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Sunday, 25 July 2010

गांवों की कुरीतियां और ग्रामीण नेतृत्व

राजस्थान में आज भी अशिक्षा और अज्ञान के कारण सैंकड़ों किस्म की सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्‍वासों की दुनिया शहर, कस्बों से लेकर गांवों तक महामारी की तरह फैली हुई हैं। दुर्भाग्य से इन सबका शिकार अंततः महिलाएं होती हैं। निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं। जातिवादी घृणा की वजह से महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं होती हैं। जाति और परंपरा के नाम पर विधवाओं का जीवन नरक बना दिया जाता है। शराब और अफीम का नशा औरतों को हिंसा का शिकार बनाता है। किसी प्रकार के पारिवारिक संपत्ति विवाद में महिला का हिस्सा पुरुष हड़प लेते हैं। दहेज प्रताड़ना के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर साल हजारों गर्भवती स्त्रियों को जान से हाथ धोना पड़ता है। कन्या भ्रूण हत्या और कई जातियों में जन्म के साथ ही कन्या को मार देने की परंपरा से मरने वाली बालिकाओं की तो गिनती ही नहीं है। कुपोषण के कारण महिलाएं अनेक खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त हो जाती हैं, जिनके इलाज के लिए झाड़-फूंक और जादू-टोना ग्रामीण राजस्थान की पुरानी पहचान है, जिसमें अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। परिवार में किसी भी काम के लिए सबसे पहले महिला को ही जुटना पड़ता है और विपत्ति आने पर उसे ही सबसे पहले अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं, मसलन अनाज नहीं है तो औरत ही निराहार रहेगी या उसे ही कम भोजन दिया जाएगा। अकेली और अनाश्रित महिला हो तो उसकी संपत्ति हथियाने के लिए हर कोई पीछे पड़ जाएगा। एक तरह से देखा जाए तो ग्रामीण समाज में स्त्री की हालत दुधारु पशु से भी गई बीती है।

स्त्री को लिंगभेद की क्रूर व्यवस्था के कारण कर्ह किस्म की हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अभी तक की बहुप्रचारित शिक्षा का प्रसार भी ग्रामीण समुदाय में इस विचार को नहीं पैबस्त कर पाया है कि जैविक लिंग अलग होने के कारण स्त्री में पुरुष से अलग कोई विशेषता नहीं होती और प्रकृति ने जो भेद बनाए हैं, उसके सिवा सारे भेद मर्दवादी समाज ने बनाए हैं। दरअसल, हमारी शिक्षा को सबसे पहला काम ही यह करना चाहिए था कि लिंगभेद को समाप्त करे। दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ, इसीलिए देश की आधी आबादी की शक्ति का इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी हम आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से दुनिया के बहुत से देशों से पिछड़े हुए हैं। राजस्थान में स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ने एक महान अवसर दिया है कि स्त्रीशक्ति का नारी हित में इस प्रकार प्रयोग किया जाए कि पांच साल बाद एक नया राजस्थान देखने को मिले। इस काम में उन महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बेहद प्रभावशाली हो सकती है जो इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत कर आई हैं।

राजस्थान में 14 जुलाई से ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगभेद संबंधी मसलों को लेकर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के सहयोग से प्रिया संस्था की ओर से एक अभियान की शुरुआत हुई है। इस अभियान में ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को विशेष प्रशिक्षण देकर कहा जाएगा कि वे अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में बालिका शिक्षा, महिलाओं के प्रति हिंसा, बाल विवाह और महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर जन जागरूकता फैलाएं, ताकि विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लिंगभेद समाप्त किया जा सके। सन् 2013 तक चलने वाला यह अभियान दरअसल उस विराट अंतर्राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा है जिसके तहत सन् 2015 तक दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक असमानता को खत्म किया जाना है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य नामक इस परियोजना के आठ बिंदुओं में सबसे अहम है गरीबी को पचास प्रतिशत तक कम करना और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समूल नष्ट करना। बालिका शिक्षा के अंतर्गत दुनिया की सभी बालिकाओं को 2005 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य था, जिसे भारत पांच साल बाद भी हासिल नहीं कर सका है। अब इसके लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं और कई किस्म की बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजनाएं चल रही हैं।

