इधर मेरी कुछ कविताएं लखनऊ से प्रकाशित होने वाले जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित हुईं और फिर भाई प्रभात रंजन ने इन्हें जानकी पुल पर प्रकाशित किया। ये कविताएं अब आप सबके लिए यहां भी प्रस्तुत कर रहा हूं।
मिलना शायद ही कभी हुआ
बात करना तो दूर का सपना
फिर भी बंध जाते दो प्राणी
एक पवित्र बंधन में
थोड़ी-थोड़ी खोलते
अपरिचय की गांठ
अंगुलियों के पोर
दूध भरे बर्तन में
जल्दी-जल्दी खोजते
कोई सिक्का या अंगूठी
हल्के-फुल्के स्पर्श
और मस्ती भरी चुहल से बनता एक पुल
जिस पर टहलने निकल पड़ते दो प्राणी
भय और आशंकाओं के साथ
एक लंबी यात्रा पर
ऐसा बंधा उससे नेह कि
देहयात्रा ही बन गई गेहयात्रा।
एक दूसरे से छू जाने पर
एक बिजली-सी दौड़ जाती थी
जैसे आकाश से धरती के ओर-छोर तक
फिर इस देह की समूची चेतना
किंचित पराई देह भी
धीरे-धीरे लगने लगी
बिल्कुल अपनी जैसी
और ऐसे ही ना जाने कितने संकेत
समझने लगी एक देह
पराई देह को लेकर।
फिर भी हमने गुजार दी
तमाम उम्र उसी के साथ
और इतने पास कि
दूर होना सोचा भी ना जा सके।
फर्क
मछली की आंख से देखो
सारी दुनिया पानीदार है।
नीली शस्य-श्यामला धरती जैसा
यह सफेद में से निकलता हुआ श्यामल है कि
श्याम से नमूदार होता उजला सफेद
जैसे जीवन में प्रेम
यह आदिम हरा है काई-सा
इस हरियल सतह के
कोमल खुरदुरेपन को छूकर देखो
वनस्पति की शिराओं-धमनियों में बहता
एक विरल-तरल संसार है यहां।
परिंदों का संगीतमय गुंजनगान
सुबह उनकी आवाज में
नहीं होती प्रार्थना जैसी कोई लय
लगता है जैसे समवेत स्वर में गा रहे हों
’चलो चलो काम पर चलो’
संध्या समय उनके कलरव में
नहीं होता दिन भर का रोना-धोना
न आने वाले कल की चिंता
सूरज के डूबने से उगने तक
इतने मौन रहते हैं परिंदे
जैसे सूरज को जगाने और सुलाने का
जिम्मा उन्हीं के पास है।
सच और झूठ
चलते साथ थोड़ा-थोड़ा
झूठ की धमक से
हिलती सत की काया
डगमगाकर गिरती
कर्मों के मसाले में
झूठ का वेगवान अंधड़
तहस-नहस कर देता
सारे संतुलनों को
और कहीं सत्य पर प्रहार करते
झूठ का हथौड़ा जा गिरता
अनंत अंधकार की देग में
एक कारीगर के इंतजार में।
क्या उन्होंने कभी सोचा होगा
कितना जामुनी है उनका रंग
क्या जामुन को भी खयाल आता है
अपने जैसे रंग वाले शख्स को देखकर कि
अरे यह तो ठीक मेरे जैसा...
मेरे जेहन में कौंध जाते हैं
वो खूब गहरे गुलाबी होंठ
और याद आता है उनका जामुनी होना।
मेरे पास यही
सबसे शक्तिशाली चीज है
मैं चाहूं तो बदल सकता हूं
इस वोट से देश का भविष्य
जैसे घटती है करेंसी नोट की
और फिर मेरे लिए वोट रह गया
महज रद्दी कागज का पुरजा
बाद के बरसों में वह
हल्की लंबी बीप में बदलता चला गया
जैसे मैं इस महान गणतंत्र का
साधारण नागरिक
टेक्नोलोजी में चीख रहा हूं
ओह मैंने क्या किया
अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखा भी तो
वह महज बीप निकली
आह जैसे
लोकतंत्र की चीख निकली।
पेंटिंग अर्पणा कौर की है।
देह विमर्श
एक
परिचय सिर्फ इतना कि नाम-पता मालूममिलना शायद ही कभी हुआ
बात करना तो दूर का सपना
फिर भी बंध जाते दो प्राणी
एक पवित्र बंधन में
आनंद-उत्साह और ठिठोली भरे
कुछ रस्मी खेल-तमाशेथोड़ी-थोड़ी खोलते
अपरिचय की गांठ
अंगुलियों के पोर
दूध भरे बर्तन में
जल्दी-जल्दी खोजते
कोई सिक्का या अंगूठी
हल्के-फुल्के स्पर्श
और मस्ती भरी चुहल से बनता एक पुल
जिस पर टहलने निकल पड़ते दो प्राणी
भय और आशंकाओं के साथ
एक लंबी यात्रा पर
गेह बसाने के लिए
मिली थी एक देहऐसा बंधा उससे नेह कि
