भारतीय साहित्य में कमला दास उर्फ कमला सुरैया उर्फ माधवी कुटटी जैसी लेखिकाएं न होतीं तो शायद आधुनिक भारतीय महिला लेखन की वह तस्वीर भी नहीं दिखाई देती जिस पर आज का समूचा स्त्री-विमर्श गर्व करता है। एक साधारण गृहस्थ महिला अपनी सच्ची भावनाओं को जब अपनी पूरी ताकत और साहस के साथ लेखन में उतारती है तो साहित्य की दुनिया में तहलका मच जाता है। कमलादास का लेखन इसकी गवाही है, जिसने अपने दुस्साहस के चलते ना जाने कितनी बदनामियों के कलंक झेले, लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुई। साहित्य की दुनिया में ऐसी महिलाओं को एक वक्त तक बेहद शंकालु दृष्टि से देखा जाता है और साधारण लोग तो इनके नाम से ही मुंह बिचकाते फिरते हैं। उत्तर भारत में ऐसा साहसिक लेखन उर्दू में डा. रशीद जहां ने किया था, जब उनकी प्रतिबंधित कहानियां लोग बंद कमरों में चोरी-चोरी पढते थे। कमला दास के नाम से अंगेजी में और माधवी कुटटी के नाम से मलयालम में लिखने वाली कमला सुरैया की अंग्रेजी और मलयालम दोनों भाषाओं में आत्मकथा जब छपी तो हंगामा मच गया था। अंग्रेजी में ‘माइ स्टोरी’ और मलयालम में ‘एंटी कथा’ खूब पढी गई और विवादों में भी रही। बाद में अंग्रेजी पुस्तक को उन्होंने स्वयं एक औपन्यासिक कृति कह दिया। यहां प्रस्तुत है उनकी मलयाली आत्मकथा का एक अध्याय-
ऐसे बहुत से कारण हैं कि मैं क्यों उन नैतिक मापदण्डों को अस्वीकार कर देती हूं जो समाज में आसानी से मान लिए जाते हैं। यह नैतिक दृष्टि नश्वर मानवीय देह से पैदा होती है। मेरा यकीन है कि आदर्श नैतिक दृष्टि, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए, का निर्माण मनुष्य की आंतरिक आत्मा से होना चाहिए, और अगर कोई ऐसा करने में सामर्थ्यवान नहीं हो तो उसकी मानसिक चेतना से उसकी नैतिक दृष्टि का निर्माण होना चाहिए। मेरी नजरों में समाज एक डरावनी डायन है। वह अपने गर्म कम्बल में नफरत के सौदागरों, झूठों, विश्वासघातियों, लोभी-लालचियों और हत्यारों तक को बडे प्रेम से छुपा लेती है। जो लोग इस कंबल की आरामदेह गर्मी से नफरत करते हैं उन्हें बाहर ठिठुरने के लिए छोड दिया जाता है। अगर मैं झूठ बोलती, नकली चेहरा दिखाती, विश्वासघात करती और नफरत फैलाती तो मुझे भी नैतिकता के इस आरामदेह गर्म कंबल की पनाह मिल सकती थी। लेकिन तब मैं एक लेखिका नहीं होती। मेरे गले में अटकी सच्चाइयां कभी बाहर प्रकाश में नहीं आतीं। एक लेखक की पहली और सबसे बडी शर्त यही है कि वह अपने आपको उन कसौटियों पर खरा उतारे, जो वह समाज से चाहता है, यानी स्वयं को उस चूहे के रूप में रखे जिस पर परीक्षण किये जाते हैं। उसे जिंदगी के अनुभवों से कभी नहीं भागना चाहिए। उसे अपने आपको कुहरे की ठिठुरन और आग की आंच के सामने खडा कर देना चाहिए। उसके पांवों को कभी आराम नहीं करना चाहिए। वो तो उसे हत्यारे की मांद तक ले जाते हैं। उसकी इंद्रियों को बस जरा-सा आराम मिलता है। वो हंसेगा, शराब पियेगा, प्रेम करेगा, बेहोश पडा रहेगा, बुरी तरह बीमार होगा और फूट-फूट कर रोएगा। उसका प्रमुख काम है मानवीय जीवन के अनचीन्हे पहलुओं को संजोकर रखना। यह मानव देह आखिरकार एक दिन या तो आग की शिकार होनी है या फिर धरती के कीटाणुओं की। मनुष्य इस पृथ्वी का शिकार है। यह धरती मानव की मांस-मज्जा से ही खुराक लेती है। लेकिन मनुष्य के शब्द अमर होने चाहिएं। इंसान बोलता है, लेकिन अवसर आने पर उसे सच्चाई नहीं निगल जानी चाहिए।
