मनुष्य मात्र के लिए किसी भी स्वतंत्र देश में आजादी का अर्थ और व्यावहारिक अभिप्राय बहुआयामी होता है। किसी विदेशी शासन का जुआ उतार फेंकने भर से देश के नागरिकों को आजादी नहीं मिलती, बल्कि आजादी का मतलब है स्वदेशी शासन में प्रत्येक नागरिक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध हों, लिंग, धर्म, जाति, संप्रदाय और नस्ल आदि में से किसी भी आधार पर भेदभाव न तो समाज में हो और ना ही शासन या व्यवस्था के स्तर पर। देश में उपलब्ध प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों का सामुदायिक हित में प्रयोग किया जाए और प्रत्येक नागरिक को बिना भेदभाव के इन संसाधनों के समुचित प्रयोग का अधिकार हो। अगर भारत की आजादी के विगत 63 सालों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि हम भारतीय आज भी बहुत से मामलों में एक स्वाधीन लोकतांत्रिक देश के सच में स्वाधीन नागरिक नहीं हैं। हमारी आजादी आज भी अधूरी है, क्योंकि हमारे यहां जाति, धर्म और लिंग के अलावा प्रांत और अंचल जैसे कई आधारों पर आज भी जबर्दस्त भेदभाव है, जिसके शोले कश्मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से सुदूर उत्तर-पूर्व तक सुलगते देखे जा सकते हैं।
आजादी का मतलब है लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने आनंद से जीने का अधिकार हो और जनता सुरक्षा की भावना के साथ खुश होकर कहीं भी रह सके। इस आधार पर देखें तो हम कहीं भी आजाद नहीं हैं। आम आदमी ना तो घर में सुरक्षित है ना ही बाहर। कानून की पालना और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं वे नाकामयाब सिद्ध हो रही हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में कानून और व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि लोगों की सहमति से जीवन स्वातंत्र्य के लिए कायदे कानून बनाए जाएं और उनकी पालना के लिए माकूल इंतजाम इस तरह किए जाएं कि जनता को कम से कम असुविधा हो और सामान्य जनजीवन बाधित ना हो। लेकिन हम देख रहे हैं कि लोगों की सुविधा के नाम पर देश में बड़े रसूखदार और पूंजीपतियों के हित में नए से नए कानून बनाए जा रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों से दो हजार से अधिक करार राज्य सरकार द्वारा खनिज और वन संपदा के दोहन के लिए किए गए हैं। इसका प्रतिवाद करने वाले आदिवासियों का बुरी तरह दमन किया जा रहा है। अपना हक मांगने वाले लोगों का अगर सरकार गोली से जवाब देती है तो यह कहां की आजादी है? सन 1776 में अमेरिकी आजादी के घोषणा पत्र में इसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार सरकार द्वारा जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाला कृत्य कहा गया था। वस्तुतः स्वतंत्रता का सिद्धांत कहता है कि जनता को सहज जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं कि उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार की तरह जनता के मूलभूत अधिकारों का राज्य द्वारा कदम-कदम पर हनन किया जा रहा है। इसीलिए महात्मा गांधी ने सौ बरस पहले ही कह दिया था कि अगर अंग्रेजी शासन को हटाकर वैसा ही शासन अगर भारत में स्थापित करना है तो यह दासता ही भली है। व्यवहार में हम देख ही रहे हैं कि सत्ता का चरित्र कमोबेश औपनिवेशिक ही है और हमारी राजनीति की दिशा निरंतर जनोन्मुखी होने के बजाय पूंजीपति रक्षक की हो गई है।
