हिंदी आलोचना की परंपराओं में उपेक्षा भी एक परंपरा ही है, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण कवियों को बिल्कुल भुला दिया जाता है और कम महत्वपूर्ण कवियों को खासी तवज्जोह देकर महान सिद्ध कर दिया जाता है। ऐसी उपेक्षा के शिकार कवियों में हिंदी और राजस्थानी के सुप्रसिद्ध जनकवि हरीश भादाणी भी हैं। साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा ने भले ही हरीश भादाणी को ज्यादा महत्व ना दिया हो, लेकिन वे एक ऐसे कवि थे, जिनकी कविता हजारों लाखों कण्ठों से एक साथ फूटती हुई इंकलाब का परचम बन जाती है। गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर, 2009 को ऋषि परंपरा के इस महान कवि ने कैंसर से लड़ते हुए अंतिम सांस ली। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी महायात्रा में बीकानेर और प्रदेश भर से आए हजारों लोगों ने उनके गीत गाते हुए उन्हें अंतिम विदाई दी।
11 जून, 1933 को बीकानेर के एक समृद्ध सामंती परिवार में उनका जन्म हुआ। जन्म के तुरंत बाद ही पिता संन्यासी हो गए और इस शोक को सह नहीं पाने के कारण जल्द ही माता का भी देहावसान हो गया। जब तक पिता रहे, उनके घर में भक्ति संगीत की महफिलें जमती थीं। इसलिए कदाचित उन्हें विरासत में संन्यासी पिता बेवा जी महाराज जैसा सुरीला कण्ठ मिला, जिससे गीत सुनकर लोग उन्मत्त हो जाते थे। संन्यासी पिता की बड़ी प्रतिष्ठा थी। जयपुर में एक घर में उनकी विशाल तस्वीर लगी हुई कुछ लोगों ने देखी है। बहरहाल, बचपन में भादाणी जी की घर में ही हिंदी, महाजनी और संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा हुई। जन्म के साथ ही पिता के संन्यासी बनने और मां की असमय मृत्यु के कारण परिवार द्वारा उन्हें अपशगुनी बालक करार दिया गया, दूसरी तरफ घर का सामंती माहौल। इसलिए उन्हें संभवतः बचपन से ही उस घर से वितृष्णा हो गई थी, ऐसे में उनका प्रतिरोध कविता के सिवा और कहां स्वर पाता? और जब समाजवादियों के गढ़ बीकानेर में रायवादियों और समाजवादियों के संपर्क में आए तो फिर पूरी दुनिया उनका घर हो गई। किसी को तंगहाल देखते तो अपनी चिंता छोड़कर उसकी मदद करने में लग जाते। जो कुछ संपति विरासत में मिली था, उसे परमार्थ में लगाने लगे। सामाजिक आंदोलनों में सक्रियता ऐसी बढ़ी कि एम.ए. अधूरा रह गया और मजदूर-किसानों के साथ संघर्ष करते हुए जेल जाना भी सामान्य बात हो गई। आंदोलनों में सिर्फ भाषणों से काम नहीं चलता इसलिए संघर्ष के जुझारू गीत लिखने लगे। लोकप्रिय रूमानी गीतों का गायक, मंचों पर वाहवाही लूटने वाला गीतकार, जनता का, जनता के संघर्षों का कवि बन गया।
उनका घर जरूरतमंदों का आश्रयस्थल बन गया। दूर-दूर से साहित्यकार, परिचित, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत से लोग आकर उनके विशाल हवेलीनुमा घर में डेरा जमा लेते और फिर आवश्यककता के अनुकूल समय तक, जो कई बार दो साल भी होता, वहीं रहते। 1960 में उन्होंने राजस्थान में अपने ढंग की नई साहित्यिक पत्रिका ‘वातायन’ का प्रकाशन शुरु किया। (हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी की पहली कविता इसी ‘वातायन’ में प्रकाशित हुई थी।) अब भादाणी जी को लोगों के साथ पत्रिका प्रकाशन के लिए भी आर्थिक व्यवस्था करनी थी। एक-एक कर उनकी सारी विरासत परमार्थ और ‘वातायन’ के लिए बिकती चली गई और इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए बंबई और कलकत्ता में कई किस्म की कलमी मजूरी करनी पड़ी। चौदह वर्षों तक उन्होंने ‘वातायन’ को नियमित चलाया। लेकिन अनवरत संघर्ष करने की प्रक्रिया में उनकी आखिरी हवेली भी बिक गई और उसी हवेली के सामने एक छोटा-सा वातायनी घर बनाकर रहने लगे। उनकी दरियादिली में इस सबके बावजूद कोई कमी नहीं आई।
