Wednesday, 31 August 2011

इशरत के लिए

(एक असमाप्‍त लंबी कविता का पहला ड्राफ्ट )


इस जहां में हो कहां
इशरत जहां


तुम्‍हारा नाम सुन-सुन कर
पक ही गए हैं मेरे कान


आज फिर उस उजड़ी हुई
बगीची के पास से गुज़रा हूं तो
तुम्‍हारी याद के नश्‍तर गहरे चुभने लगे


तुम कैसे भूल सकती हो यह बगीची
यहीं मेरी पीठ पर चढ़कर
तुमने तोड़ी थीं कच्‍ची इमलियां
यहीं तुम्‍हारे साथ खाई थी
बचपन में जंगल जलेबी
माली काका की नज़रों से बचकर
हमने साथ-साथ चुराए थे
कच्‍चे अमरूद और करौंदों के साथ अनार


सुनो इशरत
इस बगिया में अब हमारे वक्‍त के
कुछ बूढ़े दरख्‍त ही बचे हैं
एक तो शायद वह नीम है
जिस पर चढ़ने की कोशिश में
तुम्‍हारे बांए पांव में मोच आ गई थी


लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं नष्‍ट हुआ वह जटाजूट बरगद
जिसके विशाल चबूतरे पर जमी रहती थी
मोहल्‍ले भर के नौजवान-बुजुर्गों की महफिल


इसी बरगद की जटाओं पर झूलते हुए
हमने खेला था टार्जन-टार्जन
अब वह छोटा-सा शिवालय नहीं रहा
एक विशाल और भव्‍य मंदिर है यहां
नहीं रहे पुजारी काका
अब तो पीतांबर वर्दीधारी दर्जनों पुजारी हैं यहां
रात-दिन गाडि़यों की रेलपेल में
लगी रहती है भक्‍तों की भीड़
हमारे देखते-देखते वह छोटा-सा शिवालय
बदल गया प्राचीन चमत्‍कारी मंदिर में


बहुत कुछ बदल गया है इशरत
इसी बगीची के दूसरे छोर पर
करीब एक मील आगे चलकर
शिरीष, गुलमोहर, नीम, पीपल और बबूल के
घने दरख्‍तों से घिरी थी ना
सैय्यद बाबा की निर्जन-सी मजार
जहां शाम के वक्‍त आने से डरते थे लोग
कहते थे यहां पहाडि़यों से आते हैं
हिंसक वन्‍य जीव पास के तालाब में पानी पीने
वह छोटी-सी उपेक्षित मजार
तब्‍दील हो गई है दरगाह में
दरख्‍तों की हरियाली वहां अब
हरी ध्‍वजाओं में सिमट गई है

इस तेज़ी से बदलती दुनिया में
हमारे बचपन और स्‍मृतियों के साथ
ना जाने क्‍या-क्‍या छूटता चला गया
मन के एक हरियल कोने में
तुम्‍हारे नाम की चंचल चिडि़या
कूकती रही लगातार


गुज़रे वक्‍त के लिए मेरे पास
कोई ठीक शब्‍द नहीं
पाश की भाषा में कहूं तो यह सब क्‍या
हमारे ही वक्‍तों में होना था?
मज़हब और जाति के नाम पर
राजनीति का एक अंतहीन खूनी खेल
जिससे घायल होती रही
मेरे मन में बैठी
तुम्‍हारे नाम की नन्‍हीं चिडि़या
उसकी मीठी कूक
धीरे-धीरे बदल गई रूदन में


फिर जो गूंजा तुम्‍हारा नाम खबरों में
तो हैरत में पड़ गया था मैं...








8 comments:

  1. इशरत जहाँ को अपने इस तरह याद किया कि दिल रों उठा . यूँ भी दिल रोता ही है हर इशरत कि कहानी एक सी ही तो हो जाती है !

    ReplyDelete
  2. ऎसी कविताएँ समाप्त नहीं होती....इसे बार-बार पढ़ना होगा...महसूसना होगा...

    ReplyDelete
  3. पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ सर . इस कविता को पढकर बहुत सी यादे मन में गूँज गयी .. सलाम कबुल करे.

    बधाई !!
    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

    ReplyDelete
  4. मंगलवार 24/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी एक नज़र देखें
    धन्यवाद .... आभार ....

    ReplyDelete