राजस्थान में आज भी अशिक्षा और अज्ञान के कारण सैंकड़ों किस्म की सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों की दुनिया शहर, कस्बों से लेकर गांवों तक महामारी की तरह फैली हुई हैं। दुर्भाग्य से इन सबका शिकार अंततः महिलाएं होती हैं। निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं। जातिवादी घृणा की वजह से महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं होती हैं। जाति और परंपरा के नाम पर विधवाओं का जीवन नरक बना दिया जाता है। शराब और अफीम का नशा औरतों को हिंसा का शिकार बनाता है। किसी प्रकार के पारिवारिक संपत्ति विवाद में महिला का हिस्सा पुरुष हड़प लेते हैं। दहेज प्रताड़ना के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर साल हजारों गर्भवती स्त्रियों को जान से हाथ धोना पड़ता है। कन्या भ्रूण हत्या और कई जातियों में जन्म के साथ ही कन्या को मार देने की परंपरा से मरने वाली बालिकाओं की तो गिनती ही नहीं है। कुपोषण के कारण महिलाएं अनेक खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त हो जाती हैं, जिनके इलाज के लिए झाड़-फूंक और जादू-टोना ग्रामीण राजस्थान की पुरानी पहचान है, जिसमें अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। परिवार में किसी भी काम के लिए सबसे पहले महिला को ही जुटना पड़ता है और विपत्ति आने पर उसे ही सबसे पहले अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं, मसलन अनाज नहीं है तो औरत ही निराहार रहेगी या उसे ही कम भोजन दिया जाएगा। अकेली और अनाश्रित महिला हो तो उसकी संपत्ति हथियाने के लिए हर कोई पीछे पड़ जाएगा। एक तरह से देखा जाए तो ग्रामीण समाज में स्त्री की हालत दुधारु पशु से भी गई बीती है।
स्त्री को लिंगभेद की क्रूर व्यवस्था के कारण कर्ह किस्म की हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अभी तक की बहुप्रचारित शिक्षा का प्रसार भी ग्रामीण समुदाय में इस विचार को नहीं पैबस्त कर पाया है कि जैविक लिंग अलग होने के कारण स्त्री में पुरुष से अलग कोई विशेषता नहीं होती और प्रकृति ने जो भेद बनाए हैं, उसके सिवा सारे भेद मर्दवादी समाज ने बनाए हैं। दरअसल, हमारी शिक्षा को सबसे पहला काम ही यह करना चाहिए था कि लिंगभेद को समाप्त करे। दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ, इसीलिए देश की आधी आबादी की शक्ति का इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी हम आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से दुनिया के बहुत से देशों से पिछड़े हुए हैं। राजस्थान में स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ने एक महान अवसर दिया है कि स्त्रीशक्ति का नारी हित में इस प्रकार प्रयोग किया जाए कि पांच साल बाद एक नया राजस्थान देखने को मिले। इस काम में उन महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बेहद प्रभावशाली हो सकती है जो इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत कर आई हैं।
राजस्थान में 14 जुलाई से ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगभेद संबंधी मसलों को लेकर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के सहयोग से प्रिया संस्था की ओर से एक अभियान की शुरुआत हुई है। इस अभियान में ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को विशेष प्रशिक्षण देकर कहा जाएगा कि वे अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में बालिका शिक्षा, महिलाओं के प्रति हिंसा, बाल विवाह और महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर जन जागरूकता फैलाएं, ताकि विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लिंगभेद समाप्त किया जा सके। सन् 2013 तक चलने वाला यह अभियान दरअसल उस विराट अंतर्राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा है जिसके तहत सन् 2015 तक दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक असमानता को खत्म किया जाना है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य नामक इस परियोजना के आठ बिंदुओं में सबसे अहम है गरीबी को पचास प्रतिशत तक कम करना और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समूल नष्ट करना। बालिका शिक्षा के अंतर्गत दुनिया की सभी बालिकाओं को 2005 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य था, जिसे भारत पांच साल बाद भी हासिल नहीं कर सका है। अब इसके लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं और कई किस्म की बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजनाएं चल रही हैं।
