Sunday, 26 July 2009

आ फोटू अठै कयां - सत्यनारायण सोनी की कहानी


राजस्थानी के युवा और अत्यंत प्रतिभावान महत्वपूर्ण कहानीकारों में सत्यनारायण सोनी का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। चूंकि सोनी गांव में रहते हुए एक पारखी, सजग, और यथार्थवादी दृष्टि से गांव और वहां होने वाले निरंतर बदलावों को देखते हैं, इसलिए उनकी कहानियों में ग्रामीण परिवेश का कड़वा तीखा सच उजागर होता है। उनकी कहानियां आसपास के ग्रामीण परिवेश में फैली विसंगतियों और विद्रूपताओं को बहुत खूबसूरती के साथ बयान ही नहीं करतीं, बल्कि पाठक को बुरी तरह झिंझोड़ डालती हैं। सोनी की कहानियों को पढते हुए लगता है जैसे वे किसी भी साधारण घटना को अपने रचनाकौशल और गहरी अंतर्दृष्टि से एक नायाब कहानी बना देने का अद्भुत हुनर रखते हैं। उनके इसी कौशल और दृष्टि को बयान करती एक लाजवाब कहानी है, आ फोटू अठै कयां। प्रस्तुत है इस महत्वपूर्ण कहानी का सार-संक्षेप:-
14 अक्टूबर, 2007, आज ईद है। ईद से दो दिन चहले अजमेर शरीफ में बम फटा। दो मरे, बाइस जख्मी हुए। यह दर्दनाक हादसा देश के लिए शर्मनाक था। लोग इसमें पाकिस्तान का हाथ बताते। लेकिन... लेकिन, पाकिस्तान-हिंदुस्तान छोड़िए... पाकिस्तान में कौनसे इंसान नहीं बसते और हिंदुस्तान में कौनसे शैतान नहीं रहते। पाकिस्तान का ही एक इंसान ईद से एक दिन पहले की शाम नवभारत टाइम्स की ओर से आयोजित ‘दिल्ली मेरा दिल' कार्यक्रम में गजलें पेश करता है... गुलाम अली। श्रोता झूम रहे हैं। मेरे दोस्त, अंग्रेजी के प्राध्यापक राजेंद्र कासोटिया वहीं विराजमान हैं। वो मुझे मोबाइल पर गजलें सुनवाते हैं... लाइव। एक गजल के शेर थे-
कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं खुदा तेरे शहर में
क्या जाने क्या हुआ कि परेशां हो गए
इक लहजा रुक गई थी सबा तेरे शहर में
न दुश्मनी का ढब है न कुछ दोस्ती के तौर
दोनों का इक रंग हुआ तेरे शहर में
शायद उन्हें पता था कि खातिर है अजनबी
लोगों ने उसे लूट लिया तेरे शहर में।
शायर तो शायर है, इसमें हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या, और क्या हिंदू-मुसलमान?
लेकिन उस आदमी का क्या करें... जो पिछले दिनों रामस्वरूप किसान के बाहर वाले कमरे में आकर बैठ गया। कमरे में लगी तस्वीरों की तरफ अंगुली करते हुए पूछा, ये किसकी फोटो है? किसान जी ने बताया, किशोर कुमार की। उसने दूसरी फोटो की ओर इशारा कर पूछा, और ये? मोहम्मद रफी की। किसान जी रफी के जबर्दस्त फैन हैं, उनका बेटा कृष्ण भी। रफी का नाम लेते ही किसान जी के चेहरे पर चमक आ गई और आंखों में नूर। जैसे रफी का नाम लेने से ही उन्हें गर्व महसूस हुआ। लेकिन... लेकिन उस शख्स की आंखों में जैसे जहर बुझे तीर थे और वैसे ही उसके बोल, 'इस तुर्क की फोटो, आपके घर?' सुनते ही किसान जी के चेहरे की रंगत बदल गई, ‘भाई साब, पानी पीजिए और यहां से तुरंत चलते बनिए, मैं आपसे बात नहीं कर सकता।' और वो आदमी चला गया।
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आज ईद है। मेरी नींद भी नहीं खुली थी कि विजय का फोन आ गया।
'गुरूजी ईद मुबारक।'
'तुझे भी... और सुना।'
'गुरूजी ईद मुबारक का एक धांसू एसएमएस तैयार करके भेजो ना।'
