
भ्रष्टाचार भारत सहित तीसरी दुनिया में खास तौर एशियाई देशों में एक विकराल समस्या है, जिससे आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा परेशान है। सभी देशों में इससे निपटने के कानून भी बने हुए हैं, बावजूद इसके भ्रष्टाचार रुकने का नाम नहीं ले रहा। भारत में ही देखा जाए तो बैंकिंग और बीमा सहित अनेक सेवा क्षेत्रों में तथा बहुत से राज्यों में लोकपाल और लोकायुक्त काम कर रहे हैं। इसके साथ ही विभिन्न विभागों में सतर्कता अधिकारी भी यही भूमिका निभा रहे हैं। बावजूद इसके आए दिन इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की खबरें आती रहती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि लोकपाल, लोकायुक्त या सतर्कता अधिकारी कोई निष्क्रिय संस्था है। इन संस्थाओं के होने मात्र से आम जनता में यह विश्वास गहरा होता है कि इस व्यवस्था में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक जगह है, जहां से न्याय मिलने की उम्मीद की जा सकती है। मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में 1966 में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने केंद्रीय स्तर पर जनलोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्त की द्विस्तरीय व्यवस्था के लिए सिफारिश की थी। 1968 से लोकपाल और लोकायुक्त के लिए संसद और विधान सभाओं में कई विधेयक पारित हुए हैं। लेकिन केंद्रीय स्तर पर जनलोकपाल गठित करने की दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। वर्तमान में चल रहे अन्ना हजारे के आंदोलन में यही मांग है कि देश में केंद्रीय स्तर पर जनलोकपाल के रूप में एक ऐसी नियामक संस्था गठित कर दी जाए जो जनप्रतिनिधियों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगा सके। पिछले कुछ सालों से यह लगातार देखने में आया है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार कर बच निकलते हैं। इसी तरह न्यायपालिका में भी व्यापक भ्रष्टाचार फैला हुआ है, जिसे काबू करना वर्तमान परिस्थितियों में बहुत मुश्किल नजर आता है। अगर जनलोकपाल जैसी एक नियामक संस्था हो तो जनप्रतिनिधियों और न्यायपालिका को कुछ हद तक दुरुस्त किया जा सकता है।
लेकिन पहला सवाल यहीं से उठता है कि क्या संसद और न्यायपालिका के भ्रष्टाचार से आम आदमी का कोई लेना देना है जो इतनी बड़ी संख्या में लोग अन्ना के समर्थन में सड़कों पर आ रहे हैं। दरअसल आम आदमी जिस भ्रष्टाचार से परेशान है वह जनलोकपाल से नहीं खत्म होने वाला। साधारण नागरिक को शायद ही कभी किसी जनप्रतिनिधि या न्यायपालिका के उच्च स्तर पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता हो। जनता के पास उस भ्रष्ट मशीनरी से लड़ने के लिए पहले से ही बहुत से विकल्प लोकतंत्र में मौजूद हैं। लेकिन हमारा समाज बहुधा भीड़ की मानसिकता से चलता है। उसे लगता है कि अन्ना के आंदोलन में भाग लेने से राशन वाला भी ठीक किया जा सकता है, इसलिए वह उसके साथ हो लेता है। इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार चाहे जिस स्तर पर हो, उसका परिणाम अंतत: आमजन को भोगना होता है। इसलिए उसकी भागीदारी को निरुद्देश्य भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जनता के इस व्यापक उभार को चलाने वाली शक्तियां और भी हैं, जिनकी तरफ इधर ध्यान नहीं दिया जा रहा। सोचिए कि जनलोकपाल के गठन से सर्वाधिक लाभ किसे होगा? देश की सर्वोच्च मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार से कौन सबसे ज्यादा परेशान है? और जब खुद अन्ना हजारे कह चुके हैं कि जनलोकपाल के गठन से भ्रष्टाचार शत प्रतिशत नहीं साठ प्रतिशत तक कम हो सकेगा। यानी चालीस प्रतिशत भ्रष्टाचार तो फिर भी मौजूद रहेगा। इसका सीधा अर्थ हुआ कि सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को चालीस फीसदी का फायदा या नुकसान होगा। अब शायद उन लोगों की पहचान आसान हो जाएगी जिन्हें इस विधेयक के पारित होने से लाभ होगा।
हाल ही हुए टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में हम देख चुके हैं कि ए. राजा और उनके साथियों ने सैंकड़ों करोड़ का घोटाला किया। जाहिर है जनलोकपाल के गठन के बाद इस घोटाले में साठ फीसद कमी आएगी। यानी जनप्रतिनिधियों को चालीस प्रतिशत कम मिलेगा और यही न्यायपालिका के उच्च पदों पर पदस्थ लोगों के साथ होगा। इस प्रकार देश का एक वर्ग जो अब तक उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार से दुखी है, उसे साठ प्रतिशत का मुनाफा होगा और यह ध्यान में रखिए कि ये आम आदमी नहीं हैं। ये लोग ही आम जनता को अपने लाभ के लिए अन्ना के आंदोलन के लिए तैयार कर रहे हैं, एसएमएस-ईमेल आदि किए जा रहे हैं।
