Sunday 6 February, 2011

बसंत और उल्‍काएं

तीन बाई दो की उस पथरीली बेंच पर

तुमने बैठते ही पूछा था कि

बसन्त से पहले झड़े हुए पत्तों का

उल्काओं से क्या रिश्ता है

पसोपेश में पड़ गया था मैं यह सोचकर कि

उल्काएँ कौनसे बसंत के पहले गिरती हैं कि

पृथ्वी के अलावा सृष्टि में और कहाँ आता है बसन्त

चंद्रमा से पूछा मैंने तो उसने कहा

‘मैं तो ख़ुद रोज़-रोज़ झड़ता हूँ

मेरे यहाँ हर दूसरे पखवाड़े बसन्त आता है

लेकिन उल्काओं के बारे में नहीं जानता मैं’

पृथ्वी ने भी ऐसा ही जवाब दिया

‘मैं तो ख़ुद एक टूटे हुए तारे की कड़ी हूँ

उल्काओं के बारे में तो जानती हूँ मैं

लेकिन बसंत से उनका रिश्ता मुझे पता नहीं’

एक गिरती हुई उल्का ने ही

तुम्हारे सवाल का जवाब दिया

‘ब्रह्माण्ड एक वृक्ष है और ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र उसकी शाखाएँ हैं

हम जैसे छोटे सितारे उसके पत्ते हैं

पृथ्वी पर जब बसन्त आता है तो

हम देखने चले आते हैं

झड़े हुए पत्ते हमारे पिछले बरस के दोस्त हैं’



आओ हम दोनों मिलकर

इस बसंत में आयी हुई उल्काओं का स्वागत करें

4 comments:

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  2. क्या खूब बात कही है...

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  3. बहुत सुंदर बसंत स्वागत ...जीवंत वर्णन ....

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  4. भाई साब प्रणाम !
    बसंत ऋतु की एक हट कर कविता पढने को मिली , मगर कवि महोदय कौन है उनका नाम नहीं दिखा ,फिर भी एक अच्छी कविता के लिए आप का और कवि महोदय को साधुवाद !
    आभार !

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