भारत में जिन विश्वविख्यात साहित्यकारों को बेहद आत्मीयता के साथ जाना जाता है, उनमें मेक्सिकन कवि ऑक्टोविया पाज का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि वे भारत में मेक्सिको के राजदूत रहे और दूसरा यह कि भारतीय दर्शन, परंपरा और संस्कृति को आत्मसात कर पाज ने विश्व कविता को उस शिखर पर प्रतिष्ठित किया, जहां उन्हें भारतीय मूल्यों के संवाहक के रूप में जाना गया। 1990 में जब पाज को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि वे इसके स्वाभाविक हकदार थे।
31 मार्च, 1914 को जन्मे आक्टोविया पाज को साहित्य विरासत में मिला था। इनके नाना आइरिनियो पाज खुद एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, उपन्यासकार और प्रकाशक थे। आक्टोविया पाज का बचपन अपने ननिहाल में बीता, जहां नाना की विशाल लाइब्रेरी में वे क्लासिकी मेक्सिकन और यूरोपियन साहित्य में डूबे रहते थे। बचपन के इसी अध्ययन और किताबी सोहबत का असर था कि मात्र सत्रह साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ और दो साल बाद दूसरा संग्रह आया। तेइस साल की उम्र में पाज ने अपनी कानून की पढ़ाई छोड़ दी और मेरिदा जाकर किसान और मजदूरों के बच्चों के स्कूल में जाकर पढाने लगे। इसी वर्ष उन्हें फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का निमंत्रण मिला और स्पेन के गृह युद्ध के उन दिनों में भी वे बेखौफ होकर गए। लौटकर पाज ने ‘टालर’ अर्थात् ‘कार्यशाला’ नामक पत्रिका निकाली और 24 की उम्र में एलेना गैरो से विवाह किया। इस विवाह से एक पुत्री का जन्म हुआ। 1959 में उनका तलाक हो गया।
1943 में पाज को प्रतिष्ठित गगनहेम फैलोशिप से नवाजा गया और वे बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पढने चले गए। दो साल बाद वे मेक्सिको की राजनयिक सेवा में चले गए जिसमें उन्हें पहले अमेरिका और फिर पेरिस भेजा गया। पेरिस प्रवास के दौरान पाज ने मेक्सिकन अस्मिता और विचार को लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लेबरिंथ आफ सॉलिट्यूड’ लिखी। 1952 में वे पहली बार भारत आए और यहां के साहित्य, संस्कृति और दर्शन से बेहद प्रभावित हुए। सेवाकाल में कई देशों में प्रवास करते हुए 1962 में पाज भारत में मेक्सिको के राजदूत नियुक्त हुए। यहां रहते हुए उन्होंने कविता लिखने के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। इनमें ‘द मंकी ग्रामेरियन’ और ‘ईस्टर्न स्लोप’ प्रमुख हैं। भारत में वे बंगाल की ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के संपर्क में आए और उन पर जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा। बांग्ला से शुरू हुआ ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के इस आंदोलन का मुख्य नारा था कि साहित्य, कला और संस्कृति को उपनिवेशवादी विचारों से मुक्त कराया जाए और पाठक की चेतना को झकझोर देने वाले ऐसे साहित्य का सृजन किया जाए कि नई सोच और मानसिकता का निर्माण हो। यह आंदोलन बांग्ला से चलकर हिंदी, मराठी, असमिया, तेलुगू और उर्दू में भी जबर्दस्त लोकप्रिय हुआ। पाज भी इस आंदोलन से प्रभावित हुए और भारत को लेकर बहुत सी कविताएं लिखीं। सरकार ने इस पीढी के कई लेखकों को जेल में डाल दिया था और पाज ने उनकी रिहाई के लिए तीन साल तक बहुत प्रयास किए। भारत विषयक पाज की कविताओं में से चुनिंदा कविताओं का हिंदी में प्रयाग शुक्ल ने अनुवाद किया, जो साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया। हिंदी और भारतीय भाषाओं में ऑक्टोविया पाज की कविताओं का खूब अनुवाद हुआ है और कई संकलन प्रकाशित हुए हैं।