देहयात्रा ही बन गई गेहयात्रा।
दो
कैसे तो कांपते थे हमारे अंग-प्रत्यंग
शुरु-शुरु मेंएक दूसरे से छू जाने पर
एक बिजली-सी दौड़ जाती थी
जैसे आकाश से धरती के ओर-छोर तक
उन स्पर्शों का आदी हुआ
पहले यह शरीरफिर इस देह की समूची चेतना
हम बेफिक्र हुए
एक दूसरे के आवागमन सेकिंचित पराई देह भी
धीरे-धीरे लगने लगी
बिल्कुल अपनी जैसी
आंख फड़कना
खुजली चलनाऔर ऐसे ही ना जाने कितने संकेत
समझने लगी एक देह
पराई देह को लेकर।
तीन
नहीं उस देह में बसे प्राण से
कभी नहीं रहा कोई संबंध कोई नाताफिर भी हमने गुजार दी
तमाम उम्र उसी के साथ
गोया दो दरख्त हों जंगल में
जिन्हें कुदरत ने उगा दिया हो साथ-साथऔर इतने पास कि
दूर होना सोचा भी ना जा सके।
फर्क
फर्क आंख का नहीं
फकत देखने का हैमछली की आंख से देखो
सारी दुनिया पानीदार है।
रंगों की कविता
इतना तो हरा कि
एक कैनवस भरानीली शस्य-श्यामला धरती जैसा
ठिठक जाती है नजर
रंगों के पारभासी संसार को देखते हुएयह सफेद में से निकलता हुआ श्यामल है कि
श्याम से नमूदार होता उजला सफेद
जैसे जीवन में प्रेम
यह कच्चा हरा नई कोंपल-सा
फिर धीरे-धीरे पकता ठोस हरा-भरायह आदिम हरा है काई-सा
इस हरियल सतह के
कोमल खुरदुरेपन को छूकर देखो
वनस्पति की शिराओं-धमनियों में बहता
एक विरल-तरल संसार है यहां।
पक्षीगान
भोर में सुनता हूं
सांझ की गोधूलि बेला में सुनता हूंपरिंदों का संगीतमय गुंजनगान
सुबह उनकी आवाज में
नहीं होती प्रार्थना जैसी कोई लय
लगता है जैसे समवेत स्वर में गा रहे हों
’चलो चलो काम पर चलो’
संध्या समय उनके कलरव में
नहीं होता दिन भर का रोना-धोना
न आने वाले कल की चिंता
सूरज के डूबने से उगने तक
इतने मौन रहते हैं परिंदे
जैसे सूरज को जगाने और सुलाने का
जिम्मा उन्हीं के पास है।
सच और झूठ
सत की करणी
झूठ का हथौड़ाचलते साथ थोड़ा-थोड़ा
झूठ की धमक से
हिलती सत की काया
डगमगाकर गिरती
कर्मों के मसाले में
झूठ का वेगवान अंधड़
तहस-नहस कर देता
सारे संतुलनों को
और कहीं सत्य पर प्रहार करते
झूठ का हथौड़ा जा गिरता
अनंत अंधकार की देग में
सत की करणी
फिर भी टिकी रहतीएक कारीगर के इंतजार में।
जामुन को देखकर
जामुन को देख खयाल आता है
जामुनी रंग से लबालब लोगों काक्या उन्होंने कभी सोचा होगा
कितना जामुनी है उनका रंग
क्या जामुन को भी खयाल आता है
अपने जैसे रंग वाले शख्स को देखकर कि
अरे यह तो ठीक मेरे जैसा...
जामुन जैसा खास तिक्त स्वाद
और कहां है सृष्टि मेंमेरे जेहन में कौंध जाते हैं
वो खूब गहरे गुलाबी होंठ
और याद आता है उनका जामुनी होना।
वोट
शुरुआती सालों में
मुझे लगता रहा किमेरे पास यही
सबसे शक्तिशाली चीज है
मैं चाहूं तो बदल सकता हूं
इस वोट से देश का भविष्य
धीरे-धीरे कागज के इस टुकड़े की
कीमत घटने लगीजैसे घटती है करेंसी नोट की
और फिर मेरे लिए वोट रह गया
महज रद्दी कागज का पुरजा
बाद के बरसों में वह
हल्की लंबी बीप में बदलता चला गया
जैसे मैं इस महान गणतंत्र का
साधारण नागरिक
टेक्नोलोजी में चीख रहा हूं
ओह मैंने क्या किया
अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखा भी तो
वह महज बीप निकली
आह जैसे
लोकतंत्र की चीख निकली।
पेंटिंग अर्पणा कौर की है।
नेह में बंधे अजनबी कब कितने अपने हो जाते हैं ...
ReplyDeleteसत की करणी टिकी रहती है कारीगर के इंतजार में ...
एक अलग रंग है इन कविताओं का ..
सभी बेहतरीन !
अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखा भी तो
ReplyDeleteवह महज बीप निकली
आह जैसे
लोकतंत्र की चीख निकली।...
बेहतर कविताएं...