क्यों भाई, तेरे को क्या जरूरत है?
'क्यों ईद अपनी नहीं है क्या?' वो हंसते हुए बोला और मैंने भी हंसते हुए कहा, 'अभी भेजता हूं।' इतने में ही महबूब अली का मैसेज आया,
'आज खुदा की हम पर हो मेहरबानी
करदे माफ हम लोगों की सारी नाफरमानी
ईद का दिन आज आओ मिल करें ये वादा
खुदा की ही राहों में हम चलेंगे सदा
सारे अजीजों अकरीबों को ईद मुबारक।'
इसी के साथ मलसीसर से आमीन खान का मैसेज आ गया-
'ईद-दिवाळी दोनूं आवै, ईं महीनै रै मांह।
हिन्दु-मुसळिम सगळा मिलै, घाल गळै में बांह।'
मैंने दोनों मैसेज विजय को भेज दिये।
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घर में रौनक है। आज बेटी नीतू अपनी सहेली मैमुना के घर जीमण पर जा रही है। वो तैयारी कर रही है। इसी बीच मुझे एक बात याद आई, जो नीतू को लेकर उसकी मैडम ने कही थी, 'नीतू की संगत सुधारो।' मैंने मैडम से तो ज्यादा सवाल नहीं किये, लेकिन मेरी चिंता बहुत बढ़ गई। शाम को मैंने बड़े प्रेम से नीतू को मैडम की बात बताई। सुनते ही वो तो रोने लगी...। ' पापा, मैडम मैमुना के कारण यह सब कहती हैं।' मुझे आश्‍चर्य हुआ, 'क्यों?' नीतू बोली, 'पापा, मैडम को मुसलमानों के बच्चे अच्छे नहीं लगते।'
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प्रमोद को भी मुश्‍ताक ने न्यौता दिया है। मिठाइयां उड़ेंगी। उसने भी मुश्‍ताक के लिए तोहफा पैक करवा लिया है। वो तैयार हुआ इतने में ही मुश्‍ताक आ गया अपनी गाड़ी लेकर, साथ में उसके दो और दोस्त भी थे। नीतू मैमुना और प्रमोद मुश्‍ताक के घर चल दिये।
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दिवाली के दिन नजदीक आ गए हैं। हारून आज भी नहीं आया। रंग पता नहीं कब होगा। पत्नी कहने लगी, 'पंद्रह साल हो गए, इस घर का तो मुहूर्त ही पता नहीं कब निकलेगा।' मैंने कहा, 'आज तो ईद है, हारून आज तो आएगा नहीं। ईद के अगले दिन काम लगाने की कह रहा था।' पत्नी बोली, 'तो पूछ लो ना फोन करके, अगर कल शुरू करे तो मैं आज ही सामने वाले दोनों कमरे खाली कर लूं। कंप्यूटर और बेड बाहर के कमरे में जचाना पड़ेगा।' हां भई पूछता हूं, कहकर मैंने हारून को मोबाइल लगाया। घण्टी की जगह ‘हरे रामा हरे कृष्णा' सुनाई पड़ा तो मैंने फोन काट दिया। सोचा, यह रिंगटोन हारून की नहीं हो सकती, शायद गलत नंबर लग गया है। फिर नंबर मिलाया, वही रिंगटोन। मैंने अजय को आवाज दी, वो आया। मैंने कहा कि बेटा जरा हारून का नंबर तो डायरी में देखकर बता। फिर नंबर मिलाया, फिर वही रिंगटोन। उधर फोन रिसीव हुआ और मेरे बोलने से पहले ही उसकी आवाज आई, 'गुरूजी राम राम।' मैंने भी राम-राम कहकर उसे ईद की मुबारकबाद दी। बदले में उसने मुझे ईद मुबारक कहा। मैंने पूछा, 'फोन तो तेरा ही है ना और ये रिंगटोन?' उसने कहा, 'क्यों गुरूजी अच्छी नहीं लगी?' मैंने बात टालने के मकसद से कहा, 'नहीं अच्छी है। हारून तू कल से काम लगा रहा है, तो सामान बाहर निकालना शुरू कर दें?' उसने कहा, 'हां गुरूजी, बाहर निकाल लो, कल सुबह आठ बजे आ जाउंगा।' मैंने कहा, 'ठीक है' और फोन काट दिया।
