वो मेरे दादाजी की उम्र के थे, लेकिन मैं उन्हें बाकी दोस्तों की तरह हमेशा भाई साहब ही कहता था। वो भी भाई ही मानते थे, बात-बात में कुछ याद आने पर कहते थे, ‘प्रेमचंद तुम्हारी भाभी कहती है..’ और वे इस तरह पीढियों का अंतराल सिरे से खत्म कर देते थे। मैंने जीवन में ऐसा एक भी वरिष्ठ साहित्यकार नहीं देखा, जो इस कदर अपने से कमउम्र लोगों के बीच सहजता से घुलमिल जाता हो। हम श्रद्धा से पांव छूते तो मना कर देते, किताब भेंट करते तो हमेशा ‘सहधर्मी शब्दकर्मी समानधर्मा मित्र’ संबोधन ही लिखते, और भावुक होने पर बच्चों की तरह रो देते। वो सदा खिलखिलाता मुस्कुराते रहने वाला शख्स पहाड़ सी जिंदगी के कितने भयानक दौरों से गुजरकर आया था, यह जानकर मन श्रद्धा से भर जाता था और एकदम आत्मीयता का कभी ना थमने वाला दौर शुरू हो जाता था।
उनके साथ बिताए ना जाने कितने यादगार पल हैं जिनकी स्मृतियां भाव विह्वल कर देती हैं। लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के पीछे छिपी उनकी अनथक साहित्य् साधना को याद करता हूं तो लगता है ऐसा जीवन जीने के लिए एक जीवन कम पड़ जाए। कभी उनके जीवन के उतार चढाव भरे कंटकाकीर्ण पथ को याद करता हूं तो लगता है जैसे किसी विश्वस्तरीय लेखक की जीवन कथा पढ़ रहा हूं। बचपन में पिता संन्यासी होकर इकलौते पुत्र को अकेले छोड़कर चले गए। और एक सामंती किस्म के परिवार में कई हवेलियों के बीच हरीश भादाणी जी ने अपना बचपन गुजारा। ना जाने कितनी पीड़ाएं झेली होंगी इस बालक ने जो सामंती शोषण और अत्याचार बचपन में अपनी आंखों से देखा होगा। तभी तो वो ‘रोटी नाम सत है’ जैसा शाश्वत गीत लिख सके। हिंदी में क्या आपको विश्वसाहित्य में ऐसी कविता नहीं मिलेगी, जो एक शोकसंतप्तत स्वर को इस प्रकार एक आंदोलनकारी जनगीत में बदल दे। ‘राम नाम सत है’ की जगह 'रोटी नाम सत है कहना', कितने बड़े कवि के कण्ठ से निकला है, इसे इस गीत को पढने, गाने और सुनने से अहसास होता है। यहां वे अपनी संपूर्ण चेतना के साथ उपस्थित हैं, जिसमें वंचितों का क्रोध, अधिकारों के लिए संघर्ष और व्यवस्था के प्रति आमजन का गहरा आक्रोश एक साथ देखा जा सकता है। इस गीत की कुछ पंक्तियां हैं, "रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, ऐरावत पर इंदर बैठे बांट रहे टोपियां, झोलियां फैलाए लोग, भूल रहे सोटियां, वायदों की चूसनी से छाले पड़ जीभ पर, रसोई में लाव लाव भैरवी बजत है, बोले खाली पेट की करोड़ों करोड़ कूंडियां, तिरछी टोपी वाले भोपे भरे हैं बंदूकियां, भूख के धरमराज यही तेरा व्रत है, रोटी नाम सत है कि खाए से मुगत है।" मुक्ति राम के जाप से नहीं रोटी से मिलेगी। ऐसा स्वर आपको विश्वसाहित्य में इस चेतना के साथ आपको शायद ही कहीं मिलेगा।
हरीश जी एम.एन. राय और समाजवादी विचारों से चलकर मार्क्सवाद तक आए थे। लेकिन उनके भीतर की भारतीय मनीषा उन्हें बारंबार ऋग्वेद और उपनिषदों की ओर ले जाती थी, जिससे वे मार्क्सवाद और भारतीय मनीषा का प्रत्याख्यान करते थे। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं और उपनिषदों के अनेक सूक्तों की उन्होंने एक समाजशास्त्रीय ढंग से पुनर्रचना की है। और ऐसी रचनाओं का जब वे सस्वर पाठ करते थे तो जनमानस में ऐसा समां बंधता था कि पूछिए मत। उनके गाए गीतों पर हजारों लोग झूमते थे और उनकी अनुपस्थिति में भी हर जनांदोलन में उनके गीत गूंजते रहते हैं। उनके गीतों और कविताओं की पंक्तियां संघर्ष का नारा गईं। ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ जैसी पंक्ति हरीश भादाणी ही लिख सकते थे।
क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों से जो शोषण और अत्याचार देखा था, उसके प्रति उनकी घृणा इतनी जबर्दस्त थी कि जिस सामंती परिवार में पैदा हुए, उसकी एक एक ईंट तक उन्होंने आम आदमी की भूख मिटाने और साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘वातायन’ को चलाने में बेच डाली। ऐसा जीवट वाला साहित्यकार आपको किसी भी भाषा में शायद ही मिलेगा, जिसने एक नहीं तेरह हवेलियां बेचने के बाद एक छोटे से घर में रहना मंजूर किया हो। और इसके बाद खुद जनपथ पर आ गए और ‘सड़कवासी राम’ लिखने लग गए। इस नई राह पर हरीश जी ने पता नहीं कितने पापड़ बेले। बंबई और कलकत्ता के ना जाने कितने सेठों के नाम से किताबें लिखीं, बड़े बड़े फिल्मी गीतकारों के नाम से गीत लिखे। सिनेजगत में उनके नाम से बस ‘आरंभ’ फिल्म का गीत ही बचा है, ‘सभी सुख दूर से गुजरें, गुजरते ही चले जाएं’। लगता है उनका जीवन भी ऐसा ही रहा, जिसमें सारे सुख दूर से गुजरे और उनके हिस्से आई सिर्फ रचनात्मकता, जिसके माध्यम से वो जनता की आवाज यानी जनकवि बन गए।
(नई दुनिया के राजस्थान संस्करण में 4 अक्टूबर, 2009 को प्रकाशित)
हरीश जी का व्यक्तित्व अनूठा था . उनका रचनाकार भी बहुत जीवन्त था . आपने उनके व्यक्तित्व को बहुत आत्मीयता से उकेरा है .
ReplyDeleteहम सब उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके काम को आगे बढाने का वादा भी .
हरीश जी को विनम्र श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteउन्हें श्रद्धांजलि ,
ReplyDeleteसच है ...संघर्ष की आंच में तप कर ही कुंदन हुआ जा सकता है..
ReplyDeleteहरीश भदानी के विराट व्यक्तित्व को विनम्र श्रद्धांजलि..!!
उनके चले जाने से हुई आपकी व्यथा को आपका संस्मरण खूब बयां कर रहा है ...समय दुःख को कम करे ...प्रार्थना है ..!!