सिर्फ कविता के बल पर जीने वाला कवि आपको हरीश भादाणी जैसा दूसरा शायद ही मिले। मंच के कवि सम्मेलनों से कविता की यात्रा आरंभ करने वाले हरीश जी जनता के संघर्ष की कविता से होकर ऋग्वेद और उपनिषदों की रहस्यमय कविताओं तक गए। ‘सयुजा सखाया’ संग्रह में उनके वो गीत हैं, जिनके बारे में प्रख्यात आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय ने लिखा है कि इन कविताओं में ‘भारत के आध्यात्मिक, दार्शनिक चिंतन को यथार्थ जीवन, कर्म और लौकिक संबंधों से पृथक न कर उनसे गूंथा गया है, कबीर की चदरिया की तरह। इससे जीवन-जगत की सही मानवीय समझ पैदा होती है। यद्यपि चिंतन भीतर से शुरु होता है लेकिन वह सारे सृष्टि-अर्थ खोल देता है ताकि मनुष्य, चराचर की समानता और सह अस्तित्वमय जीवन जीने की ओर बढ़ सके।... कवि ने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि का समायोजन, पारंपरिक भाव, चेतना और अभिव्यक्ति का सही मान रखते हुए किया है, ताकि अलौकिक अर्थ का महत्व भी कम ना हो और वह लौकिक अर्थ में भी ढल सके। यह शैली संतों जैसी है।’ हरीश जी ने अपने निजी जीवनानुभवों से काव्ययात्रा में यह रास्ता चुना था, भारतीय मनीषा का एक प्रगतिशील जनवादी प्रत्याख्यान करने का, जिसे पढ़-सुन कर नए अर्थ ध्वनित होते हैं। बाबा नागार्जुन को भी उनकी ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं।
हरीश जी की कविताओं के हिंदी और राजस्थानी में बीस से अधिक संकलन हैं, इसके अलावा जनगीतों और साक्षरता के लिए लिखी दो दर्जन से अधिक पुस्तिकाएं प्रकाशित हुईं। कविता के लिए उन्हें मीरा प्रियदर्शिनी सम्मान, राहुल सम्मान और बिहारी सम्मान सहित अनेक सम्मान-पुरस्कारों से नवाजा गया। बंबई में कलम मजूरी करते हुए उन्होंने फिल्मी दुनिया के लिए भी काम किया। इनमें से बहुत-सी चीजें दूसरों के नाम चली गईं, उनके नाम बचा सिर्फ ‘आरंभ’ फिल्म का गीत, ‘सभी सुख दूर से गजरें, गुजरते ही चले जाएं’। मुकेश के गाए इस गीत को सुनकर अंदाज होता है कि सिनेमा के लिए ऐसी कविता भी लिखी जा सकती है।
वे कई मायनों में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे। अपनी बेटियों को उन्होंने खुद आगे बढ़कर सामाजिक आंदोलनों में अग्रणी बनाया। उनकी सबसे बड़ी बेटी सरला माहेश्वरी पं. बंगाल से दो बार सांसद रह चुकी हैं। बीकानेर में पुष्पा और कविता निरंतर आंदोलनों में सक्रिय रहती है। उन्होंने बीकानेर की प्रसिद्ध होली को अश्लीलता से मुक्त कर उसमें जनजागरण के गीतों की शुरुआत की। सोरठा छंद में उन्होंने जो ‘हूणिए’ लिखे, वो जनसंघर्षों के दौरान क्रांति का उद्घोष गीत बन गए। उनके जनगीतों में ‘रोटी नाम सत है और ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ वो गीत हैं, जिन्हें हजारों लोगों द्वारा दिल्ली के इंडिया गेट से लेकर गांव-कस्बों के जनांदलनों में गाया जाता है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि बीकानेर में उनका पता किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी, कोई तांगे वाला आपको बिना पैसे लिए उनके घर छोड़ देता था। हर गांव, कस्बे और शहर में उनके अपने जैसे कई घर थे, जहां वे अपनी सुविधा से रहते थे। जीवन भर लोगों के काम आने वाले इस महान जनकवि ने मृत्यु के बाद अपनी देह बीकानेर मेडिकल कालेज को दान कर अपनी अंतिम इच्छा पूरी की। शत शत नमन।
पार्टी झण्डे में लिपटी जनकवि की देह
(बीकानेर मेडिकल कॉलेज को देहदान करते मित्र, परिजन और प्रशंसक, 'हरीश भादानी अमर रहे' का नारा लगाती श्रीमती जमुना भादानी, हरीश जी की जीवनसंगिनी)
हरीश भादानी जी को पुष्पांजलि अर्पित करते मुख्यमंत्री अशोक गहलोत
( यह आलेख हिंदी मासिक 'आउटलुक' के नवंबर, 2009 अंक में प्रकाशित)
हाँ, वे सच में जनकवि थे ,बाहर भीतर एक से .इसीलिए उन्हें दिल की गहराइयों से आदर और प्यार मिला.
ReplyDeleteआप की बात सही है कई बार ऐसा देखने में आता है कि कवि या साहित्यकार को उअसके रसूख के आधार पर प्रसिद्धी मिलतै।है।आपने बहुत बढिया पोस्ट प्रस्तुत की है।आभार।
ReplyDeleteप्रेम भाई, आपने बहुत सलीके से भादाणी जी को स्मरण किया है.बधाई और आभार.
ReplyDeleteमहान कवी थे भादाणी जी शत शत नमन उस महान विभूति को भारत माँ के उस लाल को !!! आपका बहुत बहुत आभार जिन्होंने ऐसे महाकवि से मिलवाया !!!
ReplyDeletesahity me hi nahi sabhi kshetron me esa hi hota aaya hai., prasidhi aur pratishtha kuchh logon ko hi mil paati hai. Harish Bhadani ke saath bhi esa hi hua. jinhe sampuran hindi jagat me patishtha milani chahiye thi, we keval rajasthan ke kavi ho kar rah gaye.
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