ग्रामीण महिला जनप्रतिनिधियों के माध्यम से ग्रामीण समुदाय की सोच को बदला जा सकता है, क्योंकि पंचायतों में पिछले डेढ़ दशक से महिला आरक्षण की व्यवस्था ने महिला जनप्रतिनिधियों के प्रति समाज में एक नई और सकारात्मक छवि विकसित की है। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण प्रशासन को महिलाओं के प्रति उत्तरदायी बनाने की पहल क्रांतिकारी परिणाम दे सकती है। महिला पंच-सरपंच की स्थानीय छवि और दायित्वपूर्ण भूमिका होने के कारण लोग उनकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। उनकी नेतृत्वकारी छवि स्थानीय स्तर पर होने वाली लिंगभेद की मानसिकता को सहजता से बदल सकती है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रही विभिन्न महिला विकास योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और अधिकाधिक महिलाओं को लाभान्वित करवा कर ग्रामीण नेत्रियां करोड़ों बालिकाओं, युवतियों और महिलाओं का जीवन प्रगतिपथ पर ले जा सकती हैं। बाल विवाह रुकवाना, बालिकाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए पहल करना-लोगों को राजी करना, आंगनवाड़ी खुलवाना, स्त्री शिक्षा के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी देना, महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकना, विधवा और वृद्ध महिलाओं को पेंशन दिलवाना और स्वास्थ्य केंद्र खुलवाना जैसे बहुत से महिला सशक्तिकरण के काम महिला पंच-सरपंच के लिए सामान्य काम हैं। वे चाहें तो अपने क्षेत्र की महिलाओं का संगठन बना कर बहुत सी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक ढंग से लड़ाई भी लड़ सकती हैं। द हंगर प्रोजेक्ट जैसी कई गैर सरकारी संस्थाओं ने तो कई जिलों में महिला पंच सरपंच संगठन ही बना दिए हैं, जिनके माध्यम से महिला जनप्रतिनिधि सरकारी मशीनरी से अपने वाजिब हकों के लिए संघर्ष कर विजय हासिल करते हैं।

पंचायतों में महिला आरक्षण ने ग्रामीण महिलाओं को जो थोड़ा-बहुत आत्मविश्‍वास दिया है, उसे व्यापक बनाने की जरूरत है। अगर ग्रामीण समुदाय की सभी महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ खुलकर बोलने लग जाएं, अधिकारों के लिए आवाज उठाएं, ग्रामीण विकास के बजट में महिलाओं के लिए उचित प्रावधानों की मांग करें, किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करें और इसमें महिला जनप्रतिनिधि नेतृत्व करें तो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के अंतर्गत लिंगभेद समाप्त करने का लक्ष्य कहीं जल्दी हासिल किया जा सकता है।

यह आलेख 14 जुलाई, 2010 को दैनिक महका भारत, जयपुर में प्रकाशित हुआ।

Sunday, 11 July 2010

ऐसे कैसे चलेगी पंचायत

आज देश के अनेक राज्यों में असमान विकास के कारण आम आदमी का जीना इस कदर दूभर हो गया है कि भोले-भाले ग्रामीण किसान और आदिवासियों से लेकर खेत मजदूर और दूसरे दस्तकार तक गहरे असंतोष से भर गए हैं। आबादी के बहुत बड़े हिस्से को लगता है कि सरकार और सरकारी अधिकारी का उनसे कोई जुड़ाव या सरोकार नहीं है और सारी व्यवस्था उन्हें तिल-तिल कर मारने के लिए बनी है। इसीलिए कई राज्यों में नक्सलवाद की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं। लोगों के आक्रोश को एक हद तक दमन से दबाया जा सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं होंगे। आखिर एक देश की सरकार अपने ही लोगों को कैसे मार सकती है, जबकि हिंसा की राह पर लोगों को ले जाने वाले नक्सलियों के मुकाबले देश के पास जमीनी स्तर पर लोगों की जरूरत और क्षमताओं के लिहाज से पर्याप्त संसाधन ही नहीं विकास योजनाएं और उन्हें क्रियान्वित करने वाली एक पूरी व्यवस्था भी है। आवश्‍यकता इस बात की है कि उस व्यवस्था को जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा मजबूत किया जाए, ताकि त्रस्त और हताश लोगों को राहत मिले। महात्मा गांधी का सपना था कि ग्रामीण भारत का तेजी से और समुचित विकास करने के लिए ग्राम पंचायतों के माध्यम से एक प्रभावशाली व्यवस्था विकसित की जाए जो अपने स्तर पर ग्रामीण भारत के सर्वांगीण विकास का दायित्व वहन करे।