1968 में मेक्सिको में वास्तविक लोकतंत्र की मांग कर रहे हजारों विद्यार्थियों पर का आंदोलन जब नहीं थमा तो सरकार ने सेना भेज दी और सेना ने गोलियां चला कर हजारों छात्रों को मार डाला। ऑक्टोविया पाज इससे बेहद नाराज हुए और विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और पेरिस में जाकर शरण ली। 1969 में वे वापस मेक्सिको लौटे और ‘प्लुरल’ ( क्या आपको 'बहुवचन' की याद आ रही है?) पत्रिका शुरू की। 1970 से 1974 के दौरान वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय की चार्ल्स नॉर्टन पीठ में पढाने गए और इस दौरान पढाए गए विविध व्याख्यान ‘चिल्ड्रन ऑफ मीर’ पुस्तक के रूप में सामने आए। 1975 में सरकार ने ‘प्लुरल’ पर प्रतिबंध लगा दिया तो पाज ने नई पत्रिका शुरू की ‘व्यूएल्टा’। इसी शीर्षक से पाज ने 1969 से 1974 के बीच लिखी कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित किया। इस पत्रिका को स्पेनिश संस्कृति की असाधारण घटना मानते हुए पुरस्कृत भी किया गया। इस पत्रिका में पाज ने कम्युनिस्ट शासन के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन को बड़ा मुद्दा बनाया और तत्कालीन कम्युनिस्ट देशों में स्तालिनवादी तानाशही की प्रवृति का जबर्दस्त विरोध किया। पाज खुद को एक लोकतांत्रिक उदार वामपंथी मानते थे और कट्टर वामपंथ का विरोध करते थे। पाज मृत्युपर्यन्त इस पत्रिका के संपादक रहे। 1990 में जर्मनी में बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पाज और उनकी पत्रिका के सहयोगियों ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय वामपंथी लेखकों को इस परिघटना पर बात करने के लिए मेक्सिको बुलाया। 1974 में पाज को साहित्य में वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए यरूशलम प्राइज प्रदान किया गया। 1980 में पाज को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट प्रदान की और 1982 में ओकलाहोमा विश्वविद्यालय ने ‘न्युस्टेड अवार्ड’ प्रदान किया, जिसे नोबल पुरस्कार के बाद सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता है। 1998 में कैंसर से पाज का निधन हुआ।
पाज की कविता पर मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, बौद्ध और हिंदू दर्शन का गहरा प्रभाव था। उनकी कविता में प्रेम, आवेग, समय की प्रकृति और बौद्ध दर्शन का अद्भुत संयोजन दिखाई देता है। आधुनिक चित्रकला से पाज को गहरा लगाव था और उन्होंने अपने प्रिय चित्रकारों के चित्रों पर विपुल मात्रा में कविताएं लिखीं। लेकिन उनकी कविता और लेखन का सबसे ताकतवर पहलू है उनका तीव्र प्रतिरोध, जिसमें वे हमेशा मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता, वैयक्तिक आजादी की बात करते हैं और इस पर किसी भी प्रकार के अंकुश और दमन का विरोध करते हैं। इसके लिए वे अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और राजदूत जैसे पद को भी ठुकरा देते हैं। ऐसा प्रतिरोधी स्वर आपको विश्व साहित्य में कम ही देखने को मिलता है। नोबल पुरस्कार समारोह में पुरस्कार देते वक्त उनके इस प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करते हुए कहा गया कि पाज ने हमेशा ‘झुकने से इन्कार किया’ और यही उनके व्यक्तित्व को बड़ा बनाता है।