एक लेखक कौन होता है, वो जिसने अपनी अंगूठी बदल ली है और भविष्य के साथ मंगनी कर ली है। वह आपसे नहीं आपकी आने वाली पीढियों से संवाद करता है। उसके मस्तिष्क में ज्ञान है, समझ है, इसीलिए वह उस वक्त भी चुप नहीं होता, जब आपके फेंके पत्थरों से उसका शरीर लहूलुहान और घायल जाता है।
कुछ लोगों ने मुझे कहा कि इस तरह की आत्मकथा लिखना, पूरी ईमानदारी के साथ, कुछ भी नहीं छुपाना, एक प्रकार से एक-एक कर अपने ही कपडे उतारने जैसा काम है, यानी स्ट्रिपटीज। यह सच हो सकता है। मैं सबसे पहले अपने कपडे और गहने उतार कर रख दूंगी। फिर मेरी इच्छा है कि मैं इस हल्की भूरी त्वचा के छिलके उतारकर रख दूं और फिर अपनी अस्थियों को चकनाचूर कर डालूं। आखिर में मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरी बेघर, अनाथ और बहुत ही सुंदर उस आत्मा को देख सकेंगे, जो अस्थियों और मांस-मज्जा के कहीं बहुत गहरे भीतर तक धंसी हुई है, यानी आप चौथे आयाम में मेरी आत्मा देख सकेंगे। मैं आपके सामने अपनी इस चमकीली-रंगीन, कोमल, कांतिवान, गर्म देह को नहीं रखना चाहती, क्योंकि यह तो सिर्फ एक कवच है, महज खोल है। यह एक जीवंत गुडिया है, जो खेलती है, बातें करती है, अभिनय करती है। इसकी गतिविधियां उतनी ही बेमानी हैं जितनी गुडिया की। लेकिन मेरी अदृश्य आत्मा आपसे पूछना चाहती है कि क्या आप मुझे प्रेम करने के काबिल होंगे, क्या आप मुझे उस दिन प्रेम करने के लायक होंगे जब मैं इस देह को उतार फेंकूंगी जो सिर्फ एक आवरण है... आप सिर हिला रहे हैं, यह असंभव है। इसकी अहमियत सिर्फ तभी तक है जब तक ये कपडे और गहने हैं। उतार दीजिए इन उन्नत उरोजों को, हटा दीजिए इन रेशमी जुल्फों को और महकती जघन रोमावलियों को... जो हमारी आंखें में बसी हैं, फिर क्या बच जाता है हमारे सामने, एक ऐसा आकार जिसकी हमें कोई जरूरत ही नहीं। यह बहुत ही कारूणिक है, वह आत्मा... लेकिन मैं फिर भी कोशिश करूंगी। आखिरकार जब पाठक अंत में मेरी आत्मा से मिल लेगा, तो मुझे यकीन है कि वह मिलन एक पवित्र, बेदाग मिलन होगा, जैसे किसी भटकते हुए राही को घूमते-घूमते, थकान और प्यास से बेजार होने के बाद घने जंगल में मीलों लंबे सफर के बाद एक पवित्र आशियाना कहीं दूर दिखाई दे जाए और वह एकदम से चौंक पडे।
