Saturday, 13 June 2009

गाभाचोर-भरत ओला की कहानी




ऐसा जबर्दस्त चोर आज तक नहीं सुना। एक दो नहीं कोई बीसियों घरों में चोरी हुई और चोरी में कोई बर्तन, गहने या रूपया पैसा नहीं गया। सबके यहां से चोर सिर्फ औरतों के कपड़े ही चुराकर ले जाता। गांव भर में बस एक ही चर्चा कि कोई चोर है जो सिर्फ औरतों के कपडे चुराता है] पता नहीं यह किसी जादू टोने वाले तांत्रिक का ही कोई काम हो। साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से सम्‍मानित राजस्‍थानी के समर्थ कथाकार भरत ओला की इस कहानी का नायक एक स्कूल मास्टर है] जो स्कूल में भी इसी चोर की चर्चा से यह सोचने के लिए मजबूर है कि आखिर ऐसा कौनसा चोर है जो यह काम कर रहा है। वो जब स्कूल पहुंचता है तो चपरासी महेश कुमार जवानी में निकलने वाले मुहांसो को फोड़ता मिलता है। स्कूल के सब मास्टर भी चोर चर्चा में लगे मिलते हैं। पता चलता है कि चोर नहाती हुई स्त्रियों के कपड़े चुरा ले भागा। एक मास्टर का चोर के बारे में तर्क है कि चोर को पहली बार चोरी में कपड़ों के साथ कोई गहना हाथ लग गया होगा और अब वो इसीलिए कपड़े चुरा रहा है, क्योंकि हमारे यहां स्त्रियां नहाते वक्त गहने उतारकर कपड़ों के साथ रख देती हैं। खैर, जितने मुंह उतनी बातें।
एक मास्टर जी का कहना था कि कोई गरीब चोर होगा, जो अपनी स्त्री के लिए कपड़े चुराता होगा, बेचारा अपनी पत्नी को फटे कपड़ों में कैसे देख सकता है। दूसरे मास्टरजी कहते हैं कि वो चोर कपड़े ही नहीं अधोवस्त्र भी चुराता है। गांव भर में कई दिनों तक इस चोर की चोरियों की खासी चर्चा रही, लेकिन समय के साथ बातें मंद पड़ती गईं। लेकिन कपड़े चोरी होने का सिलसिला नहीं रुका। या तो औरतों ने ही अपने कपड़े चोरी होने की बातें किसी बदनामी से बचने के लिए और बिना वजह चर्चा में आने के डर से अपने घर वालों को बतानी बंद कर दीं या लोगों ने ही। वैसे भी एक ही किस्म की चर्चा बहुत ज्यादा दिनों तक चलती भी नहीं रह सकती।
कथा का नायक एक रात सोते समय घर के बाहर कोई खटका सुनकर उठ जाता है। दरवाजा खोलते ही चांदनी रात में वह जो देखता है तो देखता ही रह जाता है। स्कूल का चपरासी महेश कुमार अलगनी पर से नायक की पत्नी के कपड़े उतार रहा था। कपड़े उतारकर वह दोनों हाथों से उन्हें भींचकर मुंह के आगे लगा रहा था। महेश कपड़ों को किसी गंजेड़ी की तरह गहरा कश लगाने के अंदाज में सूंघ रहा था और नाक में से धुआं निकालने के अंदाज में सांस बाहर छोड़ रहा था। मास्टर के बदन में आग लग गई, आखिर उसी की आंखों के सामने महेश उसी की पत्नी के कपड़े सूंघ रहा था। उसके मुंह से गालियों का एक भभका निकलने को था कि अचानक उसके सामने महेश का सार्वजनिक चेहरा तैर गया। एक मिलनसार, हमदर्द, आज्ञाकारी, शांत और मृदुभाषी महेश कपड़ा चोर नहीं हो सकता। मास्टर चुपचाप भीतर चला जाता है।
सुबह होने पर पत्नी भी शायद दूसरी महिलाओं की तरह बदनामी के डर से कपड़ों की बात नहीं करती। रोज की तरह मास्टर स्कूल जाता है, महेश हमेशा की तरह दुआ-सलाम करता है। लेकिन मास्टर को लगता है कि महेश उसके सामने सहज नहीं है और आंखें नहीं मिला पा रहा है। मास्टर को गुस्सा तो रात से ही आ रहा था, लेकिन वह थोड़ा सोच विचार कर समय आने पर उससे बात करने के बारे में सोचता है। स्कूल की छुट्टी होने पर सब चले जाते हैं और मास्टर दिशा मैदान के लिए निकल जाता है। लौटकर वापस स्कूल आता है और महेश से हाथ धुलवाने के लिए कहता है। महेश पानी लाकर हाथ धुलवाता है, तो हाथ धोते वक्त मास्टर के हाथ महेश की धुनाई के लिए मचल उठते हैं। वह रगड़-रगड़ कर हाथ धोते हुए अपने गुस्से को काबू में रखता है। हाथ धुलाकर महेश तौलिया लेकर आता है। मास्टर महेश से हौले से पूछता है, ‘महेश, तुम्हें पता है, कपड़ाचोर कौन है
महेश के मुंह का सारा तेज भंग हो गया और चेहरा फक्क हो गया। महेश ठीक उसी जगह जहां हाथ धोने से कीचड़-सा हो गया था, मास्टर के पैरों में गिर गया, ‘गुरुजी...गुरुजी...! मुझे माफ कर दो। मुझे बख्श दो गुरुजी।... यह मेरे वश की बात नहीं है गुरुजी...सारा दिन इसके लिए मैं खुद को धिक्कारता रहता हूं, लेकिन शाम होते ही मुझे जनाना कपड़ों की गंध चैन नहीं लेने देती। मेरा गुनाह माफ करो गुरुजी, गरीब आदमी हूं। गुरुजी...गुरुजी...!
अचानक मास्टर को एक खोई हुई गंध की बेतरह याद आती है। उसे लगता है कि जैसे कपड़े चुराने वाला महेश नहीं वह खुद है। उसे महसूस होता है कि उम्र के कितने वर्ष वह भी ऐसी ही गंध का पीछा करता रहा था, वह गंध जो रोज मिलकर भी उससे जुदा ही है। वह सरपट घर की ओर चल देता है। घर के पास पहुंचने पर उसे खयाल आता है कि क्या आज की रात फिर किसी औरत के कपड़े चोरी होंगे। उत्तर में उसके अंतर से एक मुस्कान उठकर पूरे वजूद को घेर लेती है।
सुविख्यात कवयित्री कात्यायनी ने एक कविता में लिखा है, सभी वासनाएं अश्‍लील नहीं होतीं। इस कहानी पर भी यही बात लागू होती है। नौजवानी के दौर में युवक-युवतियां सब इसी किस्म के अनुभवों से गुजरते हैं। कहानी और कहानीकार की खूबी यह है कि वह महेश को बड़े मानवीय ढंग से निर्दोष ठहराते हुए मनुष्य की नैसर्गिक भावना और आवेगों को इस किस्म की ‘चोरी के लिए उत्तरदायी बताते हैं। मुझे एक ब्यूटी पार्लर संचालक मित्र ने बताया कि उनके यहां एक डाक्टर अक्सर आकर बैठ जाता था और चुपचाप बैठा स्त्रियों के बाल कटते हुए देखता रहता था। उस स्त्री के जाने के बाद वह उसके कटे हुए बालों में से एक लट उठाता और जेब में रखकर ले जाता। यह कितनी अजीब दुनिया है जिसमें एक पढे़ लिखे डाक्टर को बालों की लट से और चपरासी महेश को जनाना कपडों की गंध से तृप्ति मिलती है। मानवमन में ना जाने कितनी गुफाएं हैं जिनके भीतर पैठना अभी भी साहित्य और कलाओं की दुनिया में शेष है।
लेखक परिचय
जन्‍म – 6 अगस्‍त, 1963
कृतियां
कहानी संग्रह- जीव री जात, सेक्‍टर नंबर पांच
कविता- सरहद के आर-पार
उपन्‍यास- घुळगांठ
सम्‍मान-पुरस्‍कार जीव री जात पर केंद्रीय साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार और मुरलीधर व्‍यास राजस्‍थानी कथा साहित्‍य पुरस्‍कार के अलावा बीसियों सम्‍मान-पुरस्‍कार

