्माण होना चाहिए। मेरी नजरों में समाज एक डरावनी डायन है। वह अपने गर्म कम्‍बल में नफरत के सौदागरों, झूठों, विश्‍वासघातियों, लोभी-लालचियों और हत्‍यारों तक को बडे प्रेम से छुपा लेती है। जो लोग इस कंबल की आरामदेह गर्मी से नफरत करते हैं उन्‍हें बाहर ठिठुरने के लिए छोड दिया जाता है। अगर मैं झूठ बोलती, नकली चेहरा दिखाती, विश्‍वासघात करती और नफरत फैलाती तो मुझे भी नैतिकता के इस आरामदेह गर्म कंबल की पनाह मिल सकती थी। लेकिन तब मैं एक लेखिका नहीं होती। मेरे गले में अटकी सच्‍चाइयां कभी बाहर प्रकाश में नहीं आतीं। एक लेखक की पहली और सबसे बडी शर्त यही है कि वह अपने आपको उन कसौटियों पर खरा उतारे, जो वह समाज से चाहता है, यानी स्‍वयं को उस चूहे के रूप में रखे जिस पर परीक्षण किये जाते हैं। उसे जिंदगी के अनुभवों से कभी नहीं भागना चाहिए। उसे अपने आपको कुहरे की ठिठुरन और आग की आंच के सामने खडा कर देना चाहिए। उसके पांवों को कभी आराम नहीं करना चाहिए। वो तो उसे हत्‍यारे की मांद तक ले जाते हैं। उसकी इंद्रियों को बस जरा-सा आराम मिलता है। वो हंसेगा, शराब पियेगा, प्रेम करेगा, बेहोश पडा रहेगा, बुरी तरह बीमार होगा और फूट-फूट कर रोएगा। उसका प्रमुख काम है मानवीय जीवन के अनचीन्‍हे पहलुओं को संजोकर रखना। यह मानव देह आखिरकार एक दिन या तो आग की शिकार होनी है या फिर धरती के कीटाणुओं की। मनुष्‍य इस पृथ्‍वी का शिकार है। यह धरती मानव की मांस-मज्‍जा से ही खुराक लेती है। लेकिन मनुष्‍य के शब्‍द अमर होने चाहिएं। इंसान बोलता है, लेकिन अवसर आने पर उसे सच्‍चाई नहीं निगल जानी चाहिए।
एक लेखक कौन होता है, वो जिसने अपनी अंगूठी बदल ली है और भविष्‍य के साथ मंगनी कर ली है। वह आपसे नहीं आपकी आने वाली पीढियों से संवाद करता है। उसके मस्तिष्‍क में ज्ञान है, समझ है, इसीलिए वह उस वक्‍त भी चुप नहीं होता, जब आपके फेंके पत्‍थरों से उसका शरीर लहूलुहान और घायल जाता है।
कुछ लोगों ने मुझे कहा कि इस तरह की आत्‍मकथा लिखना, पूरी ईमानदारी के साथ, कुछ भी नहीं छुपाना, एक प्रकार से एक-एक कर अपने ही कपडे उतारने जैसा काम है, यानी स्‍ट्रिपटीज। यह सच हो सकता है। मैं सबसे पहले अपने कपडे और गहने उतार कर रख दूंगी। फिर मेरी इच्‍छा है कि मैं इस हल्‍की भूरी त्‍वचा के छिलके उतारकर रख दूं और फिर अपनी अस्थियों को चकनाचूर कर डालूं। आखिर में मुझे पूरी उम्‍मीद है कि आप मेरी बेघर, अनाथ और बहुत ही सुंदर उस आत्‍मा को देख सकेंगे, जो अस्थियों और मांस-मज्‍जा के कहीं बहुत गहरे भीतर तक धंसी हुई है, यानी आप चौथे आयाम में मेरी आत्‍मा देख सकेंगे। मैं आपके सामने अपनी इस चमकीली-रंगीन, कोमल, कांतिवान, गर्म देह को नहीं रखना चाहती, क्‍योंकि यह तो सिर्फ एक कवच है, महज खोल है। यह एक जीवंत गुडिया है, जो खेलती है, बातें करती है, अभिनय करती है। इसकी गतिविधियां उतनी ही बेमानी हैं जितनी गुडिया की। लेकिन मेरी अदृश्‍य आत्‍मा आपसे पूछना चाहती है कि क्‍या आप मुझे प्रेम करने के काबिल होंगे, क्‍या आप मुझे उस दिन प्रेम करने के लायक होंगे जब मैं इस देह को उतार फेंकूंगी जो सिर्फ एक आवरण है... आप सिर हिला रहे हैं, यह असंभव है। इसकी अहमियत सिर्फ तभी तक है जब तक ये कपडे और गहने हैं। उतार दीजिए इन उन्‍नत उरोजों को, हटा दीजिए इन रेशमी जुल्‍फों को और महकती जघन रोमावलियों को... जो हमारी आंखें में बसी हैं, फिर क्‍या बच जाता है हमारे सामने, एक ऐसा आकार जिसकी हमें कोई जरूरत ही नहीं। यह बहुत ही कारूणिक है, वह आत्‍मा... लेकिन मैं फिर भी कोशिश करूंगी। आखिरकार जब पाठक अंत में मेरी आत्‍मा से मिल लेगा, तो मुझे यकीन है कि वह मिलन एक पवित्र, बेदाग मिलन होगा, जैसे किसी भटकते हुए राही को घूमते-घूमते, थकान और प्‍यास से बेजार होने के बाद घने जंगल में मीलों लंबे सफर के बाद एक पवित्र आशियाना कहीं दूर दिखाई दे जाए और वह एकदम से चौंक पडे।
