बचपन से मैं विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले महिलाओं के गीत सुनता आया हूं और साहित्य में रूचि पैदा होने के बाद से इन गीतों के विविध पक्षों को लेकर सोचता विचारता रहा हूं। सबसे पहले मुझे जिन गीतों ने आकृष्ट किया, वो थे विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत। इनमें भी खास तौर पर समधी और समधन को लेकर गाए जाने वाली गालियां। मेरी स्मृति में आज भी उस बारात की याद बहुत ताजा है जिसमें मैंने पहली बार इन वैवाहिक गालियों को गौर से सुना था। यह उस किशोरावस्था के दौर की बात है, जब शब्दों के अर्थ समझ में आने लगे थे और खुद भी तुकबंदी की उधेड़बुन प्रारंभ कर दी थी। मेरे ननिहाल पक्ष में विवाह था और गर्मियों की छुट्टियों के दिन थे। उस बारात में हम एक गांव में गए थे। वहां गांव की महिलाओं ने जिस तरह खुलकर गालियां गाईं थीं, वो अविस्मरणीय है। वर पक्ष के तमाम महत्वपूर्ण पुरुषों के नाम वधू पक्ष की स्त्रियां बारात में आए हम बच्चों से पूछतीं और फिर सबके नाम ले-लेकर खुलकर गालियां गाती जातीं और बारातियों के लिए पूरियां बेलने और सब्जी काटने के काम निपटातीं जातीं। उन बहुत-सी गालियों में एक आज भी याद रहती है तो इसलिए कि यह आज भी बतौर शगुन सब जगह गाई जाती है। समधी का नाम चाहे जितना लंबा या छोटा हो स्त्रियां उसे इस छोटे से छंद में बहुत खूबसूरती से पिरोकर अपने जज्बात का इजहार कर ही देती हैं।
रामू जी की लौंठी बड़ी मसतानी
म्हारी बोतल को डाटो बा ही खोलै
लुळ जा रै पतासा दिन उगियौ
अर्थात रामू जी की पत्नी बड़ी मस्त है, मेरी शराब की बोतल का ढक्कन वही खोलेगी। इसके बाद की पंक्ति सिर्फ छंद की पूर्ति के लिए है, इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि बताशे अब झुक जा, दिन उगने वाला है। वस्तुतः यह वैवाहिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा समय काटने का गीत है, जिसमें एक किस्म की मस्ती और ठिठोली है, एक नए बनने वाले संबंध को सहज बनाने की कोशिश है। इस तरह वे अपने तमाम समधियों के नामों से परिचित हो जाती हैं। इसमें अगर समधन का नाम मालूम हो जाए तो उसे भी पिरो दिया जाता है।
बहरहाल हम जब वापस लौटे तो रास्ते में दूल्हे के मामा का गांव था, वहां भी बारात की मेजबानी की गई और एक दिन ठहराया गया। यहां भी रात भर मांगलिक गीतों के साथ गालियां गाई गईं। तीसरे दिन जब बारात शहर आई तो मालूम हुआ कि दो दिन बाद लड़की वाले लड़की को लेने आएंगे और साथ में स्त्रियां भी आएंगी। राजस्थान में समधनों के इस मिलन को ‘समडोळा’ कहते हैं, इसके बिना समधन कभी एक दूसरे से नहीं मिलतीं। इस परंपरा के पीछे संभवतः यही आशय रहा होगा कि समधनों का यदि आकस्मिक मिलन होगा तो वह शिकवे-शिकायत का होगा। इसलिए ऐसी व्यवस्था बनाई गई कि एक उत्सवी मिलन हो जाए तो भविष्य में इस प्रथम मिलन की स्मृतियां संबंधों में कड़वाहट की जगह मधुरता पैदा करेगी। तो दो दिन बाद जो