नए भारत का निर्माण करेंगी महिलाएं
हम जानते हैं कि आम आदमी सामान्य तौर पर हथियार तभी उठाता है जब उसके अस्तित्व पर ही संकट आ जाए, अन्यथा वह सहज भाव से अभावों की जिंदगी भी जी लेता है और शिकायत भी नहीं करता। इसीलिए संविधान के 73वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए कम से कम तैंतीस और राजस्थान जैसे कई राज्यों में तो पचास फीसद आरक्षण की व्यवस्था ने इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अनूठा अवसर प्रदान किया है कि वे इस महादेश को अपने ममत्व, वात्सल्य और पारिवारिक दायित्व की भावना के साथ विकास की उस राह पर ले जाएं जहां हर भारतीय के पास एक सहज जीवन जीने के संसाधन उपलब्ध हों। अकेले राजस्थान में 2010 के पंचायत चुनावों में कुल एक लाख बीस हजार पंचायत जनप्रतिनिधियों में साठ हजार से अधिक महिलाएं चुनाव जीत कर आई हैं। सरकार की मंशा इन जनप्रतिनिधियों के माध्यम से एक नए ग्रामीण भारत का निर्माण करने की है। लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली में भारी अंतर्विरोध होने के कारण वांछित परिणाम प्राप्त होने में अभी बहुत समय लगना है। यह स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि खुद भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ से लिखित में वादा किया है कि आने वाले पांच सालों में यानी सन् 2015 तक शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप न्यूनतम लक्ष्य प्राप्त कर लिए जाएंगे। ये लक्ष्य मूल रूप से गरीबी उन्मूलन और भुखमरी को समाप्त करने के लिए तय किए गए हैं और दुनिया के कई देशों ने भारत की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ ऐसे वायदा पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। हम जानते हैं कि आंकड़ों के स्तर पर सरकारी लक्ष्य कैसे प्राप्त किए जाते हैं और वाहवाही लूटी जाती है। इसलिए उन रुकावटों की पहचान बहुत जरूरी है, जो हजारों करोड़ रुपये खर्च कर समग्र भारत के विकास का लक्ष्य हासिल करने के मकसद में दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। इस मकसद को हासिल करने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत प्रभावी हो सकती है, बशर्ते सरकारें और स्वयं महिलाएं इस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर इसे अमल में लाएं।

अबला को बनना होगा सबला
नई लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं का चुनाव में जीत कर आना ही प्रमुख नहीं है, बल्कि उनके लिए सबसे जरूरी यह है कि उनकी क्षमताओं को अधिकाधिक विकसित किया जाए, जिससे वे लोक कल्याण में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका सही ढंग से निभा सकें। फिलहाल स्थिति यह है कि महिला जनप्रतिनिधि अशिक्षा और पुरुषों पर निर्भरता की वजह से न तो अपनी क्षमताओं को पहचान पाती हैं और न ही विकसित कर पाती हैं। हाल ही में देखा गया कि राजस्थान के शिक्षा मंत्री भंवर लाल मेघवाल ने बस्सी तहसील की जिला परिषद सदस्य करमा देवी मीणा के साथ अभद्रता की। करमा देवी सिर्फ यही तो चाहती थी कि उनके गांव के स्कूल में अध्यापक की नियुक्ति की जाए। करमा देवी के साथ जो कुछ हुआ वह हमारे समाज की मर्दवादी मानसिकता का एक सबूत है। करमा देवी नहीं जानतीं कि एक महिला जनप्रतिनिधि के लिए इस लोकतंत्र में अभी कितने रास्ते हैं, जिनसे वे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकती हैं, मसलन वे अगर अपने साथ गांव के स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर सामूहिकता के साथ अपनी बात मनवाने की कोशिश करतीं तो नजारा ही कुछ और होता। लेकिन इसी के साथ सच्चाई यह भी है कि इस बार के पंचायत चुनावों में बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं जीत कर आई हैं जो अपनी यथासंभव क्षमता के साथ अपने गांवों को बदलते भारत के साथ कदमताल करने की दिशा में ले जाने के लिए काम कर रही हैं।