स्वाधीनता का तकाजा कहता है कि लोगों की निजता के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए और आम जीवन में सरकार का दखल कम से कम होना चाहिए। लेकिन बढ़ते अपराधों की रोकथाम में नाकाम सरकारें नए-नए थाने बनाकर हर कदम पर पुलिस और पहरेदार बिठाकर सोचती है कि इससे अपराध रुक जाएंगे। आजादी का मतलब होता है कि कम से कम सरकारी दखल हो और जितना भी दखल हो वह लोगों की अनुमति से होना चाहिए। एक स्वस्थ सुरक्षित लोकतांत्रिक समाज में व्यक्ति को निर्भय जीने का अधिकार होता है, लेकिन हमने एक ऐसी व्यवस्था बना रखी है, जो कहने को लोगों को समान अवसर देती है, लेकिन निरक्षता और गरीबी का मारा व्यक्ति या तो अपराध की राह पकड़ता है या भीख मांगने के लिए मजबूर होता है। लोकतंत्र में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जनसेवक की भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन प्रचलित व्यवहार में हम देखते हैं कि सरकारी कर्मचारी-अधिकारी जनता को सहयोग की बजाय परेशान करते हैं। जनता की सुरक्षा और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए शासन अनिवार्य है, लेकिन अतिशासन निजता का हनन करता है। इसीलिए महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में अपने मन के शासन को स्वराज कहा था, जो आम आदमी के लिए आज भी एक सपना ही है।
लोकतंत्र में न्याय, शांति, स्वतंत्रता और समृद्धि को मनुष्य मात्र का प्राकृतिक अधिकार माना जाता है। राज्य का यह बुनियादी कर्तव्य है कि इन अधिकारों के लिए काम करे, क्योंकि स्वतंत्रचेता व्यक्ति का निर्माण भी राज्य का दायित्व है। अगर किसी समाज में लोगों को ये आधारभूत अधिकार मिलते हैं तो वह समाज तेजी से विकास करता है और राष्ट्र को आगे ले जाता है। इन अधिकारों की बहाली के लिए सरकार ने जो व्यवस्था कार्यपालिका और न्यापालिका के रूप में बनाई है उनके काम की गति देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि जनता का क्या हाल होगा। लोग बरसों से न्याय की आशा में अदालतों और सरकारी दफ्तरों में भटकते रहते हैं और एक दिन संसार से कूच कर जाते हैं। उदाहरण के लिए आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में जिस दिन टाटा के साथ खनिज दोहन के लिए मसौदे पर हस्ताक्षर हुए उससे अगले दिन ही यानी 05 जून, 2005 से राज्य में सलवा जुड़ूम शुरु हो गया। आनन-फानन में 644 गांवों का ‘पवित्रीकरण’ कर दिया गया, अर्थात् गांव जला दिए गए। छह सौ आदिवासी न्याय मांगने के लिए अदालत की शरण में गए, लेकिन एक भी आदिवासी को न्याय नहीं मिला। क्या इसी के लिए आजादी के आंदोलन में लाखों आदिवासियों ने अंग्रेजों से मरते दम तक लोहा लिया था? आदिवासी अंचलों में चल रही हिंसा के संदर्भ में गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ में लिखा यह कथन बहुत मानीखेज़ है। ‘अशांति असल में असंतुष्टि है। यह असंतुष्टि बड़े काम की चीज़ है। एक व्यक्ति जब तक अपने वर्तमान से संतुष्ट रहता है तब तक उसे उस अवस्था से बाहर निकालना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए कोई भी सुधार असंतुष्टि से ही शुरु होता है। जब हम किसी चीज का इस्तेमाल बंद कर देते हैं तब हम उसे फेंक देते हैं।’
स्वतंत्र देश में समूची व्यवस्था में निर्णय का अधिकार जनता के पास होता है, जनप्रतिनिधि अपने सदनों में जनता की ओर से निर्णय लेते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि विभिन्न सदनों में लिए जाने वाले निर्णयों में से अधिकांश जनहित में नहीं होते, चाहे वे नए टैक्सों की शक्ल में हों या नए निर्माण कार्य अथवा कानून की शक्ल में। राजधानी जयपुर में खासा कोठी पर निर्मित पुल के बारे में अब सरकार खुद ही स्वीकार कर रही है कि यह गलत बना दिया गया। निश्चित रूप से ऐसे निर्णय जनहित के नाम पर जनता की सुविधा और सहूलियत के लिहाज से कलंक हैं, जिनके पीछे कुछ लोगों का निहित स्वार्थ छुपा होता है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों और कार्यपालिका की भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। फिर गांधी जी का ब्रिटिश संसद के बारे में कहा गया कथन याद आता है, ‘‘प्रधानमंत्री संसद के कल्याण के बजाय अपनी शक्तियों के लिए ज्यादा चिंतित नजर आते हैं। उनकी पूरी ताकत अपनी पार्टी की सफलता सुनिश्चित करने पर केंद्रित रहती है। उनकी शाश्वत चिंता यह नहीं होती कि संसद ठीक से काम करे। कई किस्म के लाभ उठाने के लिए वे निश्चित रूप से कुछ लोगों को मान-सम्मान की घूस भी देते हैं।’’