6 comments:

  1. अच्छा लिखते हैं आप,सहज सरल एवम्‌ रोचक
    मेरे ब्लॉगस
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  2. कहानी तो अद्भुत है । चोर के मनोभाव विचित्र थे, और उसकी यह हरकत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के दायरे में आती है । आभार ।

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  3. बहुत अच्छी कहानी...

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  4. आपका यह वृत्तांत पढ़कर मुझे बीते ज़माने के एक कहानीकार की याद आ गई. पहाड़ी नाम था उनका.

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  5. क्या इस कहानी के माध्यम से हम पुनः यह चर्चा शुरु कर सकते हैं कि नैसर्गिक कमजोरियों पर विजय प्राप्त करना ही पशुता से मनुष्यता को प्राप्त करना है, जिसे हमारे सुधी चिंतकों ने अनेक प्रकार से समझाया है। फिर वही मार्ग की बात आती है, इसके लिये अपने-आप को किस मार्ग व्यस्त किया जाये? इस कहानी में चोर की नैसर्गिक वासना तो समीक्ष्य हुई है लेकिन उन स्त्रियों का क्षोभ केन्द्र से दूर रह गया है जिनके कपडे चोरी हुए हैं।

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  6. दुनिया अजीब-ओ-गरीब तरह के लोगों से भरी पड़ी है..उनमे सभी चोर है..पर कभी चोरी सामान की होती है, तो कभी भावनायों की ....मन की थाह पाना बहुत मुश्किल काम है

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