हम लोगों ने जून के महीने में सागर के पास एक धनुस्त्रा नामक परिसर में रहना शुरू किया था। यहां चमकीला नीला आकाश था, लाल गुलमोहर और पीली तितलियां थीं। उस डेढ एकड के कंपाउण्ड में समुद्र की ओर देखते दो छोटे-छोटे घर थे और सडक की ओर देखती एक छह मंजिला इमारत थी। इन घरों और इमारत के बीच के फासले तथा पश्चिम की ओर समुद्र तक जाती राह के बीच चमकती लाल बजरी बिछी थी। जब कोई उधर से गुजरता तो मुझे दूसरे छोटे घर के अपने कमरे में उसकी पदचाप सुनाई देती, जहां मैं लेटकर कोई उपन्यास पढ रही होती। मेरे बैडरूम के पश्चिम में खिडकी के पास नंदायरवत्तम की एक विशाल सुंदर झाडी थी, जिसके फूलों की महक कई दिनों तक मेरे कमरे में बसी रही।
सामने बैडमिंटन खेलने के लिए एक लॉन था। इसके चारों ओर मेंहदी की बाड थी, करीने से कटी हुई। साफ-सुथरी क्यारियों में गुलमेंहदी उगी हुई थी। पीली तितलियां वहां से सुबह ग्यारह बजे गुजरतीं। मेरा दूसरा बेटा प्रियदर्शन अपनी गहरी हरी कमीज में उन्हें पकडने के लिए दौडता, उन दिनों की मीठी यादें मुझे आज भी याद आती हैं। चौकोर आंगन में बोगनबेलिया और रंगून की बेल की छाया दोनों दीवारों पर पडती थी। मैंने वहां पीतल का एक लैंप लटका दिया था। एक दिन जैसे ही मैं गोधूलि के वक्त सबसे ऊपरी सीढी पर जाकर बैठी, भूरी आंखों वाला वो नौजवान मुझ तक आया और मेरे पांवों के पास बैठ गया। मैं उसके गुलाबी होंठों को कसकर चूमना चाहती थी। मैंने देखा कि बोलते हुए उसके होंठ कांप रहे थे।
‘क्या तुम मुझसे प्रेम करने लगे हो ?’ मैंने हंसते हुए उससे पूछा। उसने मेरी साडी की सलवटों में अपना चेहरा छुपा लिया। मेरे बच्चे खेलने के लिए दौडे जा रहे थे। भीतर ड्राइंग रूम में एक मेज लगाए सोफे पर मेरे पति अपनी फाइलों में व्यस्त थे...
मेरा सबसे बडा बेटा मोनू दो-तीन दिन से बुखार में पडा था, उसने बिस्तर से डठने की कोशिश की और गिर पडा। मैंने तुरंत बच्चों के डॉक्टर को बुलाया कि कहीं उसे पोलियो तो नहीं हो गया। बिना देर किये मैं उसे अस्पताल ले गई। डॉक्टर ने कहा कि ये पोलियो के प्रारंभिक लक्षण हैं। एकमात्र इलाज यह है कि इसके हाथों और पांवों का तापमान बढाया जाए। मैं निढाल हो गई, मुझे अपने छोटे बेटे और पति की याद आने लगी, अस्पताल में हर तरफ अव्यवस्था थी। मैं अपना भी मानसिक संतुलन खो चुकी थी। मैं किसी भी वक्त फूट-फूट कर रोने के लिए तैयार थी। मेरे छह साल के बेटे ने कई बार मुझसे पूछा:
‘अम्मा, आप क्यों रो रही हैं?‘
एक दिन मेरा खूबसूरत नौजवान दोस्त मुझसे मिलने अस्पताल आया। मेरा बेटा सो रहा था। मुझे उसका आभार जताने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। उसने मेरी धार-धार बहती आंखें को चूम लिया।
‘आमी, आई लव यू।‘ उसने कहा। मैं उसके सीने में अपना चेहरा छुपाकर रोने लगी।
‘सब कुछ ठीक हो जाएगा, माइ डार्लिंग।‘ वह बडबडाया।
वो मेरा कौन था? वो मुझसे क्या चाहता था? वो नौजवान, जिसने उन गर्मियों में जब गुलमोहर धधक रहे थे, मेरी वेणी में नंदायरवत्तम की शीतल कलियां सजाईं थीं। अक्सर जब मैं उसके बिल्कुल पास खडी हो जाती, देह का दबाव देह पर पडता और आंखें नम होने लगतीं, मैं उससे कहती, ‘तुम जो चाहो कर सकते हो, मैं तुम्हारी हूं।‘
लेकिन वो इन्कार में सिर हिलाकर कहता, ‘मेरी नजरों में तुम एक देवी हो। मेरे लिए तुम्हारी देह पवित्र है। मैं इसका अपमान नहीं करूंगा...’
