राजस्थान के जिन रचनाकारों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता है उनमे हसन जमाल सबसे अलग दिखाई देते हैं। वे अपनी समर्थ लेखनी और साफगोई के चलते अक्सर विवादों में भी छाए रहते हैं। लेकिन एक कथाकार के नाते उनकी रचनाएं पाठकों को बहुत कुछ सोचने-समझने के लिए विवश करती हैं। 21अगस्त, 1942 को जोधपुर में जन्में हसन जमाल पिछले पांच 21 दशकों से अर्थात किशोरावस्था से ही साहित्य-सृजन की दुनिया में सक्रिय हैं। अब तक उनकी नौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और प्रदेश की हिंदी एवं उर्दू अकादमियों से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। पिछले डेढ़ दशक से वे उर्दू-हिंदी की गंगा-जमनी तहजीब की एकमात्र पत्रिका ‘शेष’ का संपादन कर रहे हैं, जिसे बहुत सम्मान के साथ लेखक-पाठकों का प्यार हासिल हुआ है। इस पत्रिका के अबतक 53 अंक निकल चुके हैं। हसन जमाल बहुत अच्छे अनुवादक भी हैं और उनके किये अनुवाद बेहद पसंद कियेगए हैं। उर्दू और हिंदी पर समान अधिकार होने के कारण हसन जमाल की कहानियों में भाषा के लिहाज से एकखास किस्म की रवानी मिलती है जो पाठक को ताजगी का अहसास कराती है। उनकी कहानियों में ‘ चश्मदीद मुजरिम’ एक अलग तरह की कहानी है, जो पहली बार ‘इण्डिया टुडे’ में छपने के बाद खासी चर्चित हुई और फिरइसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। किसी अपराध का गवाह होना कितना कष्टकारी होता है और ऐसे व्यक्ति कोकितनी मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है, इसका जीवंत दस्तावेज है ‘ चश्मदीद मुजरिम’। प्रस्तुत है कहानीका सार-संक्षेप।
मैं कोई बहुत शरीफ आदमी नही हूं। इससे पहले भी मैंने लड़कियों को आदिम लिबास में देखा है, लेकिन हर इंसानकी तरह मैंने भी वैसा दिखने की कोशिश की है, जैसा कि कोई सच में होता नहीं है। ‘बनने’ और ‘होने’ की इसी कशमकश में जिंदगी गुजरती जाती है। इसी ‘होने’ की वजह से मेरा मौका-ए-वारदात पर मौजूद होना संभव हुआ।वे छह थे, मैं सातवां हो सकता था, लेकिन मुझे लगा यह गलत हो रहा है। आपके लिहाज से मैं डरपोक या कायर होसकता हूं। डरपोक नैतिकता की दुहाई ज्यादा देते हैं। लेकिन मैं बुजदिल नहीं था, क्योंकि ऐसे खेल में पहले भीशरीक हो चुका था। इसीलिए जब रणधीर ने एक चिड़िया फंसने की बात कह कर बुलाया तो बहन के सवालियाचेहरे पर निगाह डालने के बाद चुपचाप जीना उतर आया। पता नहीं क्यूं लगा जैसे बहन मेरे साथ हास्टल चली आईथी।