समधिनों का महामिलन हुआ, वह जबर्दस्त था। दोनों तरफ लंबे-चौड़े परिवार थे, इसलिए दोनों ओर से सैंकड़ों स्त्रियां एक साथ जमा हुईं। इक्का-दुक्का साड़ियों में और बाकी सब लहंगे और लूगड़ी में थीं। एक रंगीन नजारा था, भरपूर उत्साह और आनंद का। और फिर शुरु हुआ गालियां गाने का मुकाबला। दोनों तरफ से एक प्रतियोगिता जैसा माहौल बन गया, कव्वाली की तरह सवाल-जवाब का सिलसिला चल निकला और बिना किसी साज-बाज के गालियां इतने प्रभावी ढंग से गाई जाने लगीं कि एक संगीतमय वातावरण बन गया। ऐसे में किसी के भी पैर थिरक सकते हैं, सो दोनों तरफ से महिलाएं नाचने लगीं। मुकाबला दिलचस्प होता जा रहा था, शक्ति प्रदर्शन के लिए वर पक्ष की एक महिला ने मूसल थाम लिया था और उसे धरती पर खम ठोकने के अंदाज में हर टेक के साथ जोरों से जमीन में पैबस्त करने की कोशिश करतीं। वधू पक्ष कहां पीछे रहने वाला था, पास में एक थान था, जिस पर धूणा जलता रहता था, कोई वहां से एक चिमटा उठा लाई और फिर वधू पक्ष की सबसे दमदार गायिका ने उस चिमटे को तलवार की तरह लहराकर अपना शक्ति प्रदर्शन किया। कोई दो-तीन घण्टों तक यह दिलचस्प मुकाबला चलता रहा, जो बाद में खाने और विदाई तक निर्बाध गति से जारी रहा।
इस लंबे संस्मरण का मकसद यह बताना है कि राजस्थानी समाज एक बंद समाज है, जिसमें महिलाओं को बहुत कम अवसर मिलते हैं, जहां वे अपने आपको किसी भी प्रकार व्यक्त कर सकें। शादी-ब्याह के मौके पर उन्हें जो सीमित स्वतंत्रता मिलती है उसमें वे पुरुष सत्ता को ललकारती हैं, अपने आक्रोश को व्यक्त करती हैं और अगले अवसर तक ‘रिलेक्स्ड’ महसूस करती हैं। बंद समाजों में स्त्रियों को इस प्रकार के अवसर कम मिलते हैं जब वे पुरुषों को चुनौती दे सकें, उनके साथ चुहल कर सकें। विवाह और होली के अवसर पर ही उन्हें इसके लिए इजाजत मिलती है, जिसका वे भरपूर इस्तेमाल करती हैं। बारात के आगमन पर दूल्हे का स्वागत सत्कार तो ‘तोरण आयो राइबर’ जैसे सुंदर गीतों से किया जाता है, लेकिन बारातियों के लिए गाली गाई जाती है-
काळा-काळा ही आया रै
गोरो एक न आयो
बूढ़ा-बूढ़ा ही आया रै
छोरो एक न आयो
छोटा-छोटा ही आया रै
लांबो एक न आयो
राजस्थानी लोक संस्कृति के विविध पक्षों पर विचार करते हुए, खास तौर पर गीतों के सामाजिक पक्षों पर गौर करते हुए मुझे कई नई जानकारियां पता चलीं। अपनी एक कविता के लिए मुझे जब अंग्रेजी के ‘डिम्पल’ शब्द का कोई हिंदी पर्याय नहीं मिला तो मैंने राजस्थानी के विद्वान कवि चंद्रप्रकाश देवल से पूछा कि क्या राजस्थानी में कोई ऐसा शब्द है? उन्होंने कहा कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र में डिम्पल कोई उपमा या सौंदर्य का मानक नहीं है, इसलिए इसका पर्याय कहां मिलेगा। हमारे यहां तो प्रेमी या प्रेमिका के लिए ही कोई शब्द नहीं, लोककथा के प्रेमी-प्रेमिकाओं के नाम या गोरी, जोड़ायत जैसे संबोधनों से ही अपने प्रिय को बुलाया जाता है। संभवतः यही बात आज पूरे देश में देखी जा सकती है, जहां सब स्त्री-पुरुष अपने बच्चों की मार्फत पति-पत्नी को बुलाते हैं, गोलू की मां-गोलू के पापा जैसे संबोधनों से।