हम लोगों ने जून के महीने में सागर के पास एक धनुस्‍त्रा नामक परिसर में रहना शुरू किया था। यहां चमकीला नीला आकाश था, लाल गुलमोहर और पीली तितलियां थीं। उस डेढ एकड के कंपाउण्‍ड में समुद्र की ओर देखते दो छोटे-छोटे घर थे और सडक की ओर देखती एक छह मंजिला इमारत थी। इन घरों और इमारत के बीच के फासले तथा पश्चिम की ओर समुद्र तक जाती राह के बीच चमकती लाल बजरी बिछी थी। जब कोई उधर से गुजरता तो मुझे दूसरे छोटे घर के अपने कमरे में उसकी पदचाप सुनाई देती, जहां मैं लेटकर कोई उपन्‍यास पढ रही होती। मेरे बैडरूम के पश्चिम में खिडकी के पास नंदायरवत्‍तम की एक विशाल सुंदर झाडी थी, जिसके फूलों की महक कई दिनों तक मेरे कमरे में बसी रही।
सामने बैडमिंटन खेलने के लिए एक लॉन था। इसके चारों ओर मेंहदी की बाड थी, करीने से कटी हुई। साफ-सुथरी क्‍यारियों में गुलमेंहदी उगी हुई थी। पीली तितलियां वहां से सुबह ग्‍यारह बजे गुजरतीं। मेरा दूसरा बेटा प्रियदर्शन अपनी गहरी हरी कमीज में उन्‍हें पकडने के लिए दौडता, उन दिनों की मीठी यादें मुझे आज भी याद आती हैं। चौकोर आंगन में बोगनबेलिया और रंगून की बेल की छाया दोनों दीवारों पर पडती थी। मैंने वहां पीतल का एक लैंप लटका दिया था। एक दिन जैसे ही मैं गोधूलि के वक्‍त सबसे ऊपरी सीढी पर जाकर बैठी, भूरी आंखों वाला वो नौजवान मुझ तक आया और मेरे पांवों के पास बैठ गया। मैं उसके गुलाबी होंठों को कसकर चूमना चाहती थी। मैंने देखा कि बोलते हुए उसके होंठ कांप रहे थे।
‘क्‍या तुम मुझसे प्रेम करने लगे हो ?’ मैंने हंसते हुए उससे पूछा। उसने मेरी साडी की सलवटों में अपना चेहरा छुपा लिया। मेरे बच्‍चे खेलने के लिए दौडे जा रहे थे। भीतर ड्राइंग रूम में एक मेज लगाए सोफे पर मेरे पति अपनी फाइलों में व्‍यस्‍त थे...
मेरा सबसे बडा बेटा मोनू दो-तीन दिन से बुखार में पडा था, उसने बिस्‍तर से डठने की कोशिश की और गिर पडा। मैंने तुरंत बच्‍चों के डॉक्‍टर को बुलाया कि कहीं उसे पोलियो तो नहीं हो गया। बिना देर किये मैं उसे अस्‍पताल ले गई। डॉक्‍टर ने कहा कि ये पोलियो के प्रारंभिक लक्षण हैं। एकमात्र इलाज यह है कि इसके हाथों और पांवों का तापमान बढाया जाए। मैं निढाल हो गई, मुझे अपने छोटे बेटे और पति की याद आने लगी, अस्‍पताल में हर तरफ अव्‍यवस्‍था थी। मैं अपना भी मानसिक संतुलन खो चुकी थी। मैं किसी भी वक्‍त फूट-फूट कर रोने के लिए तैयार थी। मेरे छह साल के बेटे ने कई बार मुझसे पूछा:
‘अम्‍मा, आप क्‍यों रो रही हैं?‘
एक दिन मेरा खूबसूरत नौजवान दोस्‍त मुझसे मिलने अस्‍पताल आया। मेरा बेटा सो रहा था। मुझे उसका आभार जताने के लिए शब्‍द नहीं मिल रहे थे। उसने मेरी धार-धार बहती आंखें को चूम लिया।
‘आमी, आई लव यू।‘ उसने कहा। मैं उसके सीने में अपना चेहरा छुपाकर रोने लगी।
‘सब कुछ ठीक हो जाएगा, माइ डार्लिंग।‘ वह बडबडाया।
वो मेरा कौन था? वो मुझसे क्‍या चाहता था? वो नौजवान, जिसने उन गर्मियों में जब गुलमोहर धधक रहे थे, मेरी वेणी में नंदायरवत्‍तम की शीतल कलियां सजाईं थीं। अक्‍सर जब मैं उसके बिल्‍कुल पास खडी हो जाती, देह का दबाव देह पर पडता और आंखें नम होने लगतीं, मैं उससे कहती, ‘तुम जो चाहो कर सकते हो, मैं तुम्‍हारी हूं।‘
लेकिन वो इन्‍कार में सिर हिलाकर कहता, ‘मेरी नजरों में तुम एक देवी हो। मेरे लिए तुम्‍हारी देह पवित्र है। मैं इसका अपमान नहीं करूंगा...’
जब हम बाहर निकलकर उजाले में आते और बेमकसद घूमने लगते तो सांझ का ढलता हुआ सूरज उसकी भूरी आंखों में चमकने लगता। हमारे पास शांत एकांत की कोई जगह नहीं थी। जैसे ही हम हाथ में हाथ थामे सूरज की रोशनी में चलने लगते तो ऐसा लगता जैसे हम जन्‍नत के बाशिंदे हैं। ऐसे देवता जिन्‍हें गलती से इंसानों की दुनिया में भेज दिया गया है।