सुनसान हास्टल में वो छह यार थे। उस कमरे का दरवाजा भिड़ा था, जिसे हल्के से धकेलकर मैंने देखा, नग्नलड़की की परकटी चिड़िया की तरह चीखें निकल रही थीं। मनोज उसे दबोचे हुए था। मैंने एक नजर देख दरवाजाबंद कर दिया। आज पहली बार मेरे साथ ऐसा हुआ, मुझे लगा यह गलत हो रहा है। जैसे कोई चोर सोचे कि चोरी करना ठीक नहीं है। उस भयंकर उठापटक में एकबारगी मेरी निगाहें उस लड़की से मिलीं तो सिहर गया था मैं। जैसेमेरी छोटी बहन क्लिक हो गई, वह मेरे साथ ही थी जैसे। ऐसा कभी नहीं हुआ, नशे और जोश में तो कभी नहीं।
बगल वाले कमरे का अधखुला दरवाजा पार कर मैं भीतर गया तो सबकी बांछें खिल गईं। कांच के छोटे-छोटेगिलास थामे वे घबराए-से बैठे थे। रणधीर ने मेरे लिए जगह बनाते हुए कहा, ‘आ बैठ, मन्नू ने देर लगा दी, वेटकरना पड़ेगा। पंडत, एक पेग इसके लिए भी बना, ताकि जिगरा खुल जाए।’ खिड़की में रखी बोतल आधी खाली थी, पास में कंडोम का पैकेट पड़ा था। एड्स का भय। हम डरे, सहमे लोग बड़ों की नजरें बचा कर जिंदगी का मजा़ चुरानेको कामयाबी और एडवेंचर मानते थे। भविष्य में तो अंधेरा ही लिखा था।
मैंने पेग नहीं लिया। इससे पहले ये दोस्त मुझे बेगाने ना लगे। पहली बार मुझे लगा मैं गलत जगह आ गया हूं औरमैं बिना कुछ कहे बाहर निकल आया। रात मुझे अफसोस हुआ कि मैंने बहती गंगा में हाथ क्यों नहीं धोया, खुद कोमैंने खूब धिक्कारा। सुबह के अखबार सामूहिक बलात्कार की खबरों से भरे थे। मैं जूड़ी बुखार में बेसुध था और उसीहालत में पुलिस मुझे ले गई।
लड़की ने बताया कि वे सात थे। वो छह पता नहीं कहां गायब हुए और मैं बिना मशक्कत के पुलिस के हाथ लगगया। पहली बार थर्ड डिग्री से वास्ता पड़ा तो मेरी चूलें हिल गईं, होश फाख्ता हो गए। मेरे तमाम इन्कार के बावजूदमैं कानूनन मुजरिम था, क्योंकि मौका-ए-वारदात पर मौजूद था। दस लाख की आबादी में से मैं ही क्यों मौजूद था, दूसरे तमाम लड़के, चौकीदार, वार्डन और प्रिंसिपल क्यों मौजूद नहीं थे? अब तो अदालत तय करेगी कि मैं मुजरिमथा कि बेकसूर? कानून की सारी जंग झूठ के पुलिंदों में से सच्चाई निकालने में जाया हो जाती है और जो अंत मेंनिकल कर आता है, वो कागज का सच होता है बस।
मैं एक चश्मदीद मुजरिम हूं और मुझे कानून के बारे में यह सब कहने का हक नहीं है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट कीतमाम हिदायतों के बावजूद मुझे उन गुफाओं से गुजरना पड़ा, जहां हरे पन्नों की हवा के बिना इंसान दम घुटने सेमर जाए। उस अंधी गुफा से मुझे पता नहीं किसने बचाया। उस लड़की ने मुझे सातवें के तौर पर पहचान लिया औरमेरी बेगुनाही की गवाही भी दे दी। लेकिन ‘आईओ’ के सामने जो सवाल किया उसका जवाब मेरे पास आज भी नहींहै... ‘इसने मुझे बचाया क्यों नहीं?’