जब हम बाहर निकलकर उजाले में आते और बेमकसद घूमने लगते तो सांझ का ढलता हुआ सूरज उसकी भूरी आंखों में चमकने लगता। हमारे पास शांत एकांत की कोई जगह नहीं थी। जैसे ही हम हाथ में हाथ थामे सूरज की रोशनी में चलने लगते तो ऐसा लगता जैसे हम जन्नत के बाशिंदे हैं। ऐसे देवता जिन्हें गलती से इंसानों की दुनिया में भेज दिया गया है।
ऐसे बहुत से कारण हैं कि मैं क्यों उन नैतिक मापदण्डों को अस्वीकार कर देती हूं जो समाज में आसानी से मान लिए जाते हैं। यह नैतिक दृष्टि नश्वर मानवीय देह से पैदा होती है। मेरा यकीन है कि आदर्श नैतिक दृष्टि, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए, का निर्माण मनुष्य की आंतरिक आत्मा से होना चाहिए, और अगर कोई ऐसा करने में सामर्थ्यवान नहीं हो तो उसकी मानसिक चेतना से उसकी नैतिक दृष्टि का निर्माण होना चाहिए। मेरी नजरों में समाज एक डरावनी डायन है। वह अपने गर्म कम्बल में नफरत के सौदागरों, झूठों, विश्वासघातियों, लोभी-लालचियों और हत्यारों तक को बडे प्रेम से छुपा लेती है। जो लोग इस कंबल की आरामदेह गर्मी से नफरत करते हैं उन्हें बाहर ठिठुरने के लिए छोड दिया जाता है। अगर मैं झूठ बोलती, नकली चेहरा दिखाती, विश्वासघात करती और नफरत फैलाती तो मुझे भी नैतिकता के इस आरामदेह गर्म कंबल की पनाह मिल सकती थी। लेकिन तब मैं एक लेखिका नहीं होती। मेरे गले में अटकी सच्चाइयां कभी बाहर प्रकाश में नहीं आतीं। एक लेखक की पहली और सबसे बडी शर्त यही है कि वह अपने आपको उन कसौटियों पर खरा उतारे, जो वह समाज से चाहता है, यानी स्वयं को उस चूहे के रूप में रखे जिस पर परीक्षण किये जाते हैं। उसे जिंदगी के अनुभवों से कभी नहीं भागना चाहिए। उसे अपने आपको कुहरे की ठिठुरन और आग की आंच के सामने खडा कर देना चाहिए। उसके पांवों को कभी आराम नहीं करना चाहिए। वो तो उसे हत्यारे की मांद तक ले जाते हैं। उसकी इंद्रियों को बस जरा-सा आराम मिलता है। वो हंसेगा, शराब पियेगा, प्रेम करेगा, बेहोश पडा रहेगा, बुरी तरह बीमार होगा और फूट-फूट कर रोएगा। उसका प्रमुख काम है मानवीय जीवन के अनचीन्हे पहलुओं को संजोकर रखना। यह मानव देह आखिरकार एक दिन या तो आग की शिकार होनी है या फिर धरती के कीटाणुओं की। मनुष्य इस पृथ्वी का शिकार है। यह धरती मानव की मांस-मज्जा से ही खुराक लेती है। लेकिन मनुष्य के शब्द अमर होने चाहिएं। इंसान बोलता है, लेकिन अवसर आने पर उसे सच्चाई नहीं निगल जानी चाहिए।
एक लेखक कौन होता है, वो जिसने अपनी अंगूठी बदल ली है और भविष्य के साथ मंगनी कर ली है। वह आपसे नहीं आपकी आने वाली पीढियों से संवाद करता है। उसके मस्तिष्क में ज्ञान है, समझ है, इसीलिए वह उस वक्त भी चुप नहीं होता, जब आपके फेंके पत्थरों से उसका शरीर लहूलुहान और घायल जाता है।
