Sunday, 9 August 2009

विरोध तो हमको करना ही होगा


हबीब तनवीर के बहुचर्चित नाटक ‘चरणदास चोर’ पर छत्‍तीसगढ सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। सतनामी समाज के गुरू बालदास जी की मांग थी कि इसे प्रतिबंधित किया जाए। सरकार किसी धर्मगुरू को नाराज नहीं करना चाहती इसलिए तुरंत मांग पूरी कर दी। अंग्रेजों के बनाए कानून ड्रामेटिक परफार्मेंस एक्‍ट 1876 को भारत ही नहीं पाकिस्‍तान तक में जब चाहे कलाकारों पर लागू करते हुए अभिव्‍यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। उसी काले कानून को छत्‍तीसगढ सरकार ने ‘चरणदास चोर’ पर लगा दिया, जैसे इस नाटक से पता नहीं क्‍या हंगामा मच जाएगा। पिछले पैंतीस बरसों में इसके सैंकड़ों राष्‍ट्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय प्रदर्शन हुए होंगे, कई तो खुद सरकारों ने आयोजित किए होंगे, लेकिन किसी को आपत्ति नहीं हुई। लगता है गुरू बालदास को कोई आकाशवाणी हुई होगी और रमन सरकार ने उसे मानते हुए राष्‍ट्रहित में कदम उठाते हुए यह पुण्‍य काम किया होगा। अब आराम से धर्म की ध्‍वजा फहरेगी और देश आगे बढेगा।

इस ब्रिटिश कानून को रद्द करने के लिए कई बार लिखा जा चुका है, लेकिन कुछ नहीं हुआ। एक बार मैंने सांसद, अभिनेता राज बब्‍बर से भी इस बारे में कहा था, उन्‍होंने आश्‍वासन दिया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। 16 अगस्‍त, 2005 को फिरोजाबाद सुरक्षित सीट से चुने गए सपा सांसद रामजी लाल सुमन ने लोकसभा में इस कानून को रद्द करने की मांग की थी, उसके बाद आज तक लोकसभा में किसी ने इस पर चर्चा नहीं की। 2001 में बांग्‍लादेश में इस कानून को रद्द कर दिया गया। पाकिस्‍तान में तो आए दिन सरकार कलाकारों को इस कानून से हांकती रहती है।
किसी नाटक के प्रदर्शन से सरकार पैंतीस साल बाद खफा होती है तो इसे क्‍या कहा जाए। गुरू बालदास ने 2004 में प्रतिबंध की मांग की थी और पांच साल बाद, हबीब साहब की मौत के बाद, सरकार ने रद्दी की टोकरी से मांग निकाल कर पूरी कर दी। चरणदास चोर ने प्रतिज्ञा की थी कि वह जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोलेगा, इसीलिए उसकी जान चली गई। सतनामी गुरू और प्रदेश सरकार की शायद यही मंशा रही हो कि अब इस संदेश की कोई जरूरत नहीं है, लोगों को झूठ बोलने की आजादी होनी चाहिए। इसलिए नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस पर जनसंस्‍कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्‍ण ने जो प्रतिक्रिया की है, उसे ध्‍यान में रखते हुए मेरा मानना है कि इसका व्‍यापक विरोध होना चाहिए। विरोध तो हमको करना ही होगा, क्‍योंकि बकौल फैज़ अहमद फैज़,
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्‍म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख कि आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख हैं आहन
खुलने लगे क़ुफलों के दहाने
फैला हर इक ज़ंज़ीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक्‍त बहुत है
जिस्‍म-ओ-ज़ुबां की मौत से पहले
बोल कि सच जि़ंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

3 comments:

  1. pata nahi sarkar kis kis cheez par pratibandh lagayegiiiiiiiiiiiiii

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  2. यह शर्मनाक है और भयानक भी.

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  3. सिर्फ चरणदास चोर पर ही चिंता क्यों....??
    अभी हाल ही में पाठ्य पुस्तकों से पुराने प्रतिष्ठित लेखकों की किताबों के अंश भी तो हटाये गए थे... लेखन में सामाजिक परिवेश का जिक्र ना हो तो वह प्रासंगिक कैसे होगा ...और परिपाटी चल निकली है जिस किसी भी संप्रदाय या वर्ण से सम्बंधित लेखन होगा ...{एक इंसान के रूप में अपनी पहचान तो हम कबकी स्वाहा कर चुके} वे सब विरोध करेंगे ...इसी लिए जला दीजिये सारी साहित्यिक रचनाएँ .. ये लिखेंगे फिर से सबकुछ नया...!!

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