मैं सामान बाहर निकालने लगा। मैं एक कमरे की अलमारी खाली कर रहा था, इसी कमरे में सामने की तरफ पूजा का स्थान है। मतलब यहीं पर शिवजी और गणेशजी की मूर्तियां हैं। मां दुर्गा, लक्ष्मी और हनुमानजी की तस्वीरें लगी हुईं हैं। मैं कभी पूजापाठ नहीं करता और मेरी पत्नी को इस बात से बहुत शिकायत रहती है। वो है पक्की धार्मिक। स्कूल का दरवाजा नहीं देखा, लेकिन बच्चों की देखरेख करते हुए घर में ही पढ गई, और कुछ नहीं अक्षर तो बांच ही लेती है। कल ही बारह महीनों के व्रत त्योहारों की किताब खरीदी है। वो भी यहीं जमा रखी है।
अलमारी खाली करते हुए मेरी नजर पूजास्थल पर पड़ी। हनुमान जी और दुर्गा जी की तस्वीर के बीच मुझे एक नई तस्वीर नजर आई। हाथ में उठाकर देखी, एक पुराने पोस्टकार्ड पर अखबार की एक रंगीन कतरन चिपकी हुई थी। जिसके शीर्ष पर चांद और सितारे का चित्र और हिंदी और उर्दू में ऊपर-नीचे मोटे अक्षरों में ‘ईद मुबारक' लिखा हुआ था। मेरे हर्ष का पारावार नहीं था।
मैंने वो तस्वीर उठाई और आंगन में आकर पूछा, 'ये तस्वीर किसने लगाई पूजाघर में?'
'मैंने लगाई।' पत्नी के बोल थे। वो मुस्कुराती और मेरा मुंह देखती हुई फिर बोली, 'लेकिन आपको क्या तकलीफ है?'
मुझे क्या तकलीफ हो सकती है और इस बात से किसी को भी क्यों कोई तकलीफ होगी?
कहानी अंश
घर में रुणक है।
आज बेटी नीतू नै आपरी सहेली मैमुना रै घरां जीमण जावणो है। बा त्यारी करै।
इणी बीच म्हानै एक बात चेतै आवै, जकी नीतू री मैडम म्हनै कैयी ही कै नीतू री संगत सुधारो।
म्हैं घणा सवाल-जवाब नीं कर्या हा उण मैडम सूं, पण म्हारी चिंता बधगी ही। आथण घणै हेत सूं नीतू नै वा ओळमं-वाळी बात बताई। सुणर वा तो रोवण लागगी।...
'पापा, मैडम मैमुना खातर कैवै।'
म्हनै अचूंभो हुयो, ...'क्यूं?'
'मैडम नै मुसळमानां रा टाबर आछा कोनी लागै।'
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लेखक परिचय
सत्यनारायण सोनी
जन्म 10 मार्च, 1969
प्रकाशित कृतियां
घमसाण (राजस्थानी कहानी संग्रह), पेडों का पालनहार लादू दादा, पैसों का पेड़, रंग बिरंगे फूल खिले
पुरस्कार-
१. मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई का स्व. घनश्याम दास सराफ सर्वोत्तम राजस्थान साहित्य पुरस्कार- 1997
२. ज्ञान भारती, कोटा का स्व. गोरीशंकर कमलेश राजस्थानी साहित्य पुरस्कार- 1997
३. राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर का पैली पोथी पुरस्कार- 1997
दैनिक नवज्योति के रविवारीय परिशिष्‍ट में 26 जुलाई, 2009 को एक कहानी स्तंभ में प्रकाशित।

6 comments:

  1. कहानी की विवेचना विस्तार से हो तो पाठ खुले। बजाय कहानी अंश के उसके पाठ को खोला जाता तो ज्यादा अच्छा रहता।

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  2. इतनी महत्वपूर्ण कहानी से परिचित करवाने के लिए आपका आभार मानता हूं.

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  3. Prem chand ji aapne kahani se milaya uske liye aabhari hoon

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  4. सोनी जी का मैं भी प्रशंसक हूँ,उनके ब्लॉग 'आपणी भाषा आपणी बात' पर यदा कदा जात रहता हूँ..कहानी बहुत सुन्दर है..विजय गौड़ साब से सहमत हूँ की कहानी का पूरा पाठ खोला जान चाहिए था...
    अच्छी कहानी से परिचय कराने का आभार..
    prakash pakhi

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