ग्रामीण महिला जनप्रतिनिधियों के माध्यम से ग्रामीण समुदाय की सोच को बदला जा सकता है, क्योंकि पंचायतों में पिछले डेढ़ दशक से महिला आरक्षण की व्यवस्था ने महिला जनप्रतिनिधियों के प्रति समाज में एक नई और सकारात्मक छवि विकसित की है। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण प्रशासन को महिलाओं के प्रति उत्तरदायी बनाने की पहल क्रांतिकारी परिणाम दे सकती है। महिला पंच-सरपंच की स्थानीय छवि और दायित्वपूर्ण भूमिका होने के कारण लोग उनकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। उनकी नेतृत्वकारी छवि स्थानीय स्तर पर होने वाली लिंगभेद की मानसिकता को सहजता से बदल सकती है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रही विभिन्न महिला विकास योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और अधिकाधिक महिलाओं को लाभान्वित करवा कर ग्रामीण नेत्रियां करोड़ों बालिकाओं, युवतियों और महिलाओं का जीवन प्रगतिपथ पर ले जा सकती हैं। बाल विवाह रुकवाना, बालिकाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए पहल करना-लोगों को राजी करना, आंगनवाड़ी खुलवाना, स्त्री शिक्षा के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी देना, महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकना, विधवा और वृद्ध महिलाओं को पेंशन दिलवाना और स्वास्थ्य केंद्र खुलवाना जैसे बहुत से महिला सशक्तिकरण के काम महिला पंच-सरपंच के लिए सामान्य काम हैं। वे चाहें तो अपने क्षेत्र की महिलाओं का संगठन बना कर बहुत सी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक ढंग से लड़ाई भी लड़ सकती हैं। द हंगर प्रोजेक्ट जैसी कई गैर सरकारी संस्थाओं ने तो कई जिलों में महिला पंच सरपंच संगठन ही बना दिए हैं, जिनके माध्यम से महिला जनप्रतिनिधि सरकारी मशीनरी से अपने वाजिब हकों के लिए संघर्ष कर विजय हासिल करते हैं।
पंचायतों में महिला आरक्षण ने ग्रामीण महिलाओं को जो थोड़ा-बहुत आत्मविश्वास दिया है, उसे व्यापक बनाने की जरूरत है। अगर ग्रामीण समुदाय की सभी महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ खुलकर बोलने लग जाएं, अधिकारों के लिए आवाज उठाएं, ग्रामीण विकास के बजट में महिलाओं के लिए उचित प्रावधानों की मांग करें, किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करें और इसमें महिला जनप्रतिनिधि नेतृत्व करें तो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के अंतर्गत लिंगभेद समाप्त करने का लक्ष्य कहीं जल्दी हासिल किया जा सकता है।
यह आलेख 14 जुलाई, 2010 को दैनिक महका भारत, जयपुर में प्रकाशित हुआ।
निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं।...
ReplyDeleteअनपढ़ लोगो द्वारा ऐसी परिस्थितियों की रचना तो की ही जाती रही है गांवों में ...
मगर पढ़े लिखों द्वारा किसी एक व्यक्ति/महिला को डायन , नागिन साबित करने की कोशिश की जाए तो उसकी भयावहता का तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है ...और ये सब आजकल शहरों में हो रहा है ...
सिर्फ शिक्षा(डिग्रियां ) ही अंधविश्ववास मिटा दे ,यह संभव नहीं है ...इसके लिए जरुरी है स्वस्थ दिमाग , स्वस्थ सोच ....
महिलाओं को जो थोड़ा-बहुत आत्मविश्वास दिया है, उसे व्यापक बनाने की जरूरत है...बहुत जरुरत है ..!
आपने पूरा लेख सुनी सुनाई बातों पर लिखा है!ये सब पहले की बात है,ठीक है कहीं कहीं अशिक्षा के कारन एक आध घटना हो जाती है...पर कुल मिला कर गाँवो में माहौल बदल रहा है..सबसे जरूरी शिक्षा है जो धीरे धीरे जागरूकता फैला रही है...
ReplyDeleteहमें तो ऐसा नहीं लगता कि सुनी हुई बातों के आधार पर प्रेमचंद जी ने कुछ भी लिखा !अगर हम इतनी ही उन्नति कर चुके हैं तो आखिर रोज़ के दैनिक अखबार औरतों की हत्यायों के समाचारों से क्यों पटे रहते हैं .. राजस्थान तो कन्या का पुराना वध स्थान है यह कोई बड़ी बात नहीं है !दूध पीती बच्चियों का विवाह बलात्कार और घरेलू हिंसा स्त्री इस तरह की अनेक समस्याओं में उलझकर खुद को मिटने दे रही है यह दुखद है .उसको खुद ही कदम उठाने होंगे और अपने जीवन के बारे में उचित फैसले लेने के हक की लडाई खुद ही लड़नी होगी .इसके अतिरिक्त अन्य समाधान नहीं है.
ReplyDelete.
@ Rajnessh Ji___ सुनी सुनाई बातों पर तो बीकानेर चलता है शायद, और बीकानेर में भी सिर्फ व्यासों का। जो कोई व्यास कहे वो सर्वोपरि बाकी तो कूड़े के ढेर में । राजस्थान के हिंदी साहित्य में सबसे बड़ा जातिवाद बीकानेर वालों ने फैला रखा है। पूरे बीकानेर में एक दलित साहित्यकार को आगे नहीं आने दिया। कोई आ जाए तो सब पीछे पड़ जाते हैं बाहर निकालने के लिए। इसके लिए गुंडागर्दी तक करने में नहीं हिचकते हैं। वीरों की धरती है, दलितों को झुकाने में मजा आता है। इनका ब्राह्मणवाद समाजवादी है, ये चाहे जिसको दलित और स्वजातीय सिद्ध कर सकते हैं।
ReplyDelete''इस काम में उन महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बेहद प्रभावशाली हो सकती है जो इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत कर आई हैं।''
ReplyDelete............ सही कहा आपने । पुरुषवादी व्यवस्था ने आज तक यह नही सोचा कि आखिर वे आए कहाँ से हैं(?)। आपकी सशक्त कलम के माध्यम से यदि इतनी संवेदना जगी है तो निश्चितरुप से वह दिन जरूर आएगा जब स्त्री शोषण का खात्मा होगा ,वह भी मनुष्य की तरह जी सकेगी ।
चिंतनपूर्ण और सोचने को प्रेरित करने वाला विचार. सार्थक लेखन.
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