कुछ लोगों ने मुझे कहा कि इस तरह की आत्मकथा लिखना, पूरी ईमानदारी के साथ, कुछ भी नहीं छुपाना, एक प्रकार से एक-एक कर अपने ही कपडे उतारने जैसा काम है, यानी स्ट्रिपटीज। यह सच हो सकता है। मैं सबसे पहले अपने कपडे और गहने उतार कर रख दूंगी। फिर मेरी इच्छा है कि मैं इस हल्की भूरी त्वचा के छिलके उतारकर रख दूं और फिर अपनी अस्थियों को चकनाचूर कर डालूं। आखिर में मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरी बेघर, अनाथ और बहुत ही सुंदर उस आत्मा को देख सकेंगे, जो अस्थियों और मांस-मज्जा के कहीं बहुत गहरे भीतर तक धंसी हुई है, यानी आप चौथे आयाम में मेरी आत्मा देख सकेंगे। मैं आपके सामने अपनी इस चमकीली-रंगीन, कोमल, कांतिवान, गर्म देह को नहीं रखना चाहती, क्योंकि यह तो सिर्फ एक कवच है, महज खोल है। यह एक जीवंत गुडिया है, जो खेलती है, बातें करती है, अभिनय करती है। इसकी गतिविधियां उतनी ही बेमानी हैं जितनी गुडिया की। लेकिन मेरी अदृश्य आत्मा आपसे पूछना चाहती है कि क्या आप मुझे प्रेम करने के काबिल होंगे, क्या आप मुझे उस दिन प्रेम करने के लायक होंगे जब मैं इस देह को उतार फेंकूंगी जो सिर्फ एक आवरण है... आप सिर हिला रहे हैं, यह असंभव है। इसकी अहमियत सिर्फ तभी तक है जब तक ये कपडे और गहने हैं। उतार दीजिए इन उन्नत उरोजों को, हटा दीजिए इन रेशमी जुल्फों को और महकती जघन रोमावलियों को... जो हमारी आंखें में बसी हैं, फिर क्या बच जाता है हमारे सामने, एक ऐसा आकार जिसकी हमें कोई जरूरत ही नहीं। यह बहुत ही कारूणिक है, वह आत्मा... लेकिन मैं फिर भी कोशिश करूंगी। आखिरकार जब पाठक अंत में मेरी आत्मा से मिल लेगा, तो मुझे यकीन है कि वह मिलन एक पवित्र, बेदाग मिलन होगा, जैसे किसी भटकते हुए राही को घूमते-घूमते, थकान और प्यास से बेजार होने के बाद घने जंगल में मीलों लंबे सफर के बाद एक पवित्र आशियाना कहीं दूर दिखाई दे जाए और वह एकदम से चौंक पडे।
हम लोगों ने जून के महीने में सागर के पास एक धनुस्त्रा नामक परिसर में रहना शुरू किया था। यहां चमकीला नीला आकाश था, लाल गुलमोहर और पीली तितलियां थीं। उस डेढ एकड के कंपाउण्ड में समुद्र की ओर देखते दो छोटे-छोटे घर थे और सडक की ओर देखती एक छह मंजिला इमारत थी। इन घरों और इमारत के बीच के फासले तथा पश्चिम की ओर समुद्र तक जाती राह के बीच चमकती लाल बजरी बिछी थी। जब कोई उधर से गुजरता तो मुझे दूसरे छोटे घर के अपने कमरे में उसकी पदचाप सुनाई देती, जहां मैं लेटकर कोई उपन्यास पढ रही होती। मेरे बैडरूम के पश्चिम में खिडकी के पास नंदायरवत्तम की एक विशाल सुंदर झाडी थी, जिसके फूलों की महक कई दिनों तक मेरे कमरे में बसी रही।
सामने बैडमिंटन खेलने के लिए एक लॉन था। इसके चारों ओर मेंहदी की बाड थी, करीने से कटी हुई। साफ-सुथरी क्यारियों में गुलमेंहदी उगी हुई थी। पीली तितलियां वहां से सुबह ग्यारह बजे गुजरतीं। मेरा दूसरा बेटा प्रियदर्शन अपनी गहरी हरी कमीज में उन्हें पकडने के लिए दौडता, उन दिनों की मीठी यादें मुझे आज भी याद आती हैं। चौकोर आंगन में बोगनबेलिया और रंगून की बेल की छाया दोनों दीवारों पर पडती थी। मैंने वहां पीतल का एक लैंप लटका दिया था। एक दिन जैसे ही मैं गोधूलि के वक्त सबसे ऊपरी सीढी पर जाकर बैठी, भूरी आंखों वाला वो नौजवान मुझ तक आया और मेरे पांवों के पास बैठ गया। मैं उसके गुलाबी होंठों को कसकर चूमना चाहती थी। मैंने देखा कि बोलते हुए उसके होंठ कांप रहे थे।
‘क्या तुम मुझसे प्रेम करने लगे हो ?’ मैंने हंसते हुए उससे पूछा। उसने मेरी साडी की सलवटों में अपना चेहरा छुपा लिया। मेरे बच्चे खेलने के लिए दौडे जा रहे थे। भीतर ड्राइंग रूम में एक मेज लगाए सोफे पर मेरे पति अपनी फाइलों में व्यस्त थे...
