Sunday 19 July, 2009

रब्बो - रामकुमार ओझा की कहानी


राजस्थान के साहित्यिक इतिहास में रामकुमार ओझा एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने सृजन की शास्त्रीय शर्तों और परंपराओं को तोड़ते हुए अपनी अलग राह बनाई और कथा साहित्य में ऐसे किरदारों की रचना की जो आम होते हुए भी खास हो जाते हैं। रचना का वातावरण और लेखक की दृष्टि मिलकर ऐसे देशज पात्रों की रचना करते हैं, जो जीवन समर में संघर्ष करते हुए कभी हार नहीं मानते। प्रकृति और मानव को एक दूसरे से अंतर्ग्रथित कर देने वाले महान रचनाकार रामकुमार ओझा का जन्म 8 जुलाई, 1926 को हुआ। ग्यारह बरस की उम्र से शुरु हुआ ओझा जी के लेखन और प्रकाशन का सिलसिला 8 अक्टूबर, 2001 को उनके महाप्रयाण के साथ थमा। वे राजस्थान के उन गिने-चुने लेखकों में हैं, जिनकी रचनाएं ‘कल्पना और ‘विशाल भारत जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
ओझा हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते थे और उनका ग्रामीण परिवेष और जनजीवन से बहुत गहरा रिश्‍ता था। दोनों भाषाओं में रामकुमार ओझा के कविता संग्रह, कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हुए। अभी भी उनकी कई रचनाएं अप्रकाशित हैं। ओझा जी के विपुल कथा संसार में ‘रब्बो एक ऐसी कहानी है जो समाज की दोमुंही मानसिकता पर जबर्दस्त प्रहार करती है। अच्छे-भले लोग कैसे दूसरों को नापाक निगाहों से देखते हैं और खुद के दामन पर लगे दागों को नहीं देखते। ऐसे लोग हमारे आस-पास फैले पड़े हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही लोगों को बेनकाब करती कहानी रब्बो का सार संक्षेप।
बकौल बुजुर्गान उस मोहल्ले में औबास यानी आवारा लौंडों की तादाद न के बराबर थी। शातिर लौंडियां तो थी ही नहीं। हालांकि कमसिन और बला की खूबसूरत लड़कियां स्कूल, कालेज, मंदिर, मजार पर जातीं और कुछ ज्यादा ही बनी-ठनी निकलतीं तो हंगामा मच जाता। आवारा लौंडे ताकते-झांकते, फिल्मी नगमों के टुकड़े उछालते और मजनूई अंदाज में मायूस हो जाते। लड़कियां चुपचाप यूं चली जातीं कि बुजुर्ग समझते लड़कियां शर्मसार हैं और चाहने वालों को लगे कि उनकी जानिब भी कोई जां-निसार है। हमउम्र लड़कियों में आपस में जलन होती अगर लौंडे किसी खास को ज्यादा तवज्जोह देते। एक दिन मोहल्ले के रास्तों से एक बिल्कुल जुदा किस्म की लड़की गुजरने लगी। सयानेपन में औरत बन चुकी इस लड़की के जिस्म में हाल ही में दिलकश उभार आया था और इसकी चाल बड़ी शातिर, लेकिन लिबास बेहद सादा था। उसके पांव जमीं को नहीं छूते, वो उड़ी-उड़ी जाती। लौंडों के दिलों पर छुरियां चली जातीं कि कोई चलचलाती आतिश है जो मोहल्ले की लड़कियों से जुदा है। उसे देख बुत बने रह जाते, ना मिसरे उछाल पाते ना आहें भर पाते। एक दाउद ही था जो मौके की तलाश में था।