सरकारी स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए किए जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण है, सभी स्तरों पर जन प्रतिनिधियों को सघन प्रशिक्षण प्रदान करना। लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि सरकारी स्तर पर प्रशिक्षण को मात्र खानापूर्ति के लिए किया जाता है। दूसरी तरफ जनप्रतिनिधि भी प्रशिक्षण के प्रति उदासीन होते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन यह प्रतिशत उपस्थिति का है और वह भी अनिवार्यता के कारण। वास्तव में कितने जनप्रतिनिधि लाभान्वित होकर निकले और कितनों ने इसका व्यवहारिक जीवन में प्रयोग किया इसके कोई आंकड़े नहीं हैं। एक बार प्रशिक्षण के बाद सरकार अपना दायित्व पूर्ण मानती है और अगले चुनाव तक भूल जाती है। ग्रामीण जनप्रतिनिधियों के लिए एक बार के नहीं सतत प्रशिक्षण की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि ऐसा करने से ही नेतृत्वकारी क्षमताओं और आत्मविश्‍वास का विकास होता है, पूरे तंत्र और व्यवस्था को समझने में सहायता मिलती है। महिला जनप्रतिनिधियों के साथ आरंभ से अंत तक काम करने और सहयोग करने के लिए द हंगर प्रोजेक्ट जैसी बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं हैं, जो पूरी गंभीरता के साथ ग्रामीण विकास में महिला नेतृत्व को प्रभावकारी बनाने में लगी हैं और इसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं।

गरीबी की मार महिला पर भार
इस हकीकत को सभी मानते हैं कि गरीबी की मार ग्रामीण भारत को ज्यादा झेलनी पड़ती है। इसी के साथ यह भी सच है कि निर्धनता का पहला शिकार महिलाओं को ही होना पड़ता है, सबसे पहले उन्हीं पर होने वाले खर्च कम किए जाते हैं और परिवार की आय बढ़ाने के लिए उन्हीं को सबसे ज्यादा श्रम करना पड़ता है। स्त्री को दोयम मानने की मानसिकता भी हमारे यहां व्यापक है। इस धारणा के साथ ग्रामीण महिलाओं के हालात बदलने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। पंचायत का बजट बनाते समय अगर वे महिलाओं की प्राथमिकता वाले पहलुओं की पैरवी करें, विकास कार्यों में महिला आधारित मुद्दों को शामिल करवाने में सफल हों और महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकने की कोशिश करें तो परिदृश्‍य बदलने में देर नहीं लगेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे समाज में स्वयं महिला जनप्रतिनिधियों के साथ ही आए दिन यौन दुराचरण के मामले सामने आते रहते हैं। इसमें सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि महिला जनप्रतिनिधि को स्वयं पर होने वाली हिंसा या यौन दुराचरण के मामले में विशेष कानूनी संरक्षण नहीं है, उसके साथ सामान्य महिला जैसी ही स्थिति है।

बिना तालमेल कैसी पंचायत
पंचायती राज व्यवस्था का सांगठनिक ढांचा इस प्रकार का है कि वह ऊपर से नीचे एक दूसरे पर आश्रित है, लेकिन संकट यह है कि इस बहुस्तरीय प्रणाली को सहयोग करने वाली कोई व्यवस्था नहीं है। पंचायत स्तर पर पंच, सरपंच, उप सरपंच और ग्राम सेवक होते हैं, लेकिन इन सबमें कोई तालमेल नहीं होता। जाति, धर्म, लिंग, वर्ग और राजनैतिक दल जैसे भेद की वजह से आम तौर पर सामंजस्य नहीं हो पाता। जबकि पंचायती राज व्यवस्था एक किस्म की टीम भावना की मांग करती है, जो कहीं दिखाई नहीं देती। ग्राम सेवक और अन्य सरकारी कर्मचारी व अधिकारी अपनी नौकरी पक्की मान कर जनप्रतिनिधियों के साथ, खासकर महिलाओं के साथ मनमानी करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि लोगों के काम नहीं हो पाते और व्यवस्था के प्रति असंतोष पनपता है। सरकारी मशीनरी और जनप्रतिनिधियों में जिस प्रकार के संबंध होने चाहिएं, उसकी गैर मौजूदगी जमीनी लोकतंत्र को विकसित नहीं होने देती। मानसिकता में बदलाव से ही ये हालात बदल सकते हैं। इस बदलाव में पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ग्रामसभा प्रायः सब जगह बेहद कमजोर है। सन् 2010 को ग्रामसभा सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया गया है, लेकिन राजस्थान में छह महीने गुजरने के बाद भी इसकी कोई सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं देती। पिछली बार जब सी.पी. जोशी राजस्थान के पंचायत राज मंत्री बने थे, तो ग्रामसभा को मजबूत करने के लिए लगातार अखबारों में विज्ञापन छपे थे। अब जोशी केंद्रीय मंत्री हैं, लेकिन ग्राम सभा की मजबूती की आवाज कहीं नहीं है।