मैं उससे यह तो नहीं कह सकता था कि मैं भी वहां राल टपकाते चला गया था। आज अपने बचाव में खुद कोइन्नोसेंट’ कहना पड़ रहा है, लेकिन मेरा दिल जानता है, मैं कितना इन्नोसेंट था। वो छह थे और मैं बाहरी आदमीथा। ‘ चौकीदार थड़ी पर बीड़ी फूंक रहा था, वार्डन गर्ल फ्रेंड के साथ पिकनिक पर था और प्रिंसिपल राजनीति में मशगूल। मैं क्या कर सकता था। रोज हजारों जुर्म हमारी आंखों के सामने होते हैं, लेकिन हम क्या कर पाते हैं? खैरबाद में पता चला कि रणधीर से लड़की के संबंध पहले से थे। उस दिन कुछ ज्यादती हो गई। दोस्तों का भला करनेके चक्कर में उसकी सारी स्टूडेंट पालिटिक्स डूब गई।
पुलिस उनकी तलाश में मुझे उन सब जगहों पर ले गई जहां वे हो सकते थे। मगर वे सब गायब थे। उनके बस नामरह गए थे। एक हंगामा मचा था और सरकार तथा पुलिस की नाक का सवाल था कि एक भी मुजरिम गिरफ्त मेंनहीं आया। सबसे पहले बंटी पकड़ा गया, फिर मनोज। लगा बाकी भी जल्द पकड़े जाएंगे। अखबारों में इस कांड कीखबरें सिमटती गईं। पुलिस की मिली भगत का रोना रोया गया। रणधीर किसी नेताजी का साला था। उनके फार्महाउस पर छापा मारने की हिम्मत कौन करे? रणधीर के अलावा बाकी तीन भी जल्दी पकड़े गये। पुलिस की जांच में आखिर मामला यह बना कि वे दरअसल पांच ही थे, लड़की का गणित कमजोर था।
चार्जशीट पेश होने के बाद मेरे सर पर और बड़ी बलाएं आ गईं। मेरा चश्मदीद गवाह होना ही सबसे बड़ा जुर्मसाबित हुआ। दोस्त अब दुश्मन हो गए थे। इतना दहशतजदा तो मैं पुलिस हिरासत में भी नहीं था। मुझे धमकियांमिलने लगीं कि मैं दोस्तों के खिलाफ कुछ बोला तो मेरा क्या हश्र होगा। मैं घबराहट में इस-उस रिश्तेदार के यहांपनाह लेने लगा। मेरी जिंदगी अब दोस्तों के रहमोकरम पर थी। पता नहीं कुत्ते-बिल्ली का यह खेल कब तकचलेगा।
ट्रायल शुरु हुई है, लडकी को भरोसा है कि मेरे बयान से उसका केस मजबूत होगा और गुनहगारों को सजा मिलेगी।लेकिन मेरी दहशत रोज बढती जा रही है। मैं खौफजदा हूं और चारों तरफ अंधेरा छाया है। क्या मेरा वहां मौजूदहोना ही सबसे बड़ा जुर्म है? मेरी राय तो यही है कि आप चश्मदीद होने से बचिए, वर्ना आप भी मेरी तरह मुसीबतमें पड़ जाएंगे।
कहानी अंश
उस भयंकर उठापटक में एक पल को मेरी निगाह उस लड़की की आंखों पर जा टिकी थी। मैं ठीक से कह नहींसकता कि उसमें किसी तरह की इल्तिजा थी या मुझे भी मनोज का एक साथी समझकर नफरत से उसने मुझे देखाथा। इतना जरूर याद है कि उससे निगाहें मिलते ही मैं सिहर गया था। जाने क्यों, उस वक्त मेरे सामने छोटी बहनक्लिक हो गई थी। मैं कह चुका हूं, वह मेरे साथ ही थी। अमूमन ऐसा नहीं होता, खास तौर से नशे और जोश कीहालत में।
.....