पाज कवि के अलावा बहुत गहरे चिंतक और समाजशास्त्री भी थे। उनके निबंधों की कई किताबें प्रकाशित हुई हैं, जिनमें ‘ऑन पोएट्स एंड अदर्स’ बहुत महत्वपूर्ण है। ऑक्टोविया पाज भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर बेहद सजग लेखक थे। इस पुस्तक में वे कहते हैं कि किसी भी समाज का सांस्कृतिक पतन उसकी भाषा के पतन से होता है, अगर भाषा को लेकर समाज सजग नहीं है तो उसका सांस्कृतिक पतन बहुत तेजी से होता है। नोबल पुरस्कार ग्रहण करते हुए पाज ने महज तीन मिनट के अपने भाषण में ढेर सारे महत्वपूर्ण सवाल खड़े करते हुए विश्व समुदाय से पूछा कि हम कब वास्तविक अर्थों में एक आधुनिक और सच्चे लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर पाएंगे, जो हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुकूल हो और जिसमें मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ जीने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। पाज ने कहा, ‘सितारे, पर्वत-पहाड़, बादल, वृक्ष, पशु-पक्षी, झींगुर, मनुष्य सबकी अपनी दुनिया है, ये सब अपने आप में एक दुनिया है और एक दूसरे से इनका संबंध है। हम जीवन को तभी बचा पाएंगे जब हम यह महसूस करेंगे कि प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता कितना गहरा और मजबूत बनता है। यह असंभव नहीं है। धर्म और विज्ञान की दुनिया में, उदारवाद और समाजवाद की परंपरा में ‘भ्रातृत्व‘ एक पुराना और बेहद उपयोगी शब्द है।‘ पाज के साहित्य में हमें उसे फिर से पुनर्जीवित करने की बराबर प्रेरण मिलती है। प्रस्तुत है उनकी एक छोटी-सी कविता-
स्पर्श
मेरे हाथ तुम्हारे होने के परदों को खोलते हैं
और अगली किसी नग्नता में कपड़े पहनाते हैं
तुम्हारी देह से देहों को निर्वसन करते हैं
मेरे हाथ
तुम्हारी देह के लिए
एक नई देह ईजाद करते हैं
(राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक में २३ अगस्त, २००९ को प्रकाशित.)
31 मार्च, 1914 को जन्मे आक्टोविया पाज को साहित्य विरासत में मिला था। इनके नाना आइरिनियो पाज खुद एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, उपन्यासकार और प्रकाशक थे। आक्टोविया पाज का बचपन अपने ननिहाल में बीता, जहां नाना की विशाल लाइब्रेरी में वे क्लासिकी मेक्सिकन और यूरोपियन साहित्य में डूबे रहते थे। बचपन के इसी अध्ययन और किताबी सोहबत का असर था कि मात्र सत्रह साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ और दो साल बाद दूसरा संग्रह आया। तेइस साल की उम्र में पाज ने अपनी कानून की पढ़ाई छोड़ दी और मेरिदा जाकर किसान और मजदूरों के बच्चों के स्कूल में जाकर पढाने लगे। इसी वर्ष उन्हें फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का निमंत्रण मिला और स्पेन के गृह युद्ध के उन दिनों में भी वे बेखौफ होकर गए। लौटकर पाज ने ‘टालर’ अर्थात् ‘कार्यशाला’ नामक पत्रिका निकाली और 24 की उम्र में एलेना गैरो से विवाह किया। इस विवाह से एक पुत्री का जन्म हुआ। 1959 में उनका तलाक हो गया।
1943 में पाज को प्रतिष्ठित गगनहेम फैलोशिप से नवाजा गया और वे बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पढने चले गए। दो साल बाद वे मेक्सिको की राजनयिक सेवा में चले गए जिसमें उन्हें पहले अमेरिका और फिर पेरिस भेजा गया। पेरिस प्रवास के दौरान पाज ने मेक्सिकन अस्मिता और विचार को लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लेबरिंथ आफ सॉलिट्यूड’ लिखी। 1952 में वे पहली बार भारत आए और यहां के साहित्य, संस्कृति और दर्शन से बेहद प्रभावित हुए। सेवाकाल में कई देशों में प्रवास करते हुए 1962 में पाज भारत में मेक्सिको के राजदूत नियुक्त हुए। यहां रहते हुए उन्होंने कविता लिखने के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। इनमें ‘द मंकी ग्रामेरियन’ और ‘ईस्टर्न स्लोप’ प्रमुख हैं। भारत में वे बंगाल की ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के संपर्क में आए और उन पर जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा। बांग्ला से शुरू हुआ ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के इस आंदोलन का मुख्य नारा था कि साहित्य, कला और संस्कृति को उपनिवेशवादी