नोबल पुरस्कार के इतिहास में अब तक सिर्फ तीन अश्वेत साहित्यकारों को पुरस्कृत किया गया है, जिनमें वोले शोयिंका और टोनी मॉरिसन के साथ डेरेक वालकोट का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। वेस्टन इण्डीज के छोटे-से देश सेंट लूसिया के बेहद प्रतिष्ठित कवि डेरेक वालकोट को जब 1992 में नोबल पुरस्कार दिया गया, तब इस कैरेबियन द्वीप समूह के साहित्य की ओर विश्व समुदाय का ध्यान गया। यूरोप और वेस्ट इण्डीज की संस्कृति के बीच बंजारों की तरह घूमने वाले वालकोट के सृजन संसार में कविता बहुत गहराई के साथ रची बसी है। गुलामों जैसी विरासत से चलकर नोबल पुरस्कार तक की सृजनयात्रा बेहद रोचक और दिल दहला देने वाली भी है, लेकिन वालकोट की मस्तमौला फकीरी जैसी काव्यात्मक जिंदगी एक आदर्श भी है और मानक भी। यह जानकर बेहद आश्चर्य होता है कि नोबल पुरस्कार लेते वक्त वालकोट ने भारतीय रामलीला का विशद वर्णन किया था। दरअसल वे ट्रिनीडाड के एक गांव में भारतीय मूल के लोगों द्वारा खेले जाने वाली रामलीला की बात कर रहे थे और उनके नोबल भाषण का एक लंबा हिस्सा उस रामलीला के बहाने जड़ों से उखड़े, गुलामी से निकलकर आए, उपनिवेशवाद के सताए लोगों के दर्द को बयान कर रहा था, जिसे पहली बार विश्वमंच पर इतना बड़ा सम्मान दिया जा रहा था।
चित्रकार पिता और टीचर मां के यहां वालकोट एक जुड़वां भाई रोड्रिक के साथ 23 जनवरी, 1930 को वालकोट का जन्म एक सुदूर द्वीप के एक गांव में हुआ। 18 बरस की उम्र में पहला कविता संग्रह आया और ‘इन ए ग्रीन नाइट’ संग्रह से वे चर्चा में आए। पत्रकारिता और देश-विदेश में अध्यापन करते हुए जीवनयापन किया और इन दिनों वे ट्रिनीडाड में रह रहे हैं। वालकोट के लेखन में उनके जीवन के आत्मसंघर्ष और कैरेबियन द्वीप समूह में रहने वाले लोगों की जिंदगी का सच्चा लेखा-जोखा देखने को मिलता है।
‘द फॉरच्यून ट्रेवलर’ और ‘मिडसमर’ में वालकोट ने अमेरिका में खुद को एक अश्वेत कवि के रूप में गहराई से देखने की कोशिश की। क्योंकि अमेरिका प्रवास के दौरान उन्हें रह-रह कर अपना कैरेबियाई परिवेश याद आता था। एक कवि ह्रदय व्यक्तित्व अपनी जड़ों उखड़कर कैसे अपने आपको तनहा महसूस करता है, इसे बहुत शिद्दत से वालकोट ने अपने इन संग्रहों में रेखांकित किया है। उनकी किताबों के ‘कास्टअवे’ और ‘द गल्फ' जैसे शीर्षक भी उनकी इसी मानसिक उधेड़बुन को व्यक्त करते हैं। उन्होंने अपने एक साक्षात्का्र में कहा था कि हम चाहे कहीं भी रहें, अमेरिका में या लंदन में, हमें महसूस होता है कि जैसे हमें अलग रखा जाता है, यह एक किस्म का अलगाववाद है।
वालकोट की सबसे मशहूर कविता है ‘ओमेरोस’, जो होमर से प्रेरित है। इस काव्यकृति में वालकोट ने होमर के प्रसिद्ध नाटक ‘इलियड’ और ‘ऑडिसी’ को कैरेबिया पृष्ठभूमि में पुनर्सृजित किया। चौंसठ अध्यायों वाली इस लंबी कविता में वालकोट ने निर्वासन, बिछुड़े हुए लोगों और कैरेबियाई जनजीवन का चित्रण करते हुए नस्लवाद के प्रति अपना गुस्सा और उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों खासकर औपनिवेशिक संस्कृति का समूल नकार प्रस्तुत किया है। इस किताब में वे एक जगह लिखते हैं, ‘मैं महज एक काला हब्शी हूं / जिसे समुद्र से प्रेम है / मेरे पास गहरी औपनिवेशिक शिक्षा है / मेरे भीतर डच, नीग्रो और अंग्रेजी भाषाएं मौजूद हैं / या तो मैं कुछ नहीं हूं या फिर एक पूरा राष्ट्र हूं।‘