पिछले दिनों आदरणीय विजयदान देथा द्वारा संग्रहित और संपादित ‘गीतों की फुलवाड़ी’ पढ़ते हुए राजस्थानी लोक गीतों के भीतर की सामाजिक चेतना के कई पहलुओं को जानने का अवसर मिला। राजस्थानी के जितने भी प्रेम गीत हैं, उनमें पति प्रेम के गीत हैं, स्वतंत्र प्रेम के नहीं। जहां भी लड़की ने किसी दूसरे प्रेमी की कल्पना की तो वह निषिद्ध है, फिर वो चाहे मोर जैसा सुंदर पक्षी ही क्यों ना हो। मोर हो या जोगी, इन पर मोहित होने का मतलब है, ये मारे जाएंगे। ननद अपनी भाभी के साथ पानी लेने जाती है और रास्ते में या कुए-तालाब पर अगर किसी परपुरुष को देख भी लेती है तो भाभी ननद की मिन्नतें करती हैं कि वह ससुराल में किसी को नहीं बताए, वरना गजब हो जाएगा। इन प्रेमगीतों की इस पृष्ठभूमि के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहली बात तो यह कि भले ही बंद समाज में प्रेम की आजादी ना हो, पति के परदेस जाने या अन्यान्य कारणों से रूपवान पुरुष पर मोहित होने की स्थितियां समाज में होती थीं और इस पाप की सजा होती थी, जो आज भी राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के कई समाजों में देखा जा सकता है। इन गीतों से एक और बात पता चलती है कि अविवाहित स्त्री भी प्रेमी का स्वप्न अगर देखती है तो वह किसी राव या राजकुमार तक लाकर सीमित कर दिया जाता है। एक गीत में एक कुंवारी लड़की सिंध के एक राजकुमार रायधन का स्वप्न देखती है, जिसे माता खारिज कर देती है, कारण सिंध में अकाल पड़ा है और यहां खूब मेह बरसा है, इसलिए राव से ब्याहेंगे। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि बेटी को दूर मुश्किल हालात में नहीं ब्याहना।
राजस्थानी प्रेम गीतों में ‘कुरजां’ बहुत लोकप्रिय गीत है। कुरज एक प्रवासी पक्षी है जो मध्य एशिया से चलकर हर साल राजस्थान के रेतीले इलाकों में आता है और तालाबों के किनारे डेरा डालता है। इसके प्रवास स्थल में कंकड़ बहुत होते हैं, जिन्हें कुरज खाना पसंद करता है। कहते हैं कि कुरज पक्षी एक ही बार जोड़ा बनाता है। राजस्थानी लोक परंपरा ने इस मिथ को अपने भीतर इस कदर गूंथा है कि कुरज का मादा रूप कुरजां हो गया। अब नायिका या विरहणी के लिए कुरजां एक ऐसा माध्यम बन जाती है, जो उसके परदेस गए पति को उसका संदेश पहुंचा सकती है। कुरजां का परदेस कहीं और है, लेकिन भोली नायिका के लिए सब परदेस बराबर हैं। कुरजां की मनुहार करती नायिका कहती है कि क्या कंकड़ खाती है, तुझे सच्चे मोती चुगाउंगी, मेरे प्रियतम तक मेरा संदेस पहुंचा दे। कुरजां संदेश लेकर जाती है और पिया को साथ लाती है। ‘कुरजां ऐ म्हारो भंवर मिला दियो ऐ।’