मुलजिमान के खिलाफ चार्जशीट पेश होने के बाद मैंने यह समझ लिया कि बला टली। लेकिन यह मेरीखामखयाली थी। अब मेरे सर पर ज्यादा बड़ी बलाएं मंडरा रही थीं। मैं चश्मदीद गवाह था और यही मेरा सबसे बड़ाजुर्म साबित हुआ। कल तक जो मेरे दोस्त थे, आज वे दुश्मनों से भी बुरा बरताव कर रहे थे। वे घात में थे और मैंबचाव में। मैं इतना दहशतजदा तो पुलिस कस्टडी में भी न था।
लेखक परिचय
जन्मः 21 अगस्त, 1942 जोधपुर
प्रकाशित कृतियां
बाल-साहित्यः अनाथ, बालिश्त भर दर्द, दीनू की दुनिया
कहानी-संग्रहः कुरान की कहानियां, अंश-अंश-दंश, आबगीना, तीसरा सफर, ये फैसला किसका था और चश्मदीद मुजरिम
पुरस्कार-सम्मानः ‘अनाथ’ को बाल साहित्य प्रतियोगिता में ज्ञानभारती पुरस्कार, लखनउ।
अंश-अंश-दंश’ को राजस्थान ग्रेजुएट सर्विस एसोसियेशन , मुंबई द्वारा सम्मान।मैं कोई बहुत शरीफ आदमी नही हूं। इससे पहले भी मैंने लड़कियों को आदिम लिबास में देखा है, लेकिन हर इंसानकी तरह मैंने भी वैसा दिखने की कोशिश की है, जैसा कि कोई सच में होता नहीं है। ‘बनने’ और ‘होने’ की इसी कशमकश में जिंदगी गुजरती जाती है। इसी ‘होने’ की वजह से मेरा मौका-ए-वारदात पर मौजूद होना संभव हुआ।वे छह थे, मैं सातवां हो सकता था, लेकिन मुझे लगा यह गलत हो रहा है। आपके लिहाज से मैं डरपोक या कायर होसकता हूं। डरपोक नैतिकता की दुहाई ज्यादा देते हैं। लेकिन मैं बुजदिल नहीं था, क्योंकि ऐसे खेल में पहले भीशरीक हो चुका था। इसीलिए जब रणधीर ने एक चिड़िया फंसने की बात कह कर बुलाया तो बहन के सवालियाचेहरे पर निगाह डालने के बाद चुपचाप जीना उतर आया। पता नहीं क्यूं लगा जैसे बहन मेरे साथ हास्टल चली आईथी।
सुनसान हास्टल में वो छह यार थे। उस कमरे का दरवाजा भिड़ा था, जिसे हल्के से धकेलकर मैंने देखा, नग्नलड़की की परकटी चिड़िया की तरह चीखें निकल रही थीं। मनोज उसे दबोचे हुए था। मैंने एक नजर देख दरवाजाबंद कर दिया। आज पहली बार मेरे साथ ऐसा हुआ, मुझे लगा यह गलत हो रहा है। जैसे कोई चोर सोचे कि चोरी करना ठीक नहीं है। उस भयंकर उठापटक में एकबारगी मेरी निगाहें उस लड़की से मिलीं तो सिहर गया था मैं। जैसेमेरी छोटी बहन क्लिक हो गई, वह मेरे साथ ही थी जैसे। ऐसा कभी नहीं हुआ, नशे और जोश में तो कभी नहीं।
बगल वाले कमरे का अधखुला दरवाजा पार कर मैं भीतर गया तो सबकी बांछें खिल गईं। कांच के छोटे-छोटेगिलास थामे वे घबराए-से बैठे थे। रणधीर ने मेरे लिए जगह बनाते हुए कहा, ‘आ बैठ, मन्नू ने देर लगा दी, वेटकरना पड़ेगा। पंडत, एक पेग इसके लिए भी बना, ताकि जिगरा खुल जाए।’ खिड़की में रखी बोतल आधी खाली थी, पास में कंडोम का पैकेट पड़ा था। एड्स का भय। हम डरे, सहमे लोग बड़ों की नजरें बचा कर जिंदगी का मजा़ चुरानेको कामयाबी और एडवेंचर मानते थे। भविष्य में तो अंधेरा ही लिखा था।