वालकोट कवि के साथ बहुत बड़े नाटककार भी हैं। उनके लिखे नाटकों में भी कविताओं की ही अभिव्यक्ति हुई है अर्थात् जो बात कविता में कही, उसे नाटक में पूरी कहानी के साथ कुछ और नाटकीय वैविध्य के साथ प्रस्तुत किया। दो दर्जन से अधिक नाटकों में उन्होंने पूरे कैरेबियाई द्वीप समूह की अंतसचेतना को बहुत गहराई से देखा-परखा है। चार सौ साल के गुलामी और औपनिवेशिक दासता वाले इतिहास की परत दर परत खोज करते हुए वे उस विराट जनसमुदाय की आवाज बन जाते हैं जो सदियों से अपमानित और प्रताडि़त होता आया है। यह वह जनसमुदाय है जिसे दक्षिण अफ्रीका और भारत से जहाजों में भरकर अंग्रेज वहां ले गए थे, जिनकी अपनी जुबान और संस्कृति उपनिवेशवाद के चलते गुम हो गई और वो एक अजीब सी मिली-जुली खिचड़ी किस्म की संस्कृति में रहने के लिए अभिशप्त हैं। इस जनता में वो भारतीय भी हैं जिनका वहां के सांस्कृतिक और सामाजिक ही नहीं आर्थिक और राजनैतिक रूप से भी महत्व है। भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक और नोबल पुरस्कार से सम्मानित सर वी.एस. नायपाल भी यहीं से गए थे और पॉप गायिका पार्वती खान भी यहीं की हैं।
वालकोट का सबसे प्रसिद्ध नाटक है ‘ड्रीम आन मंकी माउण्टेन’। इस नाटक में वालकोट ने कैरेबियाई संस्कृति का विहंगम परिदृश्य रचते हुए एक स्वनप्निल संसार की रचना की है जिसमें दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाता है। इस विविधतापूर्ण् सांस्कृतिक परिदृश्य के बारे में और उसकी अपनी पीड़ा को लेकर वालकोट ने एक जगह लिखा है, ‘यहां हम सब अजनबी हैं...हमारे शरीर एक भाषा में विचार करते हैं और दूसरी भाषा में विचरते हैं।‘
वालकोट मानक अंग्रेजी और कैरेबियाई भाषा में समान रूप से लिखते हैं। उनकी मातृभाषा क्रेयोल है जो एक छोटे से समुदाय की भाषा है। उन्होंने अपने जुड़वां भाई की मृत्यु के बाद 2004 में अपनी आखिरी पुस्तक लिखी ‘द प्रोडिगाल’।
वालकोट का कहना है कि वे अपनी क्षमता का आठवां हिस्सा ही लिख सके हैं, और कैरेबिया द्वीप समूह में बोली जाने वाली तमाम टूटी-फूटी खिचड़ी भाषाओं से वे पूर्णत: परिचित हैं। डेरेक वालकोट ने विश्वसाहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसके कारण उन्होंने अपनी रचनात्मकता में एक तरफ जहां यूरोपियन सर्जनात्मक मानदण्डों के अनुकूल प्रतिमानों का प्रयोग किया वहीं अपने कैरेबियाई द्वीप समूह की गहरी संवेदनशील और आत्मीयता भरी संस्कृति को जुबान दी। कलात्मकता के साथ रचनाओं में आई इस संवेदनशीलता ने वालकोट की काव्य और नाट्य कला को नया उत्कर्ष दिया, जिसे खारिज करना असंभव था। ऊपर से उनके काम की मात्रा इतनी विपुल और समृद्ध कि नोबल पुरस्कार देते वक्त उनके सृजन को ‘महासागरीय कृतित्व्’ कहा गया। इस महासागर से प्रस्तुत है एक कविता-
प्रेम के बाद प्रेम
वक्त आएगा
जब तुम प्रफुल्लता के साथ
अपने ही दरवाजे पर, अपने ही आईने में
खुद का आते हुए स्वागत करोगे
और दोनों एक दूसरे की ओर मुस्कुराते हुए मिलोगे
फिर कहोगे, बैठो, कुछ खा लो
तुम उस अज्ञात व्यक्ति से प्रेम करोगे
जो तुम खुद ही थे
शराब परोसो, रोटी परोसो
उस अजनबी को वापस अपना दिल दे दो
जिसने तुम्हें प्रेम किया है
तमाम जिंदगी जिसे तुमने
किसी और के लिए उपेक्षित रखा
जिसे तुम दिल से जानते हो
किताबों की अलमारी से प्रेमपत्र बाहर निकाल लो
वो तस्वीरें, वो निराशा भरे नोट्स
आईने से अपनी ही छवि खुरच लो
बैठो, अपनी जिंदगी की दावत उड़ाओ।
१९९२ के नोबल पुरस्कार विजेता वालकोट के बारे में आपने अभूतपूर्व जानकारियाँ दी .. त्रिनिदाद के गावं में खेली जाने वाली राम लीला के बारे में जानकार सचमुच हर्ष हुआ .. क्या उनका वक्तव्य उपलब्ध नहीं हों सकेगा ?
ReplyDeletepada tha patrika ke 'hum log'me. acchi jankari di. abhar.
ReplyDeleteValkot ji vicharon se milwaane hetu aabhaar.
ReplyDeleteThink Scientific Act Scientific
जानकारी से भरा लेख
ReplyDeleteकृपया मुझे प्रलेस के सामूहिक ब्लाग से जोडें।
तुम उस अज्ञात व्यक्ति से प्रेम करोगे
ReplyDeleteजो तुम खुद ही थे ...
मेरा वो कहीं मैं स्वयं तो नहीं ..!!
वालकोट पर लिखे गए आपके लेख से जाना उनके जीवन दर्शन को ..आभार ..!!