मेरा सबसे बडा बेटा मोनू दो-तीन दिन से बुखार में पडा था, उसने बिस्तर से डठने की कोशिश की और गिर पडा। मैंने तुरंत बच्चों के डॉक्टर को बुलाया कि कहीं उसे पोलियो तो नहीं हो गया। बिना देर किये मैं उसे अस्पताल ले गई। डॉक्टर ने कहा कि ये पोलियो के प्रारंभिक लक्षण हैं। एकमात्र इलाज यह है कि इसके हाथों और पांवों का तापमान बढाया जाए। मैं निढाल हो गई, मुझे अपने छोटे बेटे और पति की याद आने लगी, अस्पताल में हर तरफ अव्यवस्था थी। मैं अपना भी मानसिक संतुलन खो चुकी थी। मैं किसी भी वक्त फूट-फूट कर रोने के लिए तैयार थी। मेरे छह साल के बेटे ने कई बार मुझसे पूछा:
‘अम्मा, आप क्यों रो रही हैं?‘
एक दिन मेरा खूबसूरत नौजवान दोस्त मुझसे मिलने अस्पताल आया। मेरा बेटा सो रहा था। मुझे उसका आभार जताने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। उसने मेरी धार-धार बहती आंखें को चूम लिया।
‘आमी, आई लव यू।‘ उसने कहा। मैं उसके सीने में अपना चेहरा छुपाकर रोने लगी।
‘सब कुछ ठीक हो जाएगा, माइ डार्लिंग।‘ वह बडबडाया।
वो मेरा कौन था? वो मुझसे क्या चाहता था? वो नौजवान, जिसने उन गर्मियों में जब गुलमोहर धधक रहे थे, मेरी वेणी में नंदायरवत्तम की शीतल कलियां सजाईं थीं। अक्सर जब मैं उसके बिल्कुल पास खडी हो जाती, देह का दबाव देह पर पडता और आंखें नम होने लगतीं, मैं उससे कहती, ‘तुम जो चाहो कर सकते हो, मैं तुम्हारी हूं।‘
लेकिन वो इन्कार में सिर हिलाकर कहता, ‘मेरी नजरों में तुम एक देवी हो। मेरे लिए तुम्हारी देह पवित्र है। मैं इसका अपमान नहीं करूंगा...’
जब हम बाहर निकलकर उजाले में आते और बेमकसद घूमने लगते तो सांझ का ढलता हुआ सूरज उसकी भूरी आंखों में चमकने लगता। हमारे पास शांत एकांत की कोई जगह नहीं थी। जैसे ही हम हाथ में हाथ थामे सूरज की रोशनी में चलने लगते तो ऐसा लगता जैसे हम जन्नत के बाशिंदे हैं। ऐसे देवता जिन्हें गलती से इंसानों की दुनिया में भेज दिया गया है।
कमलादास जी को श्रद्धांजलि , लेकिन उनकी शख्सियत की एक बात लोग भूल रहे हैं, उन्होंने अपने कृष्ण को इस्लाम कूबूल करवा दिया था। बड़ा बवाल हुआ था तब..।
ReplyDeleteachha hai!
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