विचारों से मुक्त कराया जाए और पाठक की चेतना को झकझोर देने वाले ऐसे साहित्य का सृजन किया जाए कि नई सोच और मानसिकता का निर्माण हो। यह आंदोलन बांग्ला से चलकर हिंदी, मराठी, असमिया, तेलुगू और उर्दू में भी जबर्दस्त लोकप्रिय हुआ। पाज भी इस आंदोलन से प्रभावित हुए और भारत को लेकर बहुत सी कविताएं लिखीं। सरकार ने इस पीढी के कई लेखकों को जेल में डाल दिया था और पाज ने उनकी रिहाई के लिए तीन साल तक बहुत प्रयास किए। भारत विषयक पाज की कविताओं में से चुनिंदा कविताओं का हिंदी में प्रयाग शुक्ल ने अनुवाद किया, जो साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया। हिंदी और भारतीय भाषाओं में ऑक्टोविया पाज की कविताओं का खूब अनुवाद हुआ है और कई संकलन प्रकाशित हुए हैं।
1968 में मेक्सिको में वास्तविक लोकतंत्र की मांग कर रहे हजारों विद्यार्थियों पर का आंदोलन जब नहीं थमा तो सरकार ने सेना भेज दी और सेना ने गोलियां चला कर हजारों छात्रों को मार डाला। ऑक्टोविया पाज इससे बेहद नाराज हुए और विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और पेरिस में जाकर शरण ली। 1969 में वे वापस मेक्सिको लौटे और ‘प्लुरल’ ( क्या आपको 'बहुवचन' की याद आ रही है?) पत्रिका शुरू की। 1970 से 1974 के दौरान वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय की चार्ल्स नॉर्टन पीठ में पढाने गए और इस दौरान पढाए गए विविध व्याख्यान ‘चिल्ड्रन ऑफ मीर’ पुस्तक के रूप में सामने आए। 1975 में सरकार ने ‘प्लुरल’ पर प्रतिबंध लगा दिया तो पाज ने नई पत्रिका शुरू की ‘व्यूएल्टा’। इसी शीर्षक से पाज ने 1969 से 1974 के बीच लिखी कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित किया। इस पत्रिका को स्पेनिश संस्कृति की असाधारण घटना मानते हुए पुरस्कृत भी किया गया। इस पत्रिका में पाज ने कम्युनिस्ट शासन के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन को बड़ा मुद्दा बनाया और तत्कालीन कम्युनिस्ट देशों में स्तालिनवादी तानाशही की प्रवृति का जबर्दस्त विरोध किया। पाज खुद को एक लोकतांत्रिक उदार वामपंथी मानते थे और कट्टर वामपंथ का विरोध करते थे। पाज मृत्युपर्यन्त इस पत्रिका के संपादक रहे। 1990 में जर्मनी में बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पाज और उनकी पत्रिका के सहयोगियों ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय वामपंथी लेखकों को इस परिघटना पर बात करने के लिए मेक्सिको बुलाया। 1974 में पाज को साहित्य में वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए यरूशलम प्राइज प्रदान किया गया। 1980 में पाज को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट प्रदान की और 1982 में ओकलाहोमा विश्वविद्यालय ने ‘न्युस्टेड अवार्ड’ प्रदान किया, जिसे नोबल पुरस्कार के बाद सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता है। 1998 में कैंसर से पाज का निधन हुआ।
पाज की कविता पर मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, बौद्ध और हिंदू दर्शन का गहरा प्रभाव था। उनकी कविता में प्रेम, आवेग, समय की प्रकृति और बौद्ध दर्शन का अद्भुत संयोजन दिखाई देता है। आधुनिक चित्रकला से पाज को गहरा लगाव था और उन्होंने अपने प्रिय चित्रकारों के चित्रों पर विपुल मात्रा में कविताएं लिखीं। लेकिन उनकी कविता और लेखन का सबसे ताकतवर पहलू है उनका तीव्र प्रतिरोध, जिसमें वे हमेशा मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता, वैयक्तिक आजादी की बात करते हैं और इस पर किसी भी प्रकार के अंकुश और दमन का विरोध करते हैं। इसके लिए वे अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और राजदूत जैसे पद को भी ठुकरा देते हैं। ऐसा प्रतिरोधी स्वर आपको विश्व साहित्य में कम ही देखने को मिलता है। नोबल पुरस्कार समारोह में पुरस्कार देते वक्त उनके इस प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करते हुए कहा गया कि पाज ने हमेशा ‘झुकने से इन्कार किया’ और यही उनके व्यक्तित्व को बड़ा बनाता है।