नरेगा ही करेगा हर मर्ज की दवा
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून लागू होने के बाद ग्रामीण भारत में गरीब लोगों को जीने का एक नया संबल मिला है। पहले नरेगा और अब महानरेगा दोनों ही पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से क्रियान्वित हो रहे हैं। हर पंचायत के पास इसके तहत सालाना एक करोड़ का बजट है, जो न केवल गांव के विकास कार्यों में इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि इसी में से गरीबों को रोजगार भी मिल रहा है। इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतें भी आ रही हैं, लेकिन फिर भी यह अकेली योजना ग्रामीण भारत में उपजे असंतोष को कम करने में सक्षम है, जरूरत भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और अधिकाधिक लोगों तक पहुंचने की है। हमारे गृहमंत्री और कई दलों के नेता बारंबार नक्सलवाद से निपटने के लिए दमन की कार्यवाहियों की बात करते हैं, लेकिन एक छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि लोगों को सही राह दिखाने के लिए जब हमारे पास पर्याप्त चीजें मौजूद हैं तो आप दवा की जगह बंदूक की गोली क्यों देना चाहते हैं? इस सवाल का जवाब किसी सरकार के पास नहीं है और सारी समस्याएं इसीलिए खड़ी हो रही हैं।

यह आलेख डेली न्‍यूज़ के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में रविवार, 11 जुलाई, 2010 को कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ।

Thursday, 4 February 2010

घूंघट खोल, बढ़के बोल

महिलाओं के सफल शासन की हाल की झांकी से जाहिर है कि आने वाले दौर में घूंघट की घबराहट नहीं, हौसले के बोल सुनने को मिलेंगे।

देश करवट ले रहा है। यह सही है कि पंचायती शासन में अब तक ग्रामीण महिलाओं के नाम पर पुरूषों ने ही शासन किया है। लेकिन जिसने भी झिझक छोडकर सक्रियता दिखाई, उसने पुरूषों से बेहतर काम करके दिखाया। महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से 50 फीसदी करने का प्रस्ताव आया, तो महिलाओं ने भी ठान लिया कि वे गांव के विकास में भागीदार बनकर दिखाएंगी। अब अनेक महिलाएं पंच, सरपंच बनकर देश को नई दिशा दे रही हैं और पुरूषों से बेहतर जनप्रतिनिधि साबित हो रही हैं।

पंचायती राज में पंच और सरपंच बनकर महिलाओं ने दिखा दिया है कि वे चौखट से चौबारे तक का सफर तय कर चुकी हैं। भले ही राजनीति के ककहरे से वाकिफ नहीं हों, पर अपनी जिम्मेदारियां वे बखूबी निभाती हैं। इन्हें सिर्फ अपने गांव के विकास से मतलब है। अब इन्हें हर कदम पर पतियों के सहारे की जरूरत नहीं रह गई है। पंचायती राज में महिलाओं के बढते कदम गांव-ढाणियों में विकास की गंगा बहा सकते हैं। राजस्थान के अलवर जिले में बहरोड के दूधवाल गांव की वार्ड पंच शांतिदेवी के कार्यकाल पर नजर डालें। उन्होंने गांव के स्कूल में कमरे बनवाए और पीने के पानी की व्यवस्था कर बुनियादी काम किया। ऎसे काम ज्यादातर पुरूष जनप्रतिनिधियों के लिए कम महत्‍व के होते हैं। पर महिला जनप्रतिनिधि उन आधारभूत मुद्दों को लेकर राजनीति में आगे आ रही हैं, जिनसे उनके क्षेत्र की जनता लाभान्वित होती है। ऎसा इसलिए भी है कि एक महिला होने के नाते वे भलीभांति समझती हैं कि लोगों की असली समस्याएं क्या हैं, जिनका वे खुद आए दिन सामना करती रही हैं। बीकानेर जिले के लूणकरणसर में गांव की महिलाओं के साथ मारपीट की समस्या आम थी। शराबी पति पत्नियों की कमाई हथियाकर उसे शराब में उडा देते थे। वार्ड पंच रहने के दौरान कांतादेवी नाई ने इसके लिए संघर्ष किया और सरपंच को कहा कि महिलाओं को उनकी मेहनत की कमाई अपने हाथों में मिलनी चाहिए। आज महिलाएं अपने पैसे की मालिक हैं।