पीहर और ससुराल के गीतों में नारी की वही सनातन कोमल भावनाएं हैं, जिसके तहत वह परदेस में ससुराल नहीं चाहती और हो जाता है तो पीहर की याद में रोती हुई गाती रहती है। फिर भी वह खुश है, तमाम मुश्किल हालात के बावजूद वह अपने सुंदर पति और भरे-पूरे ससुराल से प्रसन्न है, बस याद सताती है। यह एक प्रकार से स्त्री की भावनाओं को सीमित कर देता है और ऐसे वातावरण की सृष्टि करता है, जिसमें स्त्री के दुख कविता में व्यक्त तो होते हैं, लेकिन एक किस्म से स्त्री यहां समझौता कर लेती है। वह प्रतीकों में अपनी बात कहती है और गीत गाने भर से मुक्त हो जाती है। लोक की यह खास विषेषता भी है, जिसमें वह अपने दुख-दर्द के लिए किसी सांस्कृतिक माध्यम या कला रूप में अपनी शरणस्थली ढूंढ़ लेता है।
यहां मुझे एक गीत याद आ रहा है जो किसी भी जनम, मरण या परण के अवसर पर सबसे पहले गाया जाता है। यह एक प्रकार की वंदना है, जो भगवान गणेश को ‘घर आओ गजानंद राज’ कहने से शुरू होता है और फिर इसमें तमाम देवी, देवताओं, लोक देवता-देवियों तक को घर आने का निमंत्रण दिया जाता है। यह गीत अत्यंत सामान्य ढंग से प्रारंभ होता है और जैसे-जैसे इसमें देवी-देवता बढते जाते हैं, इसके गाने की गति और ओज भी बढता जाता है। सुनते हुए लगता है जैसे स्त्री जाति तमाम देवी-देवताओं को ललकार रही हों कि आओ और देखो हम किस हाल में रह रही हैं। यह गीत मुझे अक्सर वंदना से अधिक विद्रोह का गीत लगता है। मेरे विचार से स्त्री को जहां भी जगह मिली उसने अपनी व्यथा-कथा कहने का अवसर नहीं छोड़ा। फिर वो चाहे वंदना हो या गाली गायन। लोकगीतों में छिपी इस चेतना के स्वरों का जितना अवगाहन किया जाएगा, हमें लोक संस्कृति के उतने ही नए और महत्वपूर्ण पहलू नजर आते चले जाएंगे।
यह आलेख लोक संस्कृति की महत्वपूर्ण पत्रिका 'मड़ई' के अंक-2009 में प्रकाशित हुआ है।
बहुत सुन्दर विश्लेषण.. अगर इसमें भी गणगौर जोड़ दे तो अद्भुत..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आपने तो हमे भी गाँव की शादियों की याद दिला दी। इन शदियों का अपना ही एक मज़ा था मगर आज सब डी जे ने निगल लिया है। बहुत बहुत धन्यवाद्
ReplyDeleteसुन्दर विश्लेषण.
ReplyDeleteरोचक बढ़िया रहा यह आलेख लोकसंगीत का अपना ही एक रंग है जो हमेशा प्रभावित करता है ..
ReplyDeleteप्रिय भाई !
ReplyDeleteआपने राजस्थानी लोकगीतों के अपने इस आत्मीय विश्लेषण से आज का दिन सुंदर बना दिया .
साथ ही स्त्रियों के बंद पारम्परिक समाज में झांकने का भी एक विरल अवसर उपलब्ध करवाया .
राजस्थान में लोकगीतों की सुन्दर परंपरा रही है ...ब्याह शादी ही नहीं , हर त्यौहार और मौकों के लिए अलग सुमधुर गीत हैं ...
ReplyDeleteहालाँकि आधुनिक होते समाज में इनका महत्व कम होता जा रहा है ....!!
आपने एक साथ इतने सारे वषिय छेड़ दिये हैं कि एक बार पढ़ कर कुछ टिप्पणी देना मुझ जैसे जुगाली पाठक के लिए कठिन है. फिर भी देथा जी का ही एक शीर्षक याद आ रहा है - बातां री फुलवाड़ी. आपने तो जैसे बगीचा ही सजा दिया है.
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