मैंने पेग नहीं लिया। इससे पहले ये दोस्त मुझे बेगाने ना लगे। पहली बार मुझे लगा मैं गलत जगह आ गया हूं औरमैं बिना कुछ कहे बाहर निकल आया। रात मुझे अफसोस हुआ कि मैंने बहती गंगा में हाथ क्यों नहीं धोया, खुद कोमैंने खूब धिक्कारा। सुबह के अखबार सामूहिक बलात्कार की खबरों से भरे थे। मैं जूड़ी बुखार में बेसुध था और उसीहालत में पुलिस मुझे ले गई।
लड़की ने बताया कि वे सात थे। वो छह पता नहीं कहां गायब हुए और मैं बिना मशक्कत के पुलिस के हाथ लगगया। पहली बार थर्ड डिग्री से वास्ता पड़ा तो मेरी चूलें हिल गईं, होश फाख्ता हो गए। मेरे तमाम इन्कार के बावजूदमैं कानूनन मुजरिम था, क्योंकि मौका-ए-वारदात पर मौजूद था। दस लाख की आबादी में से मैं ही क्यों मौजूद था, दूसरे तमाम लड़के, चौकीदार, वार्डन और प्रिंसिपल क्यों मौजूद नहीं थे? अब तो अदालत तय करेगी कि मैं मुजरिमथा कि बेकसूर? कानून की सारी जंग झूठ के पुलिंदों में से सच्चाई निकालने में जाया हो जाती है और जो अंत मेंनिकल कर आता है, वो कागज का सच होता है बस।
मैं एक चश्मदीद मुजरिम हूं और मुझे कानून के बारे में यह सब कहने का हक नहीं है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट कीतमाम हिदायतों के बावजूद मुझे उन गुफाओं से गुजरना पड़ा, जहां हरे पन्नों की हवा के बिना इंसान दम घुटने सेमर जाए। उस अंधी गुफा से मुझे पता नहीं किसने बचाया। उस लड़की ने मुझे सातवें के तौर पर पहचान लिया औरमेरी बेगुनाही की गवाही भी दे दी। लेकिन ‘आईओ’ के सामने जो सवाल किया उसका जवाब मेरे पास आज भी नहींहै... ‘इसने मुझे बचाया क्यों नहीं?’
मैं उससे यह तो नहीं कह सकता था कि मैं भी वहां राल टपकाते चला गया था। आज अपने बचाव में खुद कोइन्नोसेंट’ कहना पड़ रहा है, लेकिन मेरा दिल जानता है, मैं कितना इन्नोसेंट था। वो छह थे और मैं बाहरी आदमीथा। ‘ चौकीदार थड़ी पर बीड़ी फूंक रहा था, वार्डन गर्ल फ्रेंड के साथ पिकनिक पर था और प्रिंसिपल राजनीति में मशगूल। मैं क्या कर सकता था। रोज हजारों जुर्म हमारी आंखों के सामने होते हैं, लेकिन हम क्या कर पाते हैं? खैरबाद में पता चला कि रणधीर से लड़की के संबंध पहले से थे। उस दिन कुछ ज्यादती हो गई। दोस्तों का भला करनेके चक्कर में उसकी सारी स्टूडेंट पालिटिक्स डूब गई।
पुलिस उनकी तलाश में मुझे उन सब जगहों पर ले गई जहां वे हो सकते थे। मगर वे सब गायब थे। उनके बस नामरह गए थे। एक हंगामा मचा था और सरकार तथा पुलिस की नाक का सवाल था कि एक भी मुजरिम गिरफ्त मेंनहीं आया। सबसे पहले बंटी पकड़ा गया, फिर मनोज। लगा बाकी भी जल्द पकड़े जाएंगे। अखबारों में इस कांड कीखबरें सिमटती गईं। पुलिस की मिली भगत का रोना रोया गया। रणधीर किसी नेताजी का साला था। उनके फार्महाउस पर छापा मारने की हिम्मत कौन करे? रणधीर के अलावा बाकी तीन भी जल्दी पकड़े गये। पुलिस की जांच में आखिर मामला यह बना कि वे दरअसल पांच ही थे, लड़की का गणित कमजोर था।
चार्जशीट पेश होने के बाद मेरे सर पर और बड़ी बलाएं आ गईं। मेरा चश्मदीद गवाह होना ही सबसे बड़ा जुर्मसाबित हुआ। दोस्त अब दुश्मन हो गए थे। इतना दहशतजदा तो मैं पुलिस हिरासत में भी नहीं था। मुझे धमकियांमिलने लगीं कि मैं दोस्तों के खिलाफ कुछ बोला तो मेरा क्या हश्र होगा। मैं घबराहट में इस-उस रिश्तेदार के यहांपनाह लेने लगा। मेरी जिंदगी अब दोस्तों के रहमोकरम पर थी। पता नहीं कुत्ते-बिल्ली का यह खेल कब तकचलेगा।