पाज कवि के अलावा बहुत गहरे चिंतक और समाजशास्त्री भी थे। उनके निबंधों की कई किताबें प्रकाशित हुई हैं, जिनमें ‘ऑन पोएट्स एंड अदर्स’ बहुत महत्वपूर्ण है। ऑक्टोविया पाज भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर बेहद सजग लेखक थे। इस पुस्तक में वे कहते हैं कि किसी भी समाज का सांस्कृतिक पतन उसकी भाषा के पतन से होता है, अगर भाषा को लेकर समाज सजग नहीं है तो उसका सांस्कृतिक पतन बहुत तेजी से होता है। नोबल पुरस्कार ग्रहण करते हुए पाज ने महज तीन मिनट के अपने भाषण में ढेर सारे महत्वपूर्ण सवाल खड़े करते हुए विश्व समुदाय से पूछा कि हम कब वास्तविक अर्थों में एक आधुनिक और सच्चे लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर पाएंगे, जो हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुकूल हो और जिसमें मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ जीने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। पाज ने कहा, ‘सितारे, पर्वत-पहाड़, बादल, वृक्ष, पशु-पक्षी, झींगुर, मनुष्य सबकी अपनी दुनिया है, ये सब अपने आप में एक दुनिया है और एक दूसरे से इनका संबंध है। हम जीवन को तभी बचा पाएंगे जब हम यह महसूस करेंगे कि प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता कितना गहरा और मजबूत बनता है। यह असंभव नहीं है। धर्म और विज्ञान की दुनिया में, उदारवाद और समाजवाद की परंपरा में ‘भ्रातृत्व‘ एक पुराना और बेहद उपयोगी शब्द है।‘ पाज के साहित्य में हमें उसे फिर से पुनर्जीवित करने की बराबर प्रेरण मिलती है। प्रस्तुत है उनकी एक छोटी-सी कविता-
स्पर्श
मेरे हाथ तुम्हारे होने के परदों को खोलते हैं
और अगली किसी नग्नता में कपड़े पहनाते हैं
तुम्हारी देह से देहों को निर्वसन करते हैं
मेरे हाथ
तुम्हारी देह के लिए
एक नई देह ईजाद करते हैं
(राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक में २३ अगस्त, २००९ को प्रकाशित.)
सही कहा है कि पाज को भारत में अन्य विश्व साहित्यकारों की तुलना में अधिक आत्मीयता और सटीकता से जाना जाता है. फिर भी आपने कई नयी चीजों को एक साथ पिरोया है. साधुवाद.
ReplyDeleteयह बहुत अच्छी जानकारी अपने दी इसे सहेज कर रखना होगा
ReplyDeleteपाज से परिचय करने के लिए आभार..मगर इतने लम्बे परिचय के बाद इतनी छोटी कविता..!!
ReplyDeleteहिंदी में काफी दिनों तक भूखी पीढी की कविता छाई रही !
ReplyDeleteपाज क बारे में अच्छी जानकारी दी आपने !आपका ब्लॉग
वाकई बहुत अच्छा है !
पाज़ पे संछिप्त जानकारी देने के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteपाज़ के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी देने के लिए आपको दिल से शुक्रिया ... कुछ और कविताने दें तो और भी सुंदर हो जाए
ReplyDeleteहम सिर्फ इतना जानते थे की ओक्तोवियो पाज को नोबल पुरूस्कार मिला था पर आपने उनके बारे में इतनी जाकारी देकर अभिभूत कर दिया..पाज के जीवन के बारे में जानकारी पाकर हम उनके लेखन को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते है...
ReplyDeleteप्रकाश
कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें की ,
ReplyDeleteघर से बाहर जब भी निकले दिन भर नाम कमाया है .
पाज के बारे इतनी सुन्दर जानकारी के लिए शुक्रिया .
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