मगर उस कुमकुमे को रोज-ब-रोज गुजरते देख, मोहल्ले के बुजुर्ग लोग होशियार हो गए, माएं बनीं खातूनें खबरदार हो गईं। यह शरीफों का मोहल्ला है, जहां दीनदार मुसलमान, नौकरीपेशा कायस्थ, अमृत छके सिख, कदीमी बाशिंदे हिंदू और होटलों का कारोबार करने वाले एंग्लो इंडियन रहते हैं। गरज कि यह सारे हिंदुस्तान के शरीफों का मोहल्ला है। यहां की मां, बेटियां, बहनें, बूवा-फूफियां सबकी साझी धरोहर है। बस बीवियां जुदा हैं। लड़कियां जाहिरा तौर पर आवारा नहीं हैं। लेकिन वे चाहतीं कि लौंडे उन्हें छेड़ें और वे नाराजगी जाहिर करें। उन्हें पता था कि उनके घर वाले जानते हैं कि वे कैसी लड़कियां हैं, लेकिन वे चुप रहते। वो इसलिए कि वालिदान जानते थे कि उनकी औलादें मजनूं के जात की थीं। मोहल्ले में दुश्‍मनियां छुपी हुई और मुरौवत जाहिर थी। सदर दरवाजे बंद रहते और खातूनों की तांक-झांक खिड़कियों की फांकों से चलती।
मगर प्रोफेसर इमतियाज का सदर दरवाजा हमेशा खुला रहता। मुहल्ला शाहीदान से रब्बो आती, सीधे दरवाजे में घुस जाती और फिर दरवाजा बंदा हो जाता। फिर शुरु होता तांक-झांक और सरगोशियों का सिलसिला। बुजुर्गों के मुताबिक रब्बो को हया नाम की चीज छू भी न गई थी। दिन ढले आती और आधी रात जाती। दिखावे की भी लोकलाज नहीं। नजर झुकाकर नहीं सीधी आंख में आंख डाले चलती जाती। कुंवारी जान इमतियाज और चढ़ती परवान रब्बो। तौबा! तौबा!
मोहल्ले की औरतों ने तो तौबा कर ली थी मगर मर्दों को पता नहीं था कि रब्बो कालेज में उनकी लड़कियों की हमक्लास है या कि बेहद खास है। वो नहीं जानते कि आए दिन कितनी लड़कियों को राह भटकने से बचाती है रब्बो। मगर बुजुर्गों को लगता कि वो बेहया है। मौलवी मीर मुश्‍ताक, सरदार सूबेदार सिंह और मुंशी गुलशन नंदा मोहल्ले की अमन-अस्मत कमेटी के सदर-वदर थे। सब एकराय थे कि इमतियाज को मोहल्ला छोड़ने का नोटिस दे दिया जाए और ना माने तो जबरन बेदखल कर दिया जाए।
एक दिन शाम इस कमेटी के बुजुर्ग पहुंचे इमतियाज के घर। रब्बो ने दरवाजा खोला तो एकबारगी तो सबकी नजरें अटक गईं। संभलकर भीतर गए तो इमतियाज का हुलिया देख सकते में आ गए। बदन पर सिर्फ तहमद लपेटे प्रोफेसर किताबों के बीच पड़ा था। बुजुर्गों ने उसके सलाम का जवाब देने के बजाय उस पर सवालों और नसीहतों की बौछार शुरु कर दी। इमतियाज चुप खड़ा रहा, लेकिन रब्बो ने एक सवाल को लपककर पकड़ लिया।
‘यह लड़की... यानी कि मैं... यहां हर रोज दिन ढले क्यों आती हूं, एक जवान लड़की क्यों आती होगी, बुजुर्ग इस हकीकत से बेखबर तो नहीं।
सब चुप। काफी देर बाद एक बुजुर्ग बोले, तो हम शक को अब सबूत मानें।
रब्बो जवाब देने के बजाय हंसने लगी। उसकी नजरें सबके लिए आइना बन गईं, जिसमें सबको अपने घर, आंगन, छज्जे-बालकनियां और वहां के नजारे दिखाई देने लगे। मौलवी मीर की लौंडिया बारजे में खड़ी किसी को इशारे कर ही थी कि उसके बगल वाले घर के छज्जे पर एक गुड़मुड़ कागज गिरा और इसके बदले में एक पुर्जा हवा में उड़ा।... सूबेदारसिंह का हमपेशा ठेकेदार उसे घर से निकलने के बाद दरवाजे पर सरदारनी से उसके बारे में पूछता है तो सरदारनी कहती है, ओए तू मर्द होके एना डरदा क्यूं हेगा... रेशमीलाल की औरत दाई से लड़की की लाज बचाने के लिए मिन्नतें कर रही है।... गुलशन की बेटी बड़ी दिलेर है। प्यार किया है कोई गुनाह नहीं।
उफ! बुजुर्गों ने एक दूसरे को टहोका लगाया, लड़की बेशर्म है, पता नहीं और क्या बोल जाए।
और वे बिना नोटिस दिए ही निकल लिए। इमतियाज ने रब्बो को टोका, तुमने सच्चाई क्यों नहीं बताई, खामख्वाह उलझ पड़ी।
रब्बो का दुनियादारी भरा जवाब था।