लेकिन सरकार ने जनलोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया है वह जनप्रतिनिधियों और न्यायपालिका को इसके दायरे से बाहर रखता है। इस तरह सरकार ने जनलोकपाल के नाम पर एक सामान्य सी संस्था बनाने का इरादा किया है जो महज फोन-इंटरनेट के जरिये होने वाली बातचीत और संदेशों की निगरानी करेगी। जाहिर है सरकार का इरादा ही नहीं है कि न्यूजीलैंड और अन्य देशों की तरह कोई सर्वोच्च लोकपाल का गठन हो। सरकार के नुमाइंदे कतई नहीं चाहते कि कोई उन पर निगरानी करने वाली संस्था बने। इसके लिए उनके पास अपने तर्क हैं कि संविधान में संसद और न्यायपालिका के पास सर्वोच्च अधिकार सुरक्षित हैं और संसद से ऊपर कुछ नहीं हो सकता। लेकिन हमारे संविधाननिर्माताओं ने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी कि इस देश में एक दिन ऐसा भी आएगा, जब चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर भी लगाम कसने की जरूरत आन पड़ेगी। इसलिए जनता में जो चेतना जाग्रत हुई है वह हमारे देश के लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ संकेत है कि वक्त आने पर वह उठ खड़ी हो सकती है।
लेकिन इस आंदोलन को सरकारी मशीनरी ने जिस ढंग से निपटाने की कोशिश की है, वह निरंतर सरकार को हास्यास्पद बनाती गई है। एक बहुमतों के वाली सरकार के पास इससे बेहतर विकल्प थे, जिनसे वह आराम से आंदोलन से निपट सकती थी। मसलन सरकार चाहती तो टीम अन्ना के साथ मिलकर उनकी भावनाओं के अनुरूप जनलोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर सकती थी। जब विधेयक संसद में रखा जाता तो वह बहस के जरिए उसे खारिज या पारित करवा सकती थी, क्योंकि उनके पास बहुमत है। अगर विधेयक सरकार की मंशाओं के अनुरूप नहीं भी होता तो राष्ट्रपति से भी वापस करवाने का मौका तो सरकार के पास था ही। लेकिन सरकार ने ऐसे विकल्पों पर विचार करने के बजाय दमनकारी तरीकों से आंदोलन से निपटने का रास्ता अख्तियार किया जो जन आक्रोश का बायस बना। हमारे खबरिया चैनलों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया और पंद्रह अगस्त के दिनों में मध्यवर्ग में जागने वाली देशभक्ति की भावना को व्यक्त करने का अवसर मिल गया।
अब जबकि सरकार और टीम अन्ना के बीच अनशन और आंदोलन को लेकर समझौता हो चुका है, यह साफ हो गया है कि जनलोकपाल के नाम पर सरकार अपनी पसंद का विधेयक ही लाएगी और भ्रष्टाचार मुक्ति के नाम पर महज लीपापोती की कार्यवाही होगी। जहां तक आंदोलन की बात है, वह भी अब अधिक चलने वाला नहीं है, क्योंकि मध्यवर्ग के दम पर आप कोई लंबा आंदोलन नहीं चला सकते। हालांकि मध्यवर्ग ही है जो इतिहास में क्रांतिकारी भूमिका निभाता आया है, लेकिन तभी जब वह अपने से नीचे के लोगों के आंदोलन में साथ दे। दुर्भाग्य से यह आंदोलन मध्यवर्ग के बीच ही सिमटा हुआ है, जिसमें वास्तविक जन कहीं नहीं है। इसलिए वह आधे दिन के अवकाश, बाजार बंद, रैली, प्रदर्शन, प्रभात फेरी, मोमबत्ती जलाना तो सुविधाजनक रूप से कर सकता है, लेकिन गरीब किसान और मजदूर की तरह बेमियादी आंदोलन नहीं कर सकता। बदली हुई परिस्थितियों में मध्यवर्ग सांकेतिक आंदोलन से अधिक कुछ भी करने में असमर्थ है, क्योंकि उसके पास ना तो समय है और न ही सब कुछ दांव पर लगाने की सामर्थ्य।
भ्रष्टाचार एक गंभीर चुनौती है लेकिन कानून बना कर इसे खत्म नहीं किया जा सकता। जब सड़क पर वाहन चलाने के नियमों का ही पालन नहीं होता तो जनलोकपाल या कोई भी नियामक संस्था कैसे भ्रष्टाचार खत्म करेगी? भ्रष्ट या अनैतिक होना अब इस देश में व्यक्तिगत तौर पर ही संभव रह गया है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही ऐसा है कि हमारे लिए किसी भी सीमा तक नैतिक पतन एक सामान्य बात हो गई है। इतने बड़े घोटाले हो चुके हैं और हो रहे हैं कि सब कुछ सामान्य लगता है। राजनीति ने भ्रष्टाचार को नैतिक बना दिया है। जो भ्रष्ट नहीं है, वही आज अनैतिक या कि मिसफिट है। चुनाव आयोग की तमाम कवायद के बावजूद चुनावों में सिर्फ धनबल या बाहुबल से ही जीतना संभव रह गया है। ऐसे में कोई लोकपाल भी क्या कर लेगा? क्योंकि जब सरकार ने साफ कर दिया है कि वह अपने से ऊपर कोई नियंत्रक नहीं चाहती तो यह भी साफ है कि भ्रष्टाचार के बारे में पूरी गंभीरता से चिंता व्यक्त करती सरकार को ग़म तो बहुत है मगर अफसोस के साथ। और अफसोस कि इस देश में मध्यवर्ग की कथित दूसरी आजादी का स्वप्न अधूरा है। मध्यवर्ग के लिए अफसोस व्यक्त करने का मुख्य कारण यह कि उसे राजधानी में गरीब, मजदूर, आदिवासियों, कर्मचारियों और किसानों के बुनियादी सवालों पर होने वाले धरने या प्रदर्शन से सिर्फ ट्रेफिक जाम की चिंता सताती है और जिस आंदोलन में संघी-भाजपाई कूद पड़ें वह देशभक्ति साबित करने का बायस बन जाता है।