आज हमारी आजादी का 63वां साल है, यह अवसर इस बात पर पुनर्विचार करने का है कि कैसे हर व्यक्ति को वास्तविक स्वतंत्रता मिले, जिससे वह स्वयं के साथ देश के विकास के बारे में सोचे और एक सरस, सरल, अपराधमुक्त, निर्भय, स्वस्थ और स्वतंत्र विचारशील समाज का निर्माण करने में अपना सर्वस्व लगा दे। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, ‘तुम मेरी जान ले सकते हो, लेकिन मेरे जीने का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मुझसे मेरी आजादी छीन सकते हो, लेकिन मेरी स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मेरी आशाएं छीन सकते हो, तुम चाहो तो मुझसे खुशी की कामना भी छीन सकते हो, लेकिन तुम खुशी की खोज के अधिकार को नहीं छीन सकते।’’ मनुष्य के लिए आनंद और खुशी ही स्वतंत्रता है। आइये इसका जश्न मनाएं, लेकिन एक नागरिक की जिम्मेदारियों के साथ, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ दायित्वबोध भी जुड़ा हुआ है।
यह आलेख डेली न्यूज़, जयपुर के स्वाधीनता दिवस परिशिष्ट 'देश मेरा रंगरेज' में प्रकाशित हुआ।
‘तुम मेरी जान ले सकते हो, लेकिन मेरे जीने का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मुझसे मेरी आजादी छीन सकते हो, लेकिन मेरी स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मेरी आशाएं छीन सकते हो, तुम चाहो तो मुझसे खुशी की कामना भी छीन सकते हो, लेकिन तुम खुशी की खोज के अधिकार को नहीं छीन सकते।’’
ReplyDelete..वाकई, बेहद उम्दा पोस्ट है.
..बधाई.
हमारी आजादी आज भी अधूरी है, क्योंकि हमारे यहां जाति, धर्म और लिंग के अलावा प्रांत और अंचल जैसे कई आधारों पर आज भी जबर्दस्त भेदभाव है, जिसके शोले कश्मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से सुदूर उत्तर-पूर्व तक सुलगते देखे जा सकते हैं
ReplyDeleteसही कहा है ..बहुत अच्छी प्रस्तुति ..
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं
प्रधानमंत्री संसद के कल्याण के बजाय अपनी शक्तियों के लिए ज्यादा चिंतित नजर आते हैं...
ReplyDeleteवे संसद के कल्याण की बात सोच रहे हैं ...ये भी क्या कम है वरना ज्यादा लोंग तो सिर्फ अपने कल्याण की ही बात सोचते हैं ...अपने प्रान्त और जाति (खेद सहित ) का भला करने के नाम पर अरबपति -खरबपति बनते जा रहे हैं ...
क्या कभी हमारे पास बुरा और बहुत बुरा के अतिरिक्त कोई विकल्प होगा ....?
जितनी भी है ...आज़ादी मुबारक ...!
Nioce Post...!
ReplyDeleteमार्टिन लूथर किंग ने कहा था, ‘तुम मेरी जान ले सकते हो, लेकिन मेरे जीने का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मुझसे मेरी आजादी छीन सकते हो, लेकिन मेरी स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मेरी आशाएं छीन सकते हो, तुम चाहो तो मुझसे खुशी की कामना भी छीन सकते हो, लेकिन तुम खुशी की खोज के अधिकार को नहीं छीन सकते।’
ReplyDeleteआपकी संवेदना, विचार का शुरू से ही क़ायल रहा हूँ ..आया हूँ पहली बार लेकिन पछतावा है कि पहले क्यों नहीं आया.सिर्फ ऑरकुट पर ही कभी कभार मिलते रहे अपन.
हमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
शहरोज़