भ्रष्टाचार नहीं होगा

गांवों में विकास के कई कार्य बरसों से अधूरे पडे रह जाते हैं। वजह साफ है, कुछ तो धनाभाव और कुछ भ्रष्टाचार। पुरूष सरपंच महिला वार्डपंच को भाव ही नहीं देते। लेकिन हौसला हो तो क्या नहीं हो सकता सिरोही जिले के चनार गांव की शिक्षित वार्ड पंच निमिषा बारोट ने अधूरे पडे सामुदायिक भवन के निर्माण को लेकर सरपंच को तैयार किया। एक साल से अधूरे पडे काम को पूरा करवाया और कोई भ्रष्टाचार नहीं होने दिया। ग्राम पंचायतों की राजनीति में जहां निमिषा जैसी उच्च शिक्षित महिलाएं आ रही हैं, वहीं अशिक्षित महिलाएं भी अब पढना-लिखना सीखकर अपना काम खुद देखने के प्रति गंभीर हो रही हैं। पंचायत की बैठकों में प्रस्ताव पढने से लेकर अंतिम रूप देने तक के काम को निष्ठापूर्वक निभाने में महिला जनप्रतिनिधि पूरी सक्रियता दिखा रही हैं। सिरोही के मोरधला गांव में लक्ष्मी बैरवा ने वार्ड पंच रहने के दौरान शराब की समस्या से निजात दिलाने के लिए मुहिम चलाई। बकौल लक्ष्मी, 'मैंने शराब पीकर उत्पात मचाने वालों के खिलाफ लडाई लडने के लिए 50 महिलाओं को अपने साथ लिया और मोर्चा खोल दिया। कानून ने भी हमारी मदद की और गांव को शराबियों से मुक्त कराया।'

आत्मविश्वास सामने है

कहा जाता है कि आरक्षित सीटों पर राजनीति के माहिर लोग अपने परिवार की स्त्रियों को आगे ला रहे हैं। यह बात एक हद तक सही भी है। लेकिन इसके बरक्स यह भी सच्चाई है कि अब महिला किसी की कठपुतली बनकर काम नहीं करती। अलवर में बानसूर के गांव बाढ मिलखपुर की उमा ने 12 साल की उम्र में खुद का बाल विवाह रूकवाया और 19 साल की उम्र में जाकर शादी की। शादी के बाद शराबी पति की शराब छुडवाई। उसका यह हौसला वार्ड पंच बनने पर भी जारी रहा और उसने गांव में शराब की दुकानों को बंद करवाकर ही चैन लिया।

पुरूषों को साथ देना होगा

पुरूष की भूमिका सहयोगी की हो गई है। स्त्री की एक नई छवि चुनावी राजनीति में बन रही है, जो उसे गहरा आत्मविश्वास देती है और अपने निर्णय खुद लेने के लिए प्रेरित करती है। राजसमंद जिले के गांव सिंदेसर कलां में वार्ड पंच रहने के दौरान तारा ने महिला-पुरूष के बीच होने वाले लिंगभेद को खत्म करने के लिए अपने ससुर के सामने आवाज उठाई। उसके ससुर पंचायत में सरपंच थे। तारा ने पंचायत में सबको बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए कोशिश की। अब पंचायत की सभी औरतें पुरूषों के साथ कुर्सियों पर बैठती हैं।

बदले हैं हालात

देश भर में पंचायतों की राजनीति को बदलने में बहुत-सी गैर सरकारी संस्थाओं का बडा योगदान है। 'द हंगर प्रोजेक्ट' जैसी कई संस्थाएं राजस्थान सहित देश के कई राज्यों में महिला जनप्रतिनिधित्व को बढाने और उन्हें मजबूत बनाने में जुटी हुई हैं। पिछले साल जयपुर में आयोजित महिला पंच-सरपंच सम्मेलन में महिलाएं आगे आईं तो अधिकारियों ने उनकी समस्याओं को गंभीरता से लेना शुरू किया और उनके काम तेजी से होने लगे। पिछले पंचायत चुनाव में 33 फीसदी महिला आरक्षण से अगर हालात में यह बदलाव दिखाई दिया तो इस दफा के 50 फीसदी आरक्षण और उसमें भी गैर आरक्षित सीटों पर भी चुनाव जीतकर आने वाली महिलाओं की संख्या को और जोड दें, तो हमें एक सुनहरे भविष्य के संकेत साफ दिखाई दे रहे हैं।