Monday, 8 June 2009

पटाक्षेप नहीं होगा- डा. हेतु भारद्वाज की कहानी


राजस्थान के जिन साहित्यकारों को अखिल भारतीय स्तर पर पहचाना जाता है उनमें डा. हेतु भारद्वाज का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। वे पिछले पांच दशकों से कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और आलोचना के साथ सामाजिक सरोकारों और सांस्कृतिक चिंताओं को केंद्र में रखकर विविध प्रकार का चिंतनपरक लेखन कर रहे हैं। उनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और आज भी वे निरंतर सृजन कर रहे हैं। डा. भारद्वाज के सृजन संसार का फलक बहुत व्यापक है और उसमें मनुष्य की कमजोरियां ही नहीं उसका अदम्य साहस, जीवन संघर्ष और एक लोकतांत्रिक समाज के भीतर चलने वाली गहरी उथल-पुथल का जीवंत वर्णन देखने को मिलता है। अनेक सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित डा. हेतु भारद्वाज की रचनाओं में बदलाव के प्रति एक गहरा आकर्षण और असमानता, शोषण, अन्याय और समझौतावादी प्रवृत्ति के विरुद्ध जबर्दस्त प्रतिरोध है। उनकी सैंकड़ों कहानियों में कई साल पहले लिखी गई कहानी ‘पटाक्षेप नहीं होगा’ आज भी पढ़ने पर ऐसी लगती है, जैसे यह आज ही की कहानी हो। एक बड़े रचनाकार की यही विशेषता भी होती है कि उसकी रचना काल का अतिक्रमण कर हर युग में अपने समय की रचना लगती है। इस कहानी की एक और खासियत यह भी है कि शिल्प के स्तर पर यह नाटक के विविध सोपानों की तरह आगे बढ़ती है और अंत में इसका नाटक की तरह पटाक्षेप नहीं होता, क्योंकि जो परिस्थितियां इस कहानी में हैं वे शास्वत हैं और अगर पाठक हालिया लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में इसे पढ़ेंगे तो यह और समीचीन लगेगी।
यह कहानी देश की आजादी से शुरु होती है, जिसमें देश के साथ ही रामनेर गांव की आजादी की बात से कथाकार पूरे माहौल की रचना करता है। गांव का ठाकुर पहले की तरह ही मुखिया बना हुआ है, ब्राह्मण उसके पूज्य सहयोगी हैं और शेष निर्धन वंचित जातियों के लोग इनके शोषण के लिए अभिशप्त। इस कहानी में कोई पात्र नहीं है, फिर भी गांव में रहने वाले कुछ किरदार हैं जो रामनेर की तरह किसी भी गांव के हो सकते हैं। इस गांव में समतावादी समाज के नाम पर लोकतंत्र का जो नाटक पहले चुनावों से चला आ रहा है वह आज भी जारी है।
आजादी के बाद जो कुछ बदलाव इस गांव में हुए उनमें स्कूल और डाकखाना खुलने के अलावा दस गुना लगान जमा करवा कर किसानों का स्वयं जमीन मालिक बन जाना था। ठाकुर की जमींदारी से कुछ को तो मुक्ति मिली और कुछ अभी भी ठाकुर-ब्राह्मणों के रहमोकरम पर ही थे। इस तरह के बदलाव के साथ गांव में लोकतंत्र को भी आना ही था। पहली बार ग्राम पंचायत के चुनाव आये गांव वाले समझे ही नहीं कि क्या करना है। इस पर मुखिया ने गांव में सभा बुलाकर सबसे राय पूछी कि किसे प्रधान बनाया जाए। उसके पंडित मित्र ने उसे ही प्रधान बने रहने की बात कही, बदले में उसने बुढापे का बहाना बनाया और पंडित के कहने पर ठाकुर के बेटे रामसिंह को सर्वसम्मति से प्रधान चुन लिया गया और बाकी चुनाव भी सर्वसम्मति से हो गये। मुखिया ने बाद में गांव वालों को बताया कि निर्विरोध चुनाव के कारण गांव का नाम पंडित नेहरू तक गया है। गांव वाले बहुत खुश हुए।
