यूरोप के छोटे-से देश बेल्जियम को साहित्य में एकमात्र नोबल पुरस्कार पूरी एक सदी पहले नाटककार, कवि और निबंधकार मॉरिस मैटरलिंक के रूप में मिला। बेहद दौलतमंद माता-पिता के घर में 29 अगस्त, 1862 को जन्मे मॉरिस को घर पर आरंभिक शिक्षा दी गई और बारह साल की उम्र में कठोर कैथोलिक ईसाई अनुशासन में पढ़ने के लिए जेसुइट कॉलेज भेज दिया गया। यहां का वातावरण मॉरिस को कालांतर में कैथोलिक चर्च से ही दूर ले गया। सात साल के इस कठोर धार्मिक वातावरण में मॉरिस को दो समान रूचि वाले मित्र मिले जो आगे चल कर अच्छे कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन कवियों के साथ मॉरिस ने ला ज्यून बेल्जिक पत्रिका में अपनी कविताएं प्रकाशन के लिए भेजना शुरु किया तो 21 साल की उम्र में पहली कविता प्रकाशित हुई ‘द रशेज।’ माता-पिता को पसदं नहीं था कि मॉरिस कविता और साहित्य की तरफ आगे बढ़े, इसलिए उन्होंने बेटे को कानून पढ़ने के लिए घेण्ट विश्वविद्यालय भेज दिया।
मॉरिस ने कानून की पढ़ाई के दौरान भी साहित्य से नाता नहीं तोड़ा और निरंतर लिखते रहे। कानून में स्नातक होने के बाद वे कुछ समय पेरिस रहे, जहां प्रतीकवादी कवि स्टीफन मलार्मे और डिवीलियर्स जैसे रहस्यवादी कवियों से मुलाकात की। लौटकर मॉरिस वापस घर आए और वकालत शुरु की, लेकिन साहित्य से रिश्ता बना रहा। 1889 में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ ‘हॉट हाउस ब्लूम्स।’ अत्यंत रहस्यमयी बिंबों और छवियों से समृद्ध कविताओं से परिपूर्ण संग्रह पर आलोचकों का ध्यान अवश्य गया। इसके बाद जल्दी ही मॉरिस का पहला नाटक ‘प्रिंसेस मेलिन’ प्रकाश में आया। नाटक को भी जनता की नहीं आलोचकों की खासी प्रशंसा मिली। प्रसिद्ध समीक्षक ऑक्टोव मीरब्यू ने शेक्सपीयर जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण श्रेष्ठ नाटक करार दिया। इस प्रशंसा से मॉरिस की ख्याति साहित्य जगत में तेजी से फैल गई। इससे प्रेरित होकर मॉरिस लगातार मनुष्य की घातक परिस्थितियों और जीवन के अदृश्य रहस्यों को लेकर नाटक लिखते रहे। बेल्जियम और फ्रांस में उनके ‘इंट्रयूडर’ और ‘द ब्लाइंड’ जैसे नाटकों ने साहित्य और रंगमंच की दुनिया में पर्याप्त सराहना अर्जित की।
नाट्य लेखन के दौरान मॉरिस की मुलाकात गायिका और अभिनेत्री जार्जेट लिब्लांक से हुई जो आगे चलकर तेइस बरस तक चली। मॉरिस के लिए जार्जेट एक केंद्रबिंदु बन गई, जिसके इर्दगिर्द उन्होंने तेइस साल तक दर्जनों नाटकों की रचना की। इन नाटकों में मॉरिस ने मनुष्य जीवन के अनेक रहस्यमय और नियति के शिकार किरदार गढ़े, हर किरदार अनिवार्य और अंतिम रूप से जार्जेट की वजह से स्त्री का किरदार होता था। उन्होंने जो नाटक लिखे, उनकी आलोचकों और समीक्षकों ने अत्यंत सराहना की, इनमें रोम्यां रोलां जैसे भारतप्रेमी लेखक भी शामिल थे। कैथोलिक चर्च ने जार्जेट को उसके स्पेनिश पति से तलाक देने से मना कर दिया, इसलिए वे दोनों विवाह नहीं कर सके। उधर जार्जेट के साथ खुले आम रहने की वजह से मॉरिस के माता-पिता उनसे खफा हो गए तो दोनों ने 1895 में बेल्जियम छोड़ दिया और पेरिस चले गए। यहां आकर मॉरिस ने प्रतीकवाद की अतिनाटकीयता को छोड़कर किंचित यथार्थवादी