किताबी फलसफे से दुनिया का दस्तूर अलग होता है। कौन मानता है कि आप थीसिस में मेरी मदद करते हैं। नैतिकता की सच्चाई को अनैतिक लोग कभी नहीं मानते। उनके लिए संतोषजनक जवाब वही है, जिसे वे नंगई के साथ नकारते हैं। अब हम और वे हमराज हैं। वो अब मेरी आवाजाही को दरगुजर करेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि हम भी गुनहगारों के हमजात हैं।
आधी रात जब वो वापस जा रही थी तो मौलवी बारजे पर टहल रहे थे। सूबेदारसिंह के अहाते में कुत्ते की जंजीर खुली हुई थी। मुंशी के घर तकरार चल रही थी और लाला की दुकान बंद थी। एंग्लो-इंडियन रेस्तरां में चहलपहल थी। खाली गली में अकेला दाउद बिजली के खंभे से चिपका खड़ा था। रब्बो को देख उसने कुछ मिसरे उछाले, रब्बो ने सहज भाव से लपका तो उसका हौसला बढ़ गया। चलती लड़कियों दुपट्टे लपकने का महारती दाउद उस पर झपट्टा मारता उससे पहले ही रब्बो ने अपना दुपट्टा उछाला और झटके के साथ उसकी गर्दन पर कस दिया। दाउद को रब्बो ने ललकारा तो बेचारे का पायजामा चिंदी-चिंदी हो गया और वो बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाकर भागा। उसके शागिर्द पहले ही भाग चुके थे।
अगली शाम पूरा मोहल्ला मौन था। रब्बो को देख पनवाड़ी ने रेडियो की आवाज बंद कर दी। अंधेरे के बावजूद कुत्ते उस पर भौंके नहीं। कोई अंगुली नहीं उठी। खिड़कियों से किसी ने तांक-झांक नहीं की। आधी रात सबके माथों पर स्याह दाग थे। सब हम-गुनाह थे। किसी ने कोई हंगामा नहीं किया, क्योंकि रब्बो सबको सरेराह नंगा करने की जुर्रत संजोए थी।
कहानी अंश
वह चलती तो ऐसी लगती कि मुअत्तर और मुनव्वर लौ चली जाती है, मगर उसकी बू गुगुलू जैसी है। जाफरानी नहीं। उसके जिस्म की गोलाई में कशिश तो है, मगर उसकी उठान दहकते कुमकुमे जैसी है कि लौंडे उसे देख दम-ब-खुद व साकित हो इस्तादा खड़े रहें और यह मुतहरिक जलजला-सी गुजरती गयी। कोई उस पर फिल्मी-क्लास गानों के तोड़े ना उछाल पाया कि वे अल-शुरु में ही उससे कट गये। उससे किनारा कर गये। बस एक दाउद था कि मौके की तलाश में बना रहा।
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किताबी फलसफे से दुनिया का दस्तूर जुदा होता है, इसलिए मैं उलझी प्रोफेसर साहब। कौन मानता है कि आप दयानतदारी के नाते थीसिस में मेरी इमदाद करते हैं। अख्लाक की हकीकत को बद-अख्लाक लोग कभी तस्लीम नहीं करते। उनके निकट तसल्लीबख्श उत्तर वही है जो वे खुद पूरी नंगई के साथ नकारते हैं। स्याहफाम लोग दूसरों को स्याही में डूबा देख कर नाराज नहीं खुश होते हैं। अब हम और वे हम-राज हैं। और वे तुमसे नाराज नहीं, खुश हैं। नंगों के हमाम में तुम भी उनमें से एक हो। वे जरा पर्दानशीनी के तलबगार जरूर हैं। मेरी आवाजाही को अब वे दरगुजर करेंगे, क्योंकि मेरे जवाब ने उनको तस्कीन दी है कि हम भी गुनहगारों के हमजात हैं।
रामकुमार ओझा
प्रकाशित कृतियां
कविता संग्रह: निशीथ
उपन्यास- रावराजा, अश्‍वत्थामा
कहानी संग्रह-करवट, सूरज अभी मरा नहीं, सिराजी तथा अन्य कहानियां, आदमी वहशी हो जएगा, तथा राजस्‍थानी में परकरती-पुरुष री कहाणियां।

2 comments:

  1. बुरा जो देखन मैं चला ..मुझसे बुरा न कोय !!

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  2. good story and good presentation...thanks

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