ट्रायल शुरु हुई है, लडकी को भरोसा है कि मेरे बयान से उसका केस मजबूत होगा और गुनहगारों को सजा मिलेगी।लेकिन मेरी दहशत रोज बढती जा रही है। मैं खौफजदा हूं और चारों तरफ अंधेरा छाया है। क्या मेरा वहां मौजूदहोना ही सबसे बड़ा जुर्म है? मेरी राय तो यही है कि आप चश्मदीद होने से बचिए, वर्ना आप भी मेरी तरह मुसीबतमें पड़ जाएंगे।
कहानी अंश
उस भयंकर उठापटक में एक पल को मेरी निगाह उस लड़की की आंखों पर जा टिकी थी। मैं ठीक से कह नहींसकता कि उसमें किसी तरह की इल्तिजा थी या मुझे भी मनोज का एक साथी समझकर नफरत से उसने मुझे देखाथा। इतना जरूर याद है कि उससे निगाहें मिलते ही मैं सिहर गया था। जाने क्यों, उस वक्त मेरे सामने छोटी बहनक्लिक हो गई थी। मैं कह चुका हूं, वह मेरे साथ ही थी। अमूमन ऐसा नहीं होता, खास तौर से नशे और जोश कीहालत में।
.....
मुलजिमान के खिलाफ चार्जशीट पेश होने के बाद मैंने यह समझ लिया कि बला टली। लेकिन यह मेरीखामखयाली थी। अब मेरे सर पर ज्यादा बड़ी बलाएं मंडरा रही थीं। मैं चश्मदीद गवाह था और यही मेरा सबसे बड़ाजुर्म साबित हुआ। कल तक जो मेरे दोस्त थे, आज वे दुश्मनों से भी बुरा बरताव कर रहे थे। वे घात में थे और मैंबचाव में। मैं इतना दहशतजदा तो पुलिस कस्टडी में भी न था।
लेखक परिचय
जन्मः 21 अगस्त, 1942 जोधपुर
प्रकाशित कृतियां
बाल-साहित्यः अनाथ, बालिश्त भर दर्द, दीनू की दुनिया
कहानी-संग्रहः कुरान की कहानियां, अंश-अंश-दंश, आबगीना, तीसरा सफर, ये फैसला किसका था और चश्मदीद मुजरिम
पुरस्कार-सम्मानः ‘अनाथ’ को बाल साहित्य प्रतियोगिता में ज्ञानभारती पुरस्कार, लखनउ।
‘तीसरा सफर’ को राज. साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा रांगेय राघव कथा पुरस्कार।
राज. उर्दू अकादमी और राज. वक्फ बोर्ड द्वारा सम्मानित।
wonderful story and superb presentation
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति से अन्दाज़ा लगता है कि कहानी कितनी ज़बर्दस्त होगी. आपका धन्यवाद करना चाहता हूं इस बेहद सशक्त कहानी से रू-ब-रू करवाने के लिए.
ReplyDeleteयह कहानी पहले भी पढ़ी थी। न जाने क्यूँ मुझे यह जबरदस्त नहीं लगी। इसमें शायद लेखक या कहानी का दोष नहीं है। दोष उस सच्चाई का है जिससे मैं पूरी तरह वाकिफ हूँ, यह सत्य घटना पर आधारित कहानी है एक ऐसा सत्य जो जुगुप्सा जगाता है जितना भयावह यह सत्य है उसका अंश भी इस कहानी में नहीं आ पाया है। ईश्वर ऐसी सच्चाईयों से ! कहानी जो कहती है सच्चाई उसके विपरीत भी बयान देती है।
ReplyDeletebahut badiyaa kahaani hai aur ye bilkul sahee baat hai gavah hona bhi akasa gunaah ban jaataa hai lekhak badhai ke patar hain aabhaar
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