तरीका अपनाया, जो दर्शकों और समीक्षकों सभी को पसंद आया। मॉरिस को मधुमक्खी पालन का शौक था और चींटियों और कीट-पतंगों के बारे में पढ़ने का जबर्दस्त शगल था। इसलिए उन्होंने कुछ नाटकों में मनुष्य के नियतिवाद को मधुमक्खियों आदि के माध्यम से भी संकेतित करने का जबर्दस्त काम किया। मॉरिस ने शॉपेनहावर के नकारवादी रवैये के बरक्स एक किस्म के विजयी आशावादी दृष्टिकोण को स्थापित किया। उनकी मान्यता थी कि इंसान चाहे तो भाग्य और नियति को बदल सकता है। 1903 में नाट्यसाहित्य में योगदान के लिए मॉरिस को बेल्जियम सरकार ने पुरस्कृत किया।
मॉरिस मैटरलिंक का सबसे मषहूर नाटक है ‘द ब्लू बर्ड’, जिसे दुनिया की कई भाषाओं में खेला गया है। रंगमंच के महान निर्देशक कोन्सतांतिन स्तानिस्लाव्सकी ने 1908 में जब इस नाटक को पहली बार मास्को में प्रस्तुत किया तो बच्चों की परीकथा वाले इस नाटक को इतनी जबर्दस्त लोकप्रियता हासिल हुई कि एक साल तक यह लगातार मंचित होता रहा। इस नाटक पर कई देशों में बेहद लोकप्रिय फिल्में भी बनीं। रूसी-अमेरिकी सहयोग से बनी एक फिल्म में तो एलिजाबेथ टेलर ने चार भूमिकाएं निभाईं। 1911 में मॉरिस मैटरलिंक को नाट्य साहित्य में असाधारण योगदान के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया।
प्रथम विश्वयुद्ध ने मॉरिस को बेहद विचलित किया और जब जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया तो उनके भीतर का देशभक्त लेखक जाग उठा और ‘द रैक ऑव स्टॉर्म’ जैसी विचारप्रधान पुस्तक सामने आई। 1919 में जार्जेट लिब्लांक के साथ उनका संबंध समाप्त हो गया और ‘द ब्लू बर्ड’ की नायिका रेनी देहोन से विवाह कर लिया। इसी के साथ वे रहस्य, प्रतीक और फंतासी की दुनिया से बाहर निकल कर प्रकृतिवादी मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखने लगे। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच वे लगातार नाटक और निबंध लिखते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध में वे अपने देश के लिए लड़ना चाहते थे, किंतु उनकी आयु के कारण मना कर दिया गया और उनके देशभक्त विचारों और उनकी ख्याति को देखते हुए उनकी जान बचाने के लिए उन्हें पहले पुर्तगाल और फिर अमेरिका भेज दिया गया। प्रवास के ये दिन बहुत आर्थिक तंगी में गुजरे। 1947 में मॉरिस वापस घर लौटे।
उनके आलोचकों का मानना है कि मॉरिस ने मानव जीवन की परिस्थितियों के सबसे गूढ़ प्रश्न मृत्यु को कई कोणों से जांचा परखा है। उनके नाटकों में अलिखित या मूक संवाद, नियति से साक्षात्कार के भाव और रोजमर्रा के जीवन में छिपी हुई रहस्यात्मकता ने नाट्यसाहित्य में एक नई परंपरा का सूत्रपात किया, जो आगे चल कर हैरॉल्ड पिंटर जैसे महान नाटककार को जन्म देती है। 6 मई, 1949 को हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई। 2008 में बेल्जियम सरकार ने उनकी जन्मशती के मौके पर उनकी स्मृति में एक सिक्का जारी किया। मॉरिस का यह कहना बहुत ही खूबसूरत है, ‘‘रंगमंच ऐसी जगह है जहां कलात्मक काम नष्ट हो जाते हैं ... और .... कविता तब मर जाती है जब उसमें जिंदा लोग दाखिल हो जाते हैं।’’
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