Saturday, 15 August 2009

प्रतिबंध तो है



‘चरणदास चोर’ को लेकर प्रतिबंध की बात जहां से शुरू हुई थी, वह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण थी, इसलिए कि छत्तीसगढ़ सरकार के किसी नुमाइंदे ने इसका प्रतिवाद नहीं किया कि सरकार ने नाटक पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। जब यह खबर अंग्रेजी अखबारों में छपी और इसके विरोध में बुद्धिजीवी, कलाकारों, साहित्य्कारों और संस्कृतिकर्मियों ने आवाज उठाई तब छत्तीसगढ़ सरकार माउण्ट आबू में ‘राजयोग’ कर रही थी। जहां तक मेरी जानकारी है, सरकार की ओर से इतने विरोध प्रदर्शन के बावजूद कुछ भी नहीं कहा गया है। निश्चय ही यह बेहद दुखद है। इस प्रकरण में सबसे पहले रविवार डॉट कॉम में राजेश अग्रवाल ने खुलासा किया और बताया कि ‘चरणदास चोर’ नाटक पर छत्तीसगड में कोई प्रतिबंध नहीं है। इतना अवश्य है कि राज्ये के सरकारी स्कूलों में पुस्तक वाचन कार्यक्रमों में इस किताब के वाचन पर प्रतिबंध है।
इस पूरे प्रकरण पर प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश ने भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। लेकिन कबाड़खाना में अशोक पाण्डे ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस नाटक की भूमिका का एक अंश पोस्ट कर इस बात की ताईद की है कि हबीब साहब सतनामी समुदाय के प्रति कितना गहरा प्रेम रखते थे। सतनामी गुरू बालदास की यह आपत्ति स्वाभाविक है कि इस भूमिका में सतनामी पंथ के आदिगुरू घासीदास को डाकू बताया गया है।
दरअसल सभी समुदायों और पंथों में आजकल एक नई धारा चल पड़ी है कि इतिहास का पुनर्लेखन किया जाए और इसे शुद्ध बनाया जाए। इस शुद्धतावादी आंदोलन में अपने इतिहास पुरूषों को महानायक बनाया जा रहा है और ज्ञात-अज्ञात गुरू महात्माओं की रचना की जा रही है। दलित, वंचित और आदिवासी समुदाय इसमें सबसे आगे हैं। क्यों कि सवर्णों के लिखे इतिहास में अधिकांश दलित-आदिवासी गुरू चोर-डाकू-लुटेरे बताए गए हैं। कोई भी समाज अपने आदर्शों को इस रूप में नहीं देखना चाहता। छत्तीसगढ़ के शिक्षा विभाग को इस नाटक के वाचन पर प्रतिबंध लगाने की बजाय भूमिका से इस वाक्यांश को विलोपित करने का आदेश देना चाहिए था। लेकिन हमारे देश में सब जगह नीम हकीम हैं जो रोग ठीक करने के स्थान पर पुराने जर्राह की तरह अंग काटना उपायुक्त समझते हैं।
अब भी समय है, सरकार को चाहिए कि इस गलती को दुरूस्त कर दिया जाए, ताकि विद्यार्थियों को एक अच्छा नाटक पढने-सुनने को मिलता रहे।
मुझे यह पोस्ट लिखने के लिए ब्लॉगर मित्र वाणी शर्मा ने प्रेरित किया। उनके प्रति कृतज्ञता स्वरूप ही लिखी गई यह पोस्ट‍ उन्हीं को समर्पित है।
(इस पोस्ट में रविवार, कबाड़खाना और उदय प्रकाश के लिंक पढने के लिए रेखांकित टेक्स्ट को क्लिक करें, जो नीले रंग में है।)

2 comments:

  1. दिनेश शर्मा16 August 2009 at 1:35 pm

    कुछ आत्माओं को प्रतिबंध से ही चैन मिल सकता है अतः वह नहीं हो तब भी होना तो चाहिये।

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  2. समाज का एक विशेष तबका उपेक्षित और प्रताडित रहा है ...इसमें किसी को क्या संदेह हो सकता है...मगर मुआवजे के तौर पर साहित्यिक रचनाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये ..यह उचित नहीं है ...आखिर ये रचनाएँ उस समय की सामाजिक दशा को ही तो निरुपित करती हैं ...पुरानी रचनाओं में फेर बदल करना अथवा उन पर प्रतिबन्ध लगाने से बेहतर क्या यह नहीं होगा ...की हम समाज के इस उत्तरोतर विकास को इंगित करता नया साहित्य लिखें ..जो हमारी भावी पीढी को समाज के क्रमिक विकास से अवगत करा सके ... लेख को मुझे समर्पित किये जाने के लिए बहुत धन्यवाद...मेरे अल्पज्ञान ने आपको प्रेरित किया ...आपका बड़प्पन है ...
    आभार ..!!

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