रामनेर गांव में आबादी के लिहाज से ठाकुर-ब्राह्मण तो बराबर थे, कुछ और दलित जातियों के भी घर थे, लेकिन चमारों की संख्या इन सबसे बहुत ज्यादा थी,। इस बात को चमार नहीं जानते थे, क्योंकि उनकी हैसियत ही ऐसी नहीं थी। हालांकि इनमें से कुछ के पास जमीन भी थी और पैसे भी। गांव के स्कूल में रामसिंह ने कच्ची-पक्की इमारत बनवा दी और अपने गुर्गे को नियुक्ति दिलवा दी, वही डाकखाने का भी काम देखने लगा। इस उद्दंड गुर्गे ने पढाने के बजाय बच्चों को पीटा ज्यादा और बच्चे शिक्षा के मामले में फिसड्डी ही रहे। गांव में बदलाव की पहली बयार दो ब्राह्मण भाइयों महेंद्र और बलबीर के दिल्ली जाकर काम करने की खबर से आई। इनका पिता स्वाभिमानी था और मुखिया से दबता नहीं था। नाराज मुखिया ने उसे जमीन से बेदखल कर जबरन अपना कब्जा जमा लिया। पुलिस भी कुछ नहीं कर सकी और आखिरकार एक दिन गांव के पास नहर किनारे उसकी लाश मिली। उसके अनाथ बच्चों को मामा दिल्ली ले गया, कुछ पढ़ाया और सरकारी आफिस में चपरासी लगवा दिया। दोनों कभी-कभार गांव आकर घर की मरम्मत करवा जाते। इनके मन में भी मुखिया के विरुद्ध गहरा आक्रोश था।
दोनों भाई जान गये थे कि निर्विरोध चुनाव मुखिया की रणनीति का हिस्सा थे। दिल्ली में रहने कारण वे जानते थे कि अगर चमारों को संगठित कर दिया जाए तो मुखिया के आतंक से गांव को मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने दिल्ली में ही तय कर लिया था कि अगले चुनाव में वे थोड़े बहुत पढ़े लिखे, समझदार और आर्थिक रूप से किंचित समर्थ फगना को चुनाव लड़वाएंगे। चुनाव घोषित होते ही वे गांव आ गए और फगना से चर्चा की। फगना को उनकी बात में दम लगा और फिर सारे चमार एक हो गए। मुखिया और सवर्णों को जब पता चला तो उन्हें बलवीर-महेंद्र पर बहुत गुस्सा आया। उन्हें हर तरह से समझाने की कोशिशें हुईं, लोभ-लालच भी दिया और डराया-धमकाया भी। लेकिन वे अड़े रहे। मुखिया ने चमारों को बुलाकर समझाया तो जो ठाकुर की दया पर निर्भर थे, वे पसर गये, जाति के मामले में क्या करते। ठाकुर ने कहा कि चुपचाप साथ देना नहीं तो देख लेना। इस तरह चमारों में अदृश्य फूट पड़ गई। चुनाव का नतीजा वही निकला जिसकी आशंका थी। चमारों की फूट से रामसिंह ने फगना को भारी मतों से पराजित किया। बलवीर और महेंद्र को मुखिया ने बुलाकर खूब लानत-मलामत की। दोनों ने कहा कि यह आखिरी चुनाव थोड़े ही है। मुखिया ने कहा, ‘तुम्हारे लिए तो आखिरी ही समझो।’ दोनों भाई पराजय से टूटे फगना के पास गये और हिम्मत बंधाई। दोनों ने कहाकि अपने लोगों को संगठित करने में लगे रहो, अगले चुनाव में सबको दिखा देंगे। उसी रात कुछ लोगों ने महेंद्र-बलबीर को बुरी तरह पीट डाला। सुबह फगना और कुछ लोग दोनों को मरहम-पट्टी के लिए कस्बे ले गये। थाने गये तो पुलिस ने डांटकर भगा दिया। दोनों भाई वहीं से दिल्ली चले गये।




गांव में जातिवादी माहौल घना हो गया। विधान के अनुसार पंचायत के चुनाव तीन साल में एक बार होने थे, लेकिन सूखा और बाढ़ जैसे बहानों से चुनाव टलते रहे और सात साल तक रामसिंह ही प्रधानी करता रहा। गांव में जातिवादी वैमनस्य बढ़ने लगा, लेकिन फगना के कारण चमारों में आई चेतना से वे ठाकुर-ब्राह्मण गठजोड़ का डटकर मुकाबला करने लगे। रामसिंह इस बीच पंचायत के पैसों से खुद का विकास और तेजी से करता रहा। मुखिया की मौत के बाद वह और निरंकुश हो गया। फिर चुनावों की घोषणा हुई तो चमार बहुत खुश हुए। फगना महेंद्र-बलवीर के पास दिल्ली गया। इस बार वे आने के लिए राजी न थे, लेकिन फगना के कहने पर चुनाव से एक सप्ताह पहले गांव आने के लिए मान गए। दोनों गांव आए तो देखा चमारों में जबर्दस्त जोश था। लेकिन रामसिंह भी कम नहीं था, उसने शुरु से ही इनकी राह में कांटे बिछाना प्रारंभ कर दिया था। पहले तो इन्हें वोटर लिस्ट नहीं मिली और जब मिली तो देखा कि उसमें दोनों भाइयों के साथ चमारों के उन लोगों के भी नाम नहीं हैं जो बाहर रहते हैं, जबकि ब्राह्मण-ठाकुरों में सबके नाम थे। इसके बावजूद चमारों के वोट अब भी बाकी सबसे ज्यादा थे, यानी जीत का गणित चमारों के पक्ष में था और वे आश्वस्त थे।
चुनाव से पहले पोलिंग पार्टी आई, जिसका चुनाव अधिकारी संयोग से ठाकुर ही था। रामसिंह ने उसे रात को दावत पर बुलाया, दारू पिलाई तो जाति के नाम पर और रिश्वत में मिले रुपयों के कारण अधिकारी ने रामसिंह को हर हाल में जीतने की रणनीति बताई। सुबह पोलिंग के वक्त जब शुरु में मतदाता नहीं पहुंचे तो अधिकारी दोनों के एजेंटों को चाय पिलाने ले गया। एक घण्टे बाद वे लोग लौटे तो वोटर आने लगे थे। चमारों की औरतें आईं तो पता चला उनके वोट तो पहले ही दिये जा चुके हैं। खूब हंगामा हुआ। साफ था कि रामसिंह ने एक घण्टे में उतने वोट डलवा दिये जिससे वो जीत सके और हुआ भी यही वो करीब सौ वोटों से जीत गया।
फगना ने लोगों की सलाह पर अदालत में चुनाव के खिलाफ रिट लगाई और अगले चुनाव तक मुकदमा चलता रहा। रामसिंह के धांधली से प्रधान बन जाने से गांव में सवर्ण-दलित संघर्ष और गहरा गया। फगना ने केंद्र तक के दलित नेताओं तक पहुंच बना ली तो रामसिंह ने सवर्ण नेताओं से। दोनों अपने नेताओं को गांव में लाकर सभाएं कराने लगे और गांव में अलग किस्म की जातीय राजनीति का उभार हुआ। दोनों तरफ गुण्डों की तादाद बढ़ गई और आए दिन संघर्ष होने लगा। रामसिंह पंचायत के पैसों से कागजों में गांव का विकास करता रहा और खुद भी माल हड़पता रहा। फिर चुनाव आए तो रामसिंह को लगा अब चुनाव जीतना आसान नहीं है तो उसने नई रणनीतियों पर सोचना शुरु कर दिया। ब्राह्मण-ठाकुरों की मीटिंगा बुलाकर पूछा कि क्या करना है। खुद चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया और कहा कि इस बार सब मिलकर तय करें। उसने अपने विश्वस्त चमार लच्छीराम का नाम चला दिया। चमार पहले तो खुश हुए फिर निराश कि इससे तो रामसिंह की ही सत्ता चलती रहेगी। उनमें दो गुट बन गये। रामसिंह के सिखाने से लच्छीराम का जोश दोगुना हो गया और वह अपने जाति भाइयों के कहने पर भी मैदान से नहीं हटा।
पर्चा दाखिल करने वाले दिन रामसिंह ने चुपके से अपने बेटे नाहरसिंह का भी फार्म भरवा दिया। आखिर में नाम वापस लेने के बाद तीन उम्मीदवार रह गये, नाहरसिंह, लच्छीराम और इतवारी चमार यानी दो दलित और एक सवर्ण। चुनाव का नतीजा तय था, क्योंकि रामसिंह ने खेल ही ऐसा खेला था। चमारों के वोट बट गये और नाहरसिंह अपने दादा और पिता की परंपरा आगे बढाता हुआ प्रधान बन गया। आजादी से पहले उसका दादा गांव का मुखिया था और अब तीसरी पीढी में वह था। यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ ना? जब तक इस नाटक का पटाक्षेप नहीं होगा, समाज नहीं बदलेगा।
कहानी अंश
मैंने पहले ही कहा कि यह एक गांव की कहानी है और इसमें कोई पात्र नहीं है। पर जो लोग इस कहानी में विद्यमान हैं, उन्हें इसी गांव का कैसे कहूं। वैसे वे लोग इस गांव के हिस्से भर हैं। रामनेर गांव की यह कहानी एक अनवरत चलने वाला नाटक है। पर यह नाटक नहीं है, कहानी है। इस नाटक की शुरुआत भारत को आजादी मिलने के बाद शुरु हुई थी और नाटक बराबर चल रहा है, बिना किसी पटाक्षेप के।
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पर यह भी तो अंतिम चुनाव नहीं था और रामनेर में समतावादी समाज की स्थापना का सिलसिला जारी था। सिलसिला तो जारी रहना चाहिए-आजादी से पहले केसरीसिंह रामनेर का मुखिया था। आजादी के बाद उसका पुत्र रामसिंह तीन बार रामनेर गांव का प्रधान चुना गया, फिर रामसिंह के पुत्र नाहरसिंह ने प्रधान-पद का चुनाव जीता।
पर यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ न? इस नाटक का पटाक्षेप नहीं होगा, तभी तो यह समाज बदलेगा।






लेखक परिचय






जन्म:15, जनवरी, 1937


प्रकाशित कृतियाँ


कहानी संग्रह: तीन कमरों का मकान, ज़मीन से हटकर, चीफ साहब आ रहे हैं, तीर्थ यात्रा, सुबह-सुबह, पटाक्षेप नहीं होगा, रास्ते बंद नहीं होते।


उपन्यास: बनती बिगड़ती लकीरें


आलोचना: परिवेश की चुनौतियां और साहित्य, हिन्दी कहानी में मानव प्रतिमान, संस्कृति और साहित्य सहित कुल दस पुस्तकें।


व्यंग्य संग्रह: छिपाने को छिपा जाता


नाटक: आधार की खोज


सम्मान-पुरस्कार: राजस्थान साहित्य अकादेमी द्वारा 'कथा पुरस्कार' (अब रांगेय राघव पुरस्कार) और विशिष्ट साहित्यकार सम्मान

5 comments:

  1. आभार इसे प्रस्तुत करने का.

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  2. यथार्थ परक कहानी के लिये आभार भारदआज जी को शुभकामानायें

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  3. बहुत अच्छी कहानी का उतना ही अच्छा विश्लेषण. बधाई, इस उम्दा कहानी को एक बड़े पाठक समुदाय तक पहुंचाने के इस प्रशंसनीय प्रयास के लिए.

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  4. पटाक्षेप कहानी को आद्योपांत पढ़ गया। अभी भी कहानी की कथावस्तु इसके रचनाकाल से अब तक अपरिवर्तित है।यह अब राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है।अब नव धनाढ्य चमारों को जो या तो प्रशासनिक अधिकारी हैं या फिर प्रभावशाली उन्हें टुकड़ा डाल दिया जाता है। मुंह बंद हो जाता है।संसद में बैठे मौनव्रत धारण किए हुए हैं।
    अभी नाटक का पटाक्षेप नहीं हुआ है।एक यथार्थ